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भैरव स्वरूप गज के सामने पाया दोनों आमने-सामने हुए और घोर दुगुल के साथ मुढ पाराधना 1
प्रष्टतः पावतो धावन्न प्रतो जठरा वषः । ताडयन्निविडं लोष्ठ मुद्गरंश्चदुर: क्वचित् ॥६० ।।
कुमार कभी सामने, क्षण में बगल में कभी पेट के नीचे, कभी पीछे उस हाथी को ताड़ना देने लगा। कभी अंकूश से, कभी लोहे की शांकल से तो कभी पत्थरों से जो हाथ लगा उसी से उसे मार-मार कर ठिकाने लाया। मुदगरों द्वारा वश में किया। चारों ओर से पाहत हमा वह भी वाान्त हुअा। ठीक ही है "शठे-शाव्यं समाचरेत्" । अति दुर्शन सरलता से वश में नहीं पाता ।। ६० ॥
स्व शिक्षा लाघवं सम्यग्दर्शयन् बलमादिभिः। प्रारूढः श्रुममानीय तं वत्त करिबस्ततः ॥ १॥
कुमार भी श्रम की अपेक्षा न कर शीघ्र ही उस पर प्रारूढ़ हो गया । अपनी शिक्षा से उसे लाघव गुण युक्त बना दिया । इच्छानुसार चारों ओर घुमाने लगा। भले प्रकार उसे आज्ञाकारी सेवक समान बना लिया ।। ६१ ॥
साधुवावं समासाच जनेभ्यो नप पुङ्गवम् । प्रणम्यालान मानीय करिणं स सुखं स्थित: ।। ६२ ।।
चारों ओर जन-समुदाय उसे साधुवाद देने लगे अर्थात् वाह, वाह, धन्यवाद, धन्य मापका घेयै बल, पराक्रम इत्यादि प्रकार से उसकाकुमार का अभिनन्दन करने लगे। कुमार भी उस पर पासीन हो राजदरबार में लाया पुनः यथा स्थान प्रालान में ले जा कर बांध दिया। पुनः वह नर पुङ्गव राजा को नमस्कार कर यथा स्थान सुख से बैठ गया ।। ६२ ।। ___"इस प्रकार श्री गुणभद्राचार्य द्वारा प्रणीत जिनदत्त चरित्र में छटवां सर्ग समाप्त हुआ"।
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