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नाना वस्त्रालङ्कार दिये । स्नेह पूरित हृदय से पुत्री का श्रालिङ्गन किया । प्रभुविगलित नयनों से किसी प्रकार विदा दी ।। ११६ ॥
प्रयोश्च
रत्नः पुरेण च
राज्य
प्रापृच्छ सूपति प्रापत्तरं
परिवार जनः समग्र ।
कृताप चितिः
कुमारः ॥
सर्व
पुरस्सर
लोकम् ।
जल निधेः स्वजनानिव ॥ ११७ ॥
राज परिवार के अन्य जन प्रेम भरे उन्हें विदा करने को साथ-साथ चले । कुछ जन राजा की आज्ञा ले सागर तट पर श्राये । हमारे रहनसंचयपुर को त्याग कर सूना कर कुमार जा रहे हैं । इस प्रकार प्रीतिभरे जन-समूह समन्वित हो गया ११७ ॥
माङ्गल्यं सकल विद्याथ विधिनात्यानं पाचकम् । पूर्णेच्छ शुभ बासरे सह जर्नस्ते सार्थं वरहाविभिः ॥ आठो धन बद्धकेतु निकरं पोतं सपुण्ये जवात् ।
मुक्ताः सोऽपि चचाल वारिधि जले मन्वानिल प्रेरितः ।। ११८ ।।
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समस्त माङ्गल्य विधि सम्पन्न हुयी । नाना आशीर्वाद साधुवाद एवं स्नेह मिलन के बाद कुमार ने याचकों को इच्छित वस्तु प्रदान कीं । शुभ दिन में अपने सार्थवाह साथियों के साथ जहाज में सप्रिया प्रारूढ़ हुआ। उस पोत के शिखर पर सुन्दर ध्वजा फहराने लगी। देखते ही देखते मन्द मन्द पवन से प्रेरित यान सागर की लहरों के साथ भागे बढ़ने लगा ।। ११८ ॥
इति श्रीमद् भगवद् गुणभद्र स्वामी विरचित श्री जिनदत्त चरित्र का चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ ।