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ततः प्राप्तोसि पुण्येन विश्व कल्याण भाजनम् । नर रत्नं त्वमित्युक्त्वा तं चक्रे तदवसिनम् ।। २१ ।।
आज महा पुण्य से आप जैसे विश्वकल्याण भाजन सत्पुरुष को प्राप्त किया। वस्तुतः भाप नर रत्न हैं । महान् श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ हैं । आइये इस प्रकार मधुर-प्रिय वचनों से सम्बोधन कर उसे सागर तट पर आसीन किया ।। २१ ।।
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संस्नातो मधुराम्भोभि दिव्यवस्त्र विभूषितः । समारोप्य विमाने सौ ताभ्यां नीत स्ततिकम् ॥ २२ ॥
शीघ्र ही अमृत तुल्य शीतल जल से उसे स्नान कराया। अमूल्य वस्त्र धारण कराये, बहुविध मरिण जटित सुन्दर भ्राभरणों से अलंकृत किया । सस्नेह विमान में प्रारूढ कर विद्याधर राजा के पास ले आये । सच है पुण्य से क्या नहीं प्राप्त होता है, धर्म से कौनसा संकट नहीं कटता पुरुषार्थ से क्या नहीं मिलता ? "बुद्धिर्यस्य बलं तस्य " गुणश की गुरंग गरिमा के समक्ष सम्पूर्ण विघ्न पलायमान हो जाते हैं और सुख सम्पदाएँ अनायास प्राप्त हो जाती हैं ।। २२ ।।
रूपातिशय मालोक्य तस्यासौ दूरतो नृपः । नममौ हृदि हर्षेण विग्रहः रोमाञ्चन्ति ॥ २३ ॥
वसुपति कुमार को दूर से ही देखकर गद्गद् हो गया, हर्ष से सारा शरीर रोमाञ्चित हो उठा। उसकी रूप राशि का पान करने को लालायित हो उठा । प्रत्यन्त अनुराग भरे हृदय से उसका स्वागत किया, उसे नमन किया। अनुकूल - अभीष्ट सिद्धि होने पर किसे मानन्द नहीं होता ? होता ही है ।। २३ ।।
प्रचिन्तree fr साक्षात् कन्दर्पोय मुपागतम् । नान्यथैवं विधारूप कान्ति लावण्य सम्पनः ॥ २४ ॥
वह सोचने लगा क्या सचमुच यह साक्षात् कामदेव ही घरा पर मानव रूप धर कर प्राया है ? अन्यथा इस प्रकार रूप लावण्य और कान्ति किस प्रकार होती है ? ।। २४ ।।
अथवा सन्ति संसारे सौभाग्य कुल मन्दिरम् ।
ते केऽपि पुरतो येषां मनोभूरपि लज्जते ।। २५ ।।
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