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गतं क्षयं क्षणात् कान्त भवतव समं धनम् । विनं विनाधिपेनेव कथं पुत्रो भविष्यति ॥ ७५ ।।
हे नाथ ! आपके साथ-साथ ही धन भी नष्ट हो गया। यह सूर्य के समान दिन-दिन पुत्र किस प्रकार पलेगा । अर्थात् इसका कौन सहायी होगा ? ।। ७५ ।।
इत्यादिक विलप्यातौ संलग्ना ग्रह कमरिण । ववृद्ध च भवां स्तन दोन मूर्तिः सुवुः खितः ॥ ७६ ॥
इस प्रकार विलाप कर कुछ धयं से गृह कार्यो में संलग्न हुयी । बड़ दुःख से किसी न किसी प्रकार तुम्हारा पालन-पोषण करने लगी और तुम भी दोन मूर्ति के समान दु:ख से बढ़ने लगे ।। ७६ ।।
तमालोक्य जनः सर्वे वृधोतीति तथा सुतः। समस्ता तेन नो जात रविरगेव शनैश्चरः ॥ ७७ ।।
तथा पुत्र को इस प्रकार दीन-हीन देखकर लोग कहते, यह कहाँ से ऐसा हना है, क्या कभी रवि से शनिश्चर होता है। अर्थात सूर्य समान पिता से यह शनिश्चर हो गया है ।। ७७ ॥
क्रमाच्च यौवनं प्राप्तः कृत दार परिग्रहः । प्रामान्तरे प्रयास्येव अगिज्यायं विने विने ॥ ७ ॥
इस प्रकार क्रमशः उसने यौवन पद प्राप्त किया और विवाह भी हो गया। ग्राजीविका के लिए प्रतिदिन ग्रामान्तर को जाने लगा। वाणिज्य के लिए जाना ही पड़ता ।। ७८ ।।
ततः किञ्चित समानीय कुरुते स दिन यम । स प्रातरचलितोन्येध लत्विा परिकर नितम् ।। ७६ ।।
प्रतः अपने परिवार को कुछ लाकर देता। उससे तीन दिन काम चलता । किसी एक दिन वह अपने परिवार को लेकर प्रातःकाल ही कारिणज्य करने निकला ।। ७६॥
अन्तरेत्र ततस्तेन मुले अश्वस्थ महीबहः ।
त्रिकाल योग सम्पन्नः सर्व सत्व हितोद्यत: ॥८०॥ १७२ ]