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चढाया उतारा गया उन वृक्षों पर कीलों के समान कार्टे होते हैं वलात् उन पर चढाने उतारने से रगड़ कर शरीर लोह लुहान हो जाता है । क्या कहूँ वहां शारीरिक मानसिक एवं वाचनिक अनेकों कष्टों को सहा । वहां एक क्षण को भी कोई शरण नहीं । मरण भी नहीं हो सकता श्रर्थात् प्रायुष्य पर्यन्त महाभयंकर दुःखों को सहना ही पडता है क्योंकि वहां प्रकाल मरण नहीं हो सकता । शरीर छिन्न-भिन्न होने पर पुनः पारे के समान जुड़ जाता है । इतने वीर दुःख नरकों में हैं ।। ५६,५७, ५८, ५६, ६० ॥
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परायत्त
प्रतिकारतः ।
सर्वदेव वृत्तयः विनारण्य भुवो लोक मध्यमा स्तु समन्ततः ॥ ६१ ॥ हेयावेय विकल्पेन बिकला सर्ववा त्रिधाः । सहन्ते दुःख संभारं तिर्यञ्चोऽपि विवानिशम् ।। ६२ ।।
पशु पर्याय को क्या कथा ? सदेव पराधीन वृत्ति रहती है । दुःखसुख का प्रतिकार करने की योग्यता ही नहीं है । इस मध्य लोक में उत्पन्न होकर भी चारों ओर से अरण्य में असहाय हो दुःख ही सहे । निरंतर हेमादेय बुद्धि शून्य रहा। कर्त्तव्याकर्त्तव्य विचार हीन होकर मानसिक, दैहिक और भौतिक तापों के भयंकर दुःख समूह को सहन किया। रात-दिन विपत्तियों का ही शिकार बना रहा ।। ६१-६२ ॥
प्राध्यते पुण्य योगेन मानुषत्वं कथञ्चन । भ्राम्यता भूरि दु:खासु चिर कालं कुयोनिषु ॥ ६३ ॥
पुनः किसी-किसी प्रकार महान दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त हुयी । अनेकों दुःखों से भरे घनघोर तिमिराच्छन्न कुयोनियों में भटकते भटकते किसी प्रकार यह मानुष भव मिला ।। ६३ ।।
तत्वेप्यनार्थ खण्डेषु जन्म यत्र जिनोदितः । स्वप्नेऽपि दुर्लभो धर्मो देहिनामघमोहिनाम् ॥ ६४ ॥
मनुष्यों में भी म्लेच्छ खण्ड में उत्पन्न हुआ जहाँ श्री जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट धर्म स्वप्न में भी प्राप्त न हो सका । पाप और मोह से अभिभूत प्रारणी को भला जिनोदित धर्म वहाँ किस प्रकार प्राप्त होता ? ।। ६४ ॥
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