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( द्वितीय - सर्व )
दधानस्यापि तस्याथ यौवनं नयनामृतं । बभूव मानसं नित्यं नारी सुख पराङ्गमुखम् ॥ १
यद्यपि जिनदत्त कुमार यौवन की पराकाष्ठा पा चुका । वह नयनों में अमृत घोलता, अङ्ग-प्रत्यङ्ग से सौन्दर्य भरता, किन्तु यह योवन की मादकता उसके मन को विकृत नहीं कर सकी । वह भङ्गना संग से पूर्णतः विरक्त रहा ॥ १
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बाव अल्प वितण्डादि चया चतुरोन्यदा ।। २ ।। वाहनेन सुरङ्गाणां शास्त्राभ्यासेन कर्हिचित् । परोक्षणेन रत्नानां साधूनां सेवयान्यदा ॥ ३ ॥
विनोद भरा वह काव्यामृत का पान करता, कभी वाद-विवाद कर जयशील होता है वितण्डादि चर्चाओं में मनोरंजन करता । श्रश्व-गजादि वाहनों पर आरूढ हो वनविहार आदि करता कभी शास्त्रस्यास में लीन होता एवं इच्छानुसार रत्नपरीक्षा कर अपनी बुद्धि कौशल का प्रयोग करता तथा समयानुसार साधुवर्ग की सेवा वैयावृत्ति, विनयादि द्वारा अपने को धन्य धन्य मान प्रमुदित होता था ।। २-३ ॥
पूजोत्सवं जिनेन्द्राणां राजकायैः कदापि च ।
इत्यादि चारु चेष्टाभि रसक्तो विषयेश्वसौ ॥ ४ ॥
यदातदा श्री जिनेन्द्र देव की विशेष पूजा आदि उत्सव करने में संलग्न होता था । तथा जब कभी राजकार्यों द्वारा समय यापन करता था । इस प्रकार नाना शुभ- चेष्टाओं में रत रहता किन्तु विषयों से सतत लिप्त रहा || ४ ||
समस्तसुख सम्पत्ति समुग्धो बुध वल्लभः | दिनानि गमयामास वयस्यैः सहितो मुदा ।। ५
समस्त सुख सम्पत्ति का भोग करते हुए भी काम भोगों से विरक्त विद्वानों का प्रिय वह अपने समवयस्क मित्रों के साथ सुख पूर्वक जोवन बिताने लगा ।। ५ ।
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