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विद्याधर नगर में पहुँचना, उसके साथ विवाह कर यहां तक लाना और रात्रि को अदृश्य हो जाना मादि समस्त बार्ता सुनायी तथा उसके स्वभाव गुण, धर्म, रूप लावण्य का विवरण भी बतलाया। जिसे सुनकर के दोनों एक दूसरी का मुखावलोकन कर मुस्कुराने लगों पौर पाश्चर्यान्वित हुयीं ।। ५३ ॥
चिन्तितम्च किमेतेन भवितव्यं प्रिपेरण नौ। तयोऽस्मद् वृत्त संवादि बरत्येषा वचोखिलम् ॥ ५४॥
वे दोनों ही विचार में पड़ गयीं और सोचने लगी कि "क्या यही हम दोनों के प्राणनाथ हों? क्योंकि जो कुछ यह कह रही है वह सब कुछ हमसे ही सम्बन्धित प्रतीत हो रहा है ॥ ५४ ॥
अषया किमलीकेन विकल्पेनामुना धुना। प्रामाका फगता इस साप' ५५ ।
अथवा हमें इस समय व्यर्थ ही प्रसद् विकल्पों से भी क्या प्रयोजन ? यही हमारे कन्त हों तो हों। हो सकता है "हमारा भाग्य रूपी वृक्ष फलिस हो जाय" ॥ ५५ ॥
प्रकाचि च लगाोश बोहवा मा शुनः गुमे । सम दुःखा पवावाभ्यां भवती च समिणी ।। ५६ ॥
इस प्रकार तर्क-वितर्क कर वे दोनों उसे आश्वासित करते हुए कहने लगी, हे शुभे, हे विद्याधर पुत्री ! शोक का त्याग करो, हम सब एक समान दुःखाभिभूत हैं। प्रतः पाप भी हमारी साधर्मिणी हैं। है बहिन ! शान्ति पारण करो ।। ५६ ॥
एवं विधानि संसारे सरां प्राण धारिणाम् । दुःखानि शतसः सन्ति तद्विषावेन कि सखि ।। ५७ ।।
हे सखि ! संसार में इस प्रकार के सैंकड़ों दुःख हैं, संसारी जीव इन दुःखों से पीड़ित हो कष्ट सह रहे हैं। संसार का स्वरूप ही यही है फिर विषाद करने से क्या प्रयोजन ? अनेकों दुःखों का आना-जाना ही तो संसार है॥ ५७ ॥
पथा विष परिजात स्व वृत्तान्ता कृताच सा।
श्रुत्वा सम्पारितं बेतः स्वकीय तयका सदा ॥ ५८॥ १३८ ।
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