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हे कान्ते वीतराग सर्वज्ञ प्रभु के अतिरिक्त जो राग-द्वेष कल्मष से मलीमष हैं, गदा दण्डादि धारण किये हैं. रमा भी अर्द्धांगिनी है, जो राज्यविहीन है वे कभी भी देव नहीं होते हे विशाल नेत्रे तुम दृढतापूर्वक इसे समझो ।। ८६ ।।
तस्त्रिधा प्रतीहि देवानमधिदेवतम् । चराचर जगज्जन्तु कारुण्यं स्वामिनं जिनम् ॥ ८७ ॥
त्वं
हे वरानने ! मन वचन काय से देवाधिदेव प्ररहंत भगवान को देव समझो, वे समस्त तीन लोक के चराचर प्राणियों का कल्याण करने वाले करूणा निधान हैं, सबके स्वामी हैं, इस प्रकार दृढ प्रतीति करो ॥ ८७ ॥
धर्म स्तद्वचनाम्भोज निर्गतः सुगति प्रदः । यस्य मूलं समस्तार्थ साधिका करुणा मता ॥ ८८ ॥
उन्हीं के मुखारविन्द से निकला हुआ उत्तम धर्म है, सुगति को देने वाला है । इस धर्म का मूल दया कहा है । यह धर्म समस्त श्रर्थों का सफल साधक है ॥ ८८ ॥
कृतं किमपि पूर्खेन्दु वदने दयया समम् । विद्ध रसेन वा तात्र सर्व कल्याण
कारकम् ॥ ८६ ॥
जिस प्रकार रसायन के योग से तांबा भी कल्याण अर्थात् सुवर्ण हो जाता है उसी प्रकार जिन प्ररणीत धर्म-करुणामयी धर्म से हे पूर्णेन्दु वदने ( चन्द्रमुखी) सर्व कल्याण प्राप्त होते हैं । संसार में कुछ भी सार नहीं जो धर्म से प्राप्त न हो ॥ ८६ ॥
उद्देशाद्देवतादीनां कृतोऽपि प्राणिनां नरकाय गुडोन्मिश्रं विषं मारयते न
चत्रम् | किम् ।। ६० ।।
हे देवि ! सुनो, देवता आदि के उद्देश्य से किया हुआ प्राणिवध भी प्राणियों को नरक का कारण होता है । क्यों कि विष मिश्रित गुड क्या प्रारण नाशक नही होता ? प्राण घातक ही होता है । उसी प्रकार धर्म के नाम पर की गई हिंसा भी दारुण नरक यातना देने वाली होती है ॥ ६० ॥
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