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प्रथासौ निवतोऽपि दृष्ट्रा प्रविशता तत्र
उधर प्रज्ञात विचरता जिनदत्त कुमार दधिपुर नामक नगर में पहुँचा । नगर प्रवेश करने के पूर्व मार्ग में उसने एक मनोहर उद्यान देखा ॥ ६७ ॥
प्रापदभिपुरं पुरम् । तेनोद्यानं मनोहरम् ।। ६७ ।।
तस्थ मध्ये विवेशासौ विश्रामाय ददर्श छ । गुल्म वल्ली द्रुमा स्तन समलिप्य अकेशिनः ।। 8 ।।
वह श्रमित हो चुका था श्रतः विश्रामार्थं उसने सुन्दर बगीचे में प्रवेश किया उसके मध्य में जाकर देखा कि उसकी बल्ली, सब मुरझाई हैं सूखी पड़ी हैं ॥ ६८ ॥
गुल्म, लताएं
ग्रहो वनमिदं केन हेतुना भववोबुशम् । क्रियमाणेऽपि सेकादी या विस्थमचिन्त्यत् ॥ ६६ ॥
इस प्रकार की दशा देखकर वह विचारने लगा, ग्रहो ! यह बाग सतत सींचा जा रहा है तो भी क्यों इस दुर्दशा को प्राप्त है ? ।। ६६ ।
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साबरात्र समायातः परितः पक्षिभिः पुरत् । जंपानस्थ: समुद्राख्यः सार्थवाही बनाधिपः ॥ १०० ॥
वह इस प्रकार आश्चर्य से सोच रहा था कि उसी समय नगर से परिकर सहित एक धनाढ्य समृद्रदत्त नामक व्यापारी वहाँ ना पहुँचा यही इस उद्यान का पालक था ।। १०० ।।
श्रयमप्राकृताकार: कोऽपि पान्य विनिया बाधि तेना सौ कुतो यूयं
इतिक्षरणम् । समागताः ।। १०१ ।।
अज्ञात पुरुष को उद्यान में देखकर उसने विनय से पूछा (यद्यपि यह अस्वाभाविक प्राकृति में था ) । तो भी, हे भद्र आप कौन हैं और इस समय कहाँ से या रहे हैं ।। १०१ ।।
भक्तिञ्च कुमारेण भ्राम्यन् भूमिमितस्ततः । क्षेमादिकं परिपृच्छय शात्त्वोत्तम गुणञ्च तम् ।। १०२ ।। उसके प्रश्नानुसार कुमार ने उत्तर दिया, हे भाई मैं भूमि पर इधर
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