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तत्र पूजादिकं कृत्वा शिरस्या प्राय वेहमाम् । शिक्षया मास गंभीर मिति तो निती पिता ।। ६ ॥ सुसनो मा कृथा जातु क्रौर्य वौजन्य चापलम् । अन्यथास्या: समस्तानां विष वल्लोष भगा ।। ७ ।।
सर्वप्रथम श्री जिनेन्द्र प्रभु की पूजा की, भक्ति से नमस्कारादि। कर पुन: पुत्री को हृदय से लगाया, प्रेमाश्रमों से उमड़ते प्रवाह को यांमार पुत्री को सुयोग्य, यशवर्द्धक शिक्षा देने लगा "हे पुत्रि ! कभी भी किसी के साथ क्रूर व्यवहार नहीं करना, कठोर वचन नहीं बोलना, दुर्जनता को चपलता नहीं करना । क्योंकि इस प्रकार के कर व्यवहार से । विषवल्ली के समान नहीं बनना । दुर्भाग्य की पात्र नहीं होना ।। ६-७॥
पत्युश्छायेय भूयास्त्वं सर्वदानुगता सती । समान सुख दुःखा च दुर्वताचार दूरगा ॥ ८ ॥
अर्थात् सबके साथ प्रेम का व्यवहार कर सबकी प्रीतिपात्र बनना कुलजानों की सनीति है । हे पुत्री ! तुम पति को छाया बनकर रहो, सर्बदा पतिदेव की प्राज्ञानुसार प्रवृत्ति करो। उनके सुख में सुख और दुःख में दुःख समझना, कुत्सिताचार से निरन्तर दूर रहना ।। ८ ॥
धर्म कार्य रता नित्यं गुरु देव नता सुते । निज वंश पताकेव मूयाः कि बहभाषितः ॥ ६ ॥
सतत धर्म कायों में रत रहना, हे सुते ! नित्य ही देव, शास्त्र, गुरु | की भक्ति में तत्पर रहना, विनम्र बनना, अधिक क्या कहूँ तुम अपने वंश | की की ति वजा समान यशस्विनी बनो ।। ६ ।।
इस प्रकार पिता ने नाना नीतियुक्त एवं धर्मयुक्त वचनों से अपनी पुत्री को सम्बोधित किया ।
गाठ मालिगम तत्रंब बाष्प 'पूर्ण बिलोपना। रूदन्ती तां जगावेति मातापि प्रोति पूर्वकम् ।। १० ।।
उसी प्रकार प्रश्रपूर्ण लोचनों से माता ने भी गाढ प्रालिंगन-गले "लगाया। प्रीति पूर्वक रुवन करती हुई उससे कहने लगी। विलपती पुत्री से बोली ।। १०॥ ५२ ]