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शरन्मेघ
गलगजितम् ।
इय व्यर्थ कुरुषे टूर एव किमाश्वेहि जुहोमि वडवानले ॥। ११ ॥
अरे क्या व्यर्थ ही शरद् कालीन मेघों के समान कोरे गाल बजा रहे हो ? दूर हो से क्या गरजते हो ग्राश्रो मेरे सामने अभी बडवाग्नि में तुम्हारा होम करता हूँ ॥ ११ ॥
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श्राकाश गमनादेव मामस्थास्त्वं श्रात्मानमत्र यद्यान्ति पक्षिणोऽपि
महत्तमम् । भयाकुलाः ।। १२ ।।
मात्र आकाश में गमन करने से तू अपने को महान समझता है ? भयाकुल पक्षी भी आकाश में उड जाते हैं ? प्रर्थात् तुम पक्षी समान क्या इसका अभिमान करते हो ? ।। १२ ।।
शङ्कन्तां हन्त शकाचा भोग लालस मानसाः । ग्रहमस्मि पुनर्मल्लो मुञ्च शस्त्रमशंकितः
१३ ॥
यदि तुमसे शक्रादि- इन्द्रादि भीत होते होंगे, क्यों कि वे भोगों जो रहते हैं हूँ, तुम में शक्ति है तो निशंक होकर
शस्त्र चलाओ ।। १३ ।
प्रमाद्यतोऽपि सिंहस्य सिंहस्य कुरङ्गः क्वापि रे मूढ
केसरच्छटा ।
लुप्यते दृष्टं वेति श्रुतं त्वया ॥
१४ ॥
रे मूढ सिंह प्रमाद में भी पड़ा हो तो क्या हिरणों के द्वारा उसकी केशर छटा का हरण करते हुए कहीं तूने देखा या सुना है ? अर्थात् मैं यद्यपि बहुत थका हूँ तो भी क्या तेरे जैसे कार को परास्त करने में पूर्ण समर्थ नहीं हूँ ? श्रवश्य ही समर्थ हूँ । १४ ॥
श्रुत्वेति तं महासत्त्व शालिनं समुयाचसः । कोपंभुञ्च महावीर मथंवं त्वं परिक्षितः ।। १५ ।।
जिनदत्त के प्रोज भरे शब्दों को सुनते ही उस विद्याधर ने उसके बल - पराक्रम, और महत्त्व को समझ लिया । वह बड़े विनय से, शान्ति पूर्वक बोला हे महामते ! बुद्धिमन् ! प्रसन्न होइये, मेरे यथार्थ युक्तियुक्त वचन सुनिये ! कोम त्यागिये, मैंने मात्र प्रापकी परीक्षा की थी ।। १५ ।।
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