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यो । प्रभिप्राय यह है कि सागर को तरंगों के समान इसका सौन्दर्य तरल था ।। ४१॥
यया मुताभिरामान्त निर्मला गुग संगता। हृदि हार लतेयोच्च: सन् दृष्ठिर्न दले परा॥ ४२ ॥
इसके उर स्थल पर निर्मल-स्वच्छ बामा में पिरोया हार प्रति अभिराम-सुन्बर प्रतीत हो रहा था। दूसरे पक्ष में उसका पवित्र हृदय सद्गुरगों से युक्त था । अर्थात् हृदय रूपी लता के समान अपने उत्तम पुण रूपी पत्रों से प्रत्येक के मन को प्राकृष्ट करने वाली थी। इसकी दृष्टि अति सरल निर्विकार और मनोहारी थी ।। ४२ ॥
नयनालि न रेमाते तां विहाय महोभतः । स्वभाष सुकुमाराङ्गी माकन्दस्येव मोरी: ॥४३॥
राजा के नयन रूपी भ्रमर इसको-स्वभाव से कोमलाङ्गी, सुकुमारी को प्राप्त कर अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते थे । पाम्र-मञ्जरी के समान रानी की रूप राशि के पान करने में मत्त षटपद की भौति राजा की दृष्टि इसी को और लगी रहती थी : ४३ ।।
प्रय तव सद्धर्म नोर निधीस पातकः । जोवदेव इति श्रेष्ठो भवन बरिणजापतिः ॥४४॥
इसी नगरी में जीवदेव नामक श्रेष्ठी था। यह परिणकपति था अर्थात् व्यापारियों में सर्वोत्तम धनाढय था। समर्म रूपी निर्मल जल से इसने अपनी पाप पंक का प्रक्षालन किया था । अर्थात् प्रत्यन्त धर्मात्मा था। निरंतर धर्मध्यान में लीन रहता था। ४४ ।।।
नार्थानां बर मेवानां संख्पानं यस्य वेश्मनि । विजातं वाग्विलासे वा संप्रकाशे महाकवेः ॥ ४५ ॥
इसके शुभोदय से नाना पसंख्य पदार्थों से इसका गृह शोभित था। यह महा कवियों के वाग्विलास का पात्र बना था। अर्थात बडे-बडे कविराज इसकी प्रशंसा कर अपनी काव्यशक्ति को धन्य समझते थे ।।४५॥
पूजया जिन नापामा मतिषीनां विहाय तः । बोनादि रुपया वापि पत समो अनि ना परः ॥ ४६॥
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