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श्रतः जितेन्द्र देव ही सच्चे देव हैं और उनके द्वारा प्रणीत अहिंसा
धर्म ही उपादेय-ग्राह्य है ।
भव भोग शरीराला प्रसारत्वं सत्यज्य ऋण बरुलक्ष्मी नेग्रन्थ्य व्रस
विबुद्धयये । माश्रिताः ।। ६६ ।।
इसी प्रकार सच्चे गुरु वे ही हैं जो संसार शरीर और भोगों से सर्वथा विरक्त हैं, इनके प्रसार स्वभाव को जानकर जिन्होंने सर्वथा ममत्व का त्याग कर दिया है। सम्यक् प्रकार करण के समान लक्ष्मी का परित्याग कर दिया एवं निर्ग्रन्थ भेष धारण किया है ।। ६६ ।।
प्राणात्ययेऽपि नो येषा जोव हिसा बचो नृतं । चुरा रामा रिरंसा वा जिघृक्षा हृदि जायते ।। ६७ ।।
जिनके स्वप्न में भी, प्रारण नाश होने पर भी हिंसाभाव, असत्य वचम, परवस्तु ग्रहण चोरी, मैथुन भाव हृदय में नहीं होता वे ही महाव्रती परम गुरु हैं । अर्थात् अहिंसा, सत्य, श्रीचर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतों का सतत पालन करने वाले दिगम्बर मुनिराज हो सद्गुरु हैं ।। ६७ ।।
लाभा लाभारि मित्रेषु लोष्ठ काञ्चनयो रपि । समभावाः सुखे दुःखे निस्पृहाः स्वतनावपि ॥ ६८ ॥
जो लाभ-लाभ, शत्रु-मित्र, पाषाण- सुव, सुख-दुःख में समभाव धारण करते हैं। अपने शरीर में भी ममत्व नहीं करते वे यथार्थ गुरु हैं ॥ ६८ ॥
अनेक जन्म संभूतं पाप पङ्क शरीरिभिः । यत् पाद पद्म सतोष सेवा क्षात्यते क्षणात् ॥ ६६ ॥
जिनके पादपङ्कज रूपी तीर्थ के सेवन करने से प्राणियों के अनेक जन्मों में संचित पाप पङ्क क्षणभर में बुल जाती है ॥ ६६ ॥
भुञ्जते पाणि परत्रेण शेरते भुवि भासते । वनादौ विधि यद्ध संध्यानेनाध्ययनेन च ।। १०० ।।
वे द्विविध परिग्रह त्यागी गुरुदेव, पाणि पात्र में आहार भोजन-पान
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