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इस फलक का सहारा लेकर कभी पैरों से कभी भुजाओं से कभी छाती के बल से, कभी कमर की ओर से, कभी पीठ के सहारे से तथा कभी पेट के सहारे से निर्भय होकर निराकुलता से तैरने लगा । जिसके मन में धर्म और पञ्च नमस्कार मन्त्र है उसे भला भय कहाँ ? ॥ ५ ॥
यावत्तावत्पुरोदष्टं गगते प्राकृताकृति। पुरूष द्वितीयं तेन तत्रैकेन प्रजल्पितम् ।। ६ ॥
पान: शनै: विशाल उदधि को चीर कर तट पर पहुँचा ही था कि सहसा आकाश प्रांगण में विशाल काय दो पुरुषों को देखा। उनमें से एक बोला ।। ६ ।।
रे रे नकोच किं फर्म विहितं भवताना। येना स्मलितं बाधि पादाभ्यामवगाहसे ॥ ७ ॥
रे रे नर कीट तू कौन है ? तू ने यह क्या कार्य प्रारम्भ किया है ? हमारे सामने अाप इस उत्तम सागर को पैरों से रौंद रहे हैं ? ॥ ७ ॥
शक्रोऽप्यत्र जल क्रीडां कत्त माशते मम । दुरात्मन्नध कि पाति जीवन भवानित: ॥ ८ ॥
हे दुरात्मन् ! मेरे सामने यहाँ इन्द्र भी क्रीडा करने में भयभीत हो कांपता है फिर भला तेरा क्या साहस ? क्या प्राज तु जीवित रह सकता है यहाँ ? ।। ८ ।।
विप्रलब्धोसि केनाऽपि मन्द भाग्यतया घवा । मन्नाम है श्रुतं क्वापि येनैवं विचरस्यहो ।। ६ ।।
हे मन्द भाग्य क्या किसी के द्वारा तुम वंचित किये गये हो, या उन्मत्त हुए हो? क्या मेरा नाम नहीं सुना है ? जो इस प्रकार निर्भीक क्रीडा कर रहे हो ? ।। ६ ॥
निशम्येति करं कृत्वा दक्षिणं भरिकोपरि । वामं च फलके वत्त्वा प्रोवाचेति स मत्सरम् ॥ १०॥
इस प्रकार के उद्धत वचनों को सुनकर, जिनदत्त श्रमित होते हुए भी चौकन्ना हो उठा, दाहिना हाथ छुरि-कटार पर जा पहुँचा, बाये हाथ से फलक को पकडा । पौर बडे अहंकार से ललकारा ॥ १० ॥ १२८ ]
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