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सेवक । कभी अनिष्ट का संयोग तो कभी इष्ट का वियोग समान रूप से बदल जाता है ।। ६० ।।
रूप लावण्य सौभाग्य भंगोयत्र मुहर्ततः। तत्रास्ति सखि कि क्यापि संसारे सुख संभवः ॥ १ ॥
हे सखी ! जिस संसार में रूप, लावण्य, सुख, सौभाग्यावि एक अन्तर्मुहूर्त में नष्ट हो जाता है उस लोक में भला सुख कहाँ सम्भव
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भावा हर्ष विषावाझानि मेषमपि चक्षषः । विजित्य यत्र वर्तन्ते कुतस्तत्र भवेति: ।। ६२॥
हर्ष-विषादादि भाव जहाँ नेत्र की टिमकारमात्र समय में परिणमित हो जाते हैं-बदलते देखे जाते हैं वहां भला प्रीति किस प्रकार की जा सकती है ।। ६२ ॥
इदं होगतमं घात्र जन्म स्त्रीणां सुलोचने । सातावयोप्यहो यत्र परेभ्यः पालयन्ति ताः ॥ ६३ ।।
हे सुलोचने ! यह स्त्री पर्याय महा हीनतम है माता-पिता के अधीन पालित होता है पुनः वे भी अन्य के आश्रित कर देते हैं अर्थात् पाणिग्रहण संस्कार कर कन्या को वर के प्राधीन करते हैं ।। ६३ ॥
प्रवाप्य च महानर्थ कारिकि नव यौवनम । मोहिता रति सोल्येषु जायन्ते कान्त बीविताः ।। ६४ ॥
नारी जन्म मिला फिर नव यौवन का प्रादुर्भाव और भी दुःखदायी है क्योंकि इस मनर्थकारि रूप यौवन के कारण पति के जीवित रहते उसके साथ महा मोहविमूढ हो रति सौख्य में विमुग्ध हो जाती हैं अर्थात् विवेक हीन हो पात्म स्वरूप को भूल कर विषय भोगों में ही लीन हो जाती है ।।१४॥
वियोगे सति कान्तस्य सर्वसो म्लान मूर्तयः । अन्तः शुष्यन्ति सन्तापं रंभोजिन्यो हि में रिव ॥ १५ ॥ यदि पापोदय से पति वियोग हो गया तो सर्व प्रकार मलिन हो
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