________________ अन्ये विशुद्ध मतयो यतयः समस्ताः / स्वर्गे गताः परिणते रूचिते निजायाः / / प्रान्ते समाधि मधिगम्य मुवाप्सरोभिः / सङ्कल्पिता खिल सुखावह कान्त चेष्टाः / / 67 // पन्य तपस्वी मी अपने-अपने तपश्चरणानुसार यथा योग्य विधिवत् समाधि कर विशुद्ध मति स्वर्गों में गये / वहाँ यथेच्छ कल्पित सुखों का अनुभव करने लगे। अप्सराओं के साथ नाना प्रकार उत्तमोत्तम भोगोपभोगों का अनुभव किया ! सुभग चेष्टानों से विविध क्रीड़ामों का स्थान प्राप्त किया / / 67 / / कृत्वा सारतरं तपो बहविध शान्ताश्चिरं खायिका: / कल्पं तास्तम वापु रेत्य सकला दत्तो जिमादिर्गतः / / पत्रासो सुख सागरान्तर गतो विज्ञाय सर्वेऽपि ते / न्योन्यं तत्र जिनावि बन्दन पराः प्रीताः स्थिति तन्यते // 8 // जिनदत्त की भार्याएँ प्रायिका व्रत से अलंकृत हो घोर तपश्चरण करने लगीं। वे शान्त चित्त, विकार रहित शुद्ध सफेद एक साड़ी मात्र परिग्रह धारण कर कठोर साधना करने लगी। अन्त में कषाय और शरीर को कृश कर उत्तम समाधि मरण कर उसी स्वर्ग को प्राप्त किया जिसमें श्री जिनत्तद मुनिराज उत्पन्न हुए थे। सभी देव अपने दिव्य प्रवविज्ञान से एक-दूसरे के सम्बन्ध को ज्ञात कर परम प्रीति और संतोष को प्राप्त हुए। तदनन्तर सर्व एक साथ मिलकर जिनदर्शन वन्दन, पूजन, अर्चन प्रादि धर्म कार्यों को करने लगे // 68 / / इस प्रकार श्रीमद् भगवद गुणभद्राचार्य विरचित जिनदत्त चरित्र में नवमा अध्याय समाप्त हुमा। 4 समाप्तोऽयं ग्रन्थः * भाद्रपद शुक्ला 5 शनिवार तारीख 26 अगस्त, 1987 पूर्वाह्नकाल, पोम्नूरमल-कुन्दकुन्द प्राश्रम में श्री 1008 श्री बादिनाथ चैत्यालयस्थ नन्दीश्वर दीप रचना जिनालय में लिखकर पूर्ण किया। 20. ]