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वहीं से कामदेव वाण द्वारा आकर्षित करली जाती । प्रर्थात् जिस जिस अङ्ग का अवलोकन करता अपलक नयन मधुकर वहीं प्रेमरस में मत्त हो जाते ॥ ६७ ॥
कारयामास चंतस्याः पुरोधा पाणि पीडनम् । सलज्जा लिखदेषाऽपि परदागुडष्ठेन भूतलम् ॥ १८ ॥
इसी समय विवाह विधि कारक पुरोहित ने "पारिए पीडन " क्रिया की अर्थात् कन्या का हाथ वर के हाथ में दिया। उस समय वह कन्या लज्जाभार से नम्रीभूत हो अपने पैर के अंगूठे से जमीन कुरचने लगी। ठीक ही है श्रेष्ठ कुल ललनामों का लज्जा और विनय ही आभूषण है । उस समय लगता था मानों अंगूठे से कुछ लिख ही रही हो ॥ ६८ ॥
साल से
यस ते
शिवविभ्रमे । गाढोरकष्ठे सलज्जे चान्तराले बलिले सदा ॥ ६६ ॥
भूमितन्मुखयोर्मध्यं चक्रतु स्तद्विलोचने । शङ्खसि ता सितानेक नीलोत्पल दलाकुलम् ॥१००॥
आलस्य में, मद, प्रमोद, स्नेह एवं स्वाभाविक विभ्रम में वे वर-वधू बेथे, गाढा लिङ्गरण में सलज्जा वेदी- विवाह मण्डप में शोभित हो रहे थे । भूमि पर उनके मुखाम्बुज पर चञ्चल नयनों की रमणीय छटा से प्रतीत होता था कि अनेकों नील कमलों के दल ही हों ।। ६६-१०० ॥
सार्द्धं समा ततस्तत्र परोयाय हुताशनं । संगमास्थिर होम्बूत सन्तापं वा वहिः स्थितम् ॥ १०१ ॥
उस मनोहरी के साथ पाणिग्रहण करने के लिए यह अग्नि के चारों ओर घूमने लगा । श्रग्निशिखा के संताप से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों संगम के विरह का संताप ही बाहिर आकर स्थित हो गया है । अभिप्राय यह है कि थोडा भी विलम्ब असह्य था ।। १०१ ।।
जुह्वतस्तस्य तथाभू ल्लाका शब्दोग्नि योगजः । जानेहं योग्य सम्बन्धात् साधुकारं शिलि वद ।। १०२ ।।
पिरोहित द्वारा लाजा धान की खील हवन में डाली जा रही थीं । अग्नि के संयोग से उनमें से चट-पट शब्द निकल रहे थे वे ऐसे प्रतीत
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