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निश्चय ही इस प्रकार की अद्भुत सुन्दरी पाज तक नहीं हुयी। जिसके नयन उधर जाते वहीं खसके लावण्य रस में डूब कर रह जाते ऐसा था उसका रूप ।। ३७ ॥
सर्वांग रमणीया याप्यवधान विभूषणः । कोमलाङयाः कृते कान्सेर्यस्याः सारंग चक्षुषः ।। ३ ।
उसका प्रत्येक प्रङ्ग स्वभाव से ही आकर्षक था, आभूषणों के द्वारा उसका सौन्दर्य नहीं बढ़ता अपितु आभूषण उससे शोभित होते थे । उस कोमलाङ्गी की आँखें हिरणी मृगी के नेत्रों की कान्ति से निर्मित थी। अर्थात् मृग लोधिनी होने से मुख की कान्ति अनुपम थी ॥ ३८ ॥
लीला कमल मुल्लिंध्य यस्मा मुख सरोकहे । निपपात महा मोवानिन्दिर परम्परा ॥३६॥
ऐसा प्रतीत होता था मानों कमलों का समूह सरोवर में विहंसनालीला करना छोड़कर इसके मुखरूपी सरोवर में प्रानन्द से प्रा गिरे हैं। पवन से प्रेरित कुमुद जिस प्रकार चंचल होते हैं उसी प्रकार महारानी के नयन कमल कदाक्षवारणों से चन्चल हो रहे थे मानों पानन्द के कोरों से साक्षात् कमल ही झूम रहे हों ऐसा प्रतीत होता या || ३६ ।।
यस्या मुखेन्युना साम्यं मन्ये प्रापयितु शशि । क्रियते कोयते चापि धात्रा भौतान्य पक्षयोः॥४०॥
उसका मुख चन्द्र का कान्ति से बढ़कर था। चन्द्रमा प्रपने भ्रमण से शुक्ल और कृष्णपक्ष करता रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस महादेवी के मुख की समानता को पाने के प्रयास में ही वह इस प्रकार घूमता रहता है । क्योंकि प्राज तक भी उसका कृष्ण-शुक्ल पक्ष चलता पा रहा है । रानी का मुख सदा एक समान उज्ज्वल है परन्तु चाँद क्रमशः काला और पुनः शुक्ल होता रहता है॥४०॥
दधाना नव लावण्यं प्रमालावर पल्लया। शृगार वारिषे बेला विधिना विहितेच या ॥४१॥
उसके प्रधर (प्रोठ) प्रवाल के समान अरुण वर्ण नवीन लावण्य युक्त थे। शृगार रूपी सागर में मानों विधाता ने लहरों के रूप रची १२ ]