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उदीयं च तथा वृत्त जनेभ्यो भव्य बान्धवः । इवं विचिन्तया मास संविग्नो हृदये तदा ।। १२ ।।
उसने (जिनदत्त) भी अपना सकल वृत्तान्त सुनाया, सबकी शंका निवारण की तथा संसार से उद्विग्नमना होकर इस प्रकार चितवन करने लगा ॥ १२ ॥
प्रचव साधुना नेन चक्षु रुद्घाटितं मम । विषयाशा विमुग्धस्य वयित्वा भवान्तरम् ।। १३ ॥
अहो ! प्राज इन साधु रत्न ने नेरे मिथ्या तिमिर से प्राच्छादित लोचन जन्मीलित किये हैं। विषयों में उलझे, प्राशाजाल में पड़े मेरे पूर्व भव का स्वरूप दिखाकर मेरी निद्रा भंग की है ॥ १३ ॥
न भया विसं किया होगा मोनाः । महत्वाच्च तथापीत्थं सम्पदा मस्मि भाजनम् ।। १४ ।।
उस भव में दुर्भाग्य के योग से मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआभिखारी जैसा जीवन था। प्रज्ञ होने पर भी जो कुछ एक दिन पुण्य सम्पादन किया उससे इस समय अनेक सम्पदानों का पात्र हुया हूँ ॥१४॥
प्रत्यल्प मध्यहो न्यस्तं विधिना पात्र सत्तमे । शत शाखं फलस्याशु बट बीज मिव ध्र वम् ॥ १५ ।।
अहो ! दान का चमत्कार, अत्यन्त मल्प विधिवत् उत्तम पात्र को दान दिया वह प्राजवट बीज की भौति निश्चय ही सैकड़ों शाखाओं के रूप में फलित हुआ है । वस्तुतः सत्पात्र दान हजारों गुणा फल प्रदान करता है। किन्तु भक्ति पूर्वक विधिवत् दिया जाना चाहिए ॥ १५ ॥
तावतंब यवि प्राप्तः सम्पदं जगदुत्तमाम् । स्वर्मोक्ष सुख सम्पत्तिः सुलभैव ततो ध्र वः ॥ १६ ॥
यदि इतने मात्र से जीव इतनी उत्तम भोग सम्पदा प्राप्त कर सकता है तो क्या विशेष त्याग से स्वर्ग मोक्ष की सुख सम्पदा सुलभ नहीं होगी ? अवश्य ही सरलता से प्राप्त हो सकती है ।। १६ ।।
परं चेतयते जन्तु मत्मिानं मूढ मानसः । प्रमाद मद मात्सर्य मोहाशाने निरन्तरम् ॥ १७ ॥
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