________________
इस कलाकार ने परिचय दिया । जिसे सुनकर सेठ को संतोष हुआ । तथा उस कलाकार को समयोचित पारितोषिक भी दिया एवं इसी प्रकार का सुन्दर चित्र जिनदत्त कुमार का तैयार करो ऐसा श्रादेश देकर विदा किया ॥ ७८ ॥
तं समर्प्य ततस्तत्र प्रेशिता वरणाय ताम् । परिष्टाः श्रेष्ठिना वक्तु चम्पायां नर सत्तमाः ॥ ७६ ॥
चित्र तैयार हो गया | जिनदत्त का चित्रपट लेकर एक सुयोग्य व्यक्ति को चम्पानगरी में भेजा । तथा कन्या का अपने पुत्र के साथ वरण करने का संदेश दिया ।। ७६ ।।
तैर्गत्वा दर्शितो लेख : श्रेष्ठिनः स पटस्तदा । मेने तेनाऽपि संसिद्ध तद् दृष्ट्वाशु समीहितम् ॥ ८० ॥
उधर चम्पानगरी में वह बुद्धिमान द्रुतगति से जा पहुंचा एवं श्रेष्ठी से चित्रपट के साथ जीवदेव का वृतान्त भी कह सुनाया । श्रर्थात् " वणिक् शिरोमणि जीवदेव अपने सुपुत्र जिनदत्त के साथ श्रापकी विमला कन्या का विवाह मंगल करना चाहते हैं" यह शुभ संदेश सुनाया । इस प्रति समाचार को सुनकर विमलचन्द्र श्रेष्ठी मन ही मन फूला न समाया | पर देखा, पत्र पढ़ा और अपने सभीहित इच्छित कार्य की संसिद्धि ज्ञात कर परमानन्द को प्राप्त हुआ ॥ ८० ॥
सागरः ॥ ६१ ॥
स्वास्मै कन्यकामेतां कृत कृत्यो भवाम्यहम् । सभाव्येति चकारेषां गौरवं गुण तातो पान्त गता साऽपि तमनाक्षीत् पटं सुता । दर्शनादेव चास्याभूत् मनोनू शर शल्लिता ॥ ८२ ॥
विचारने लगा, इसको कन्या प्रदान कर मैं कृत कृत्य हो वह जाऊँगा । वस्तुतः मेरी कन्या के योग्य ही यह वर है । गुणसागर और गौरव की राशि स्वरूप है। इन विचारों से युक्त सेठ विराजमान था उसी समय वह कन्यारत्न वहाँ आयी। पिता के कर कमलों में स्थित उस चित्रपट के दृष्टिगत होते ही वह हतप्रभ हो गई । काम वाण से विद्ध हो श्रलब्ध रूप को निहारने लगी ।। ८१-८२ ॥
४० 1