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हे शुभदर्शने ! तुम दोनों यहाँ वे ही शुभ त्रियाएँ करो जिमसे समस्त कल्याण निरन्तर प्राप्त होते हैं ।। ११५ ।।
प्रतो यावत् कुत्तोप्येति तस्योदातोदया वत्ति । तावत् प्रतीक्ष्यता भने सदनेऽप्रेम मयतः ।। ११६ ।।
अतः जब तक कहीं से भी किसी भी प्रकार प्रापके पति का वृत्तान्त प्राप्त न होवे तब तक श्राप यहीं इसी जिनालय में सुख से निवास करो ।। ११६ ॥
इत्थमाश्यास्यते श्रेष्ठी जगाम निज मन्दिरम । प्रोते परस्परं तत्र तिष्ठतस्ते यथा सुखम ॥ ११७ ।।
इस प्रकार शान्त्वना देकर सेठजी अपने घर चले गये । वे दोनों प्रीति पूर्वक-स्नेह से सुख पूर्वक वहाँ रहने लगीं ॥ ११७ ॥
जिनेन्द्र पूजा यतिदानं जन श्रुतान्यास ध्यया विमान शक्त। जितेन्द्रियेते जनताविलोक्य चकार धर्म बहुधा प्रयत्नं ।।११॥
ठीक ही है जो धर्मनिष्ठ, जितेन्द्रिय हैं उनके सम्पर्क में उन्हें देखकर धर्म में अनायास मन स्थिर हो जाता है। वे दोनों जिन पूजा, दान, स्वाध्याय, ध्यानादि पूर्वक जीवन यापन करने लगीं। यति दान और जिन पूजा आदि श्रावक धर्म हैं ।। ११८ ।।
भुक्तावली प्रति चित्र विधि प्रसक्त। सम्यक्रव मौक्तिक शुभा भरणाभिरामे ॥ तत्रस्पिते भव मुपागत कीर्ति लक्ष्मी । यत् प्रसन्न वबने मवनाति मुक्त ।। ११९ ।।
जिसके पास मुक्तावली प्रादि उपवास हैं, विधिवत् इन व्रतों को जो धारण करता है, सम्यक् दर्शन रूपी मरिणयों का शुभ सुन्दर आभरण जिसने धारण किया है, उसके पास संसार का यश और वैभव स्वयं
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