________________
भोगों को चकाचौंध से चुंधियाया मानव किस प्रकार कर्तव्य च्युत हो दुःख का पात्र होता है यह आज प्रत्यक्ष दिख रहा है। भोग रोग हैं, इनका सेवक पीड़ित क्यों नहीं होगा ? अवश्य प्रशान्त रहेगा। शरीर के प्रसाधक साधनों में भला आत्म की घुटन क्यों न होगी ? प्राज वंज्ञानिक टूटे-फूटे नाकारों से शित हो इन राइ देते हैं विज्ञान ने जल, थल और प्राकाश को बांध लिया है, उसे सर्वत्र गमनागमन की सफलता प्राप्त हो गयी है ।" परन्तु इस विषय को हम प्राध्यात्मिक दृष्टि से विचार करें तो यह कोरी पाशविक शक्ति का थोथा प्रदर्शन है जो त्याग और ध्यान की पवन के एक हलके से झोंके से उड़ जायेगा।
प्रात्मबल बाह्याडम्बर की अपेक्षा नहीं करता। प्रात्म-साधना रत योगी एक निमिषमात्र में न केवल इन जल-थलादि स्थल वस्तुषों की थाह पा ले अपितु मनोलोक (परकीय मन के सूक्ष्म विचार लोक) का भी क्षणभर में परिशीलन करने में समर्थ होजाता है। यही नहीं तीनों लोक और तीनों कालों के अशेष द्रव्यों को गुरण-पर्याय सहित एक साथ एक क्षण में ज्ञात करने में भी समर्थ हो जाता है । प्रस्तु, मनोबल के साथ आत्मिक शक्ति का विकास यथार्थ विकास है।
जीवन के सर्वाङ्गीण क्रमिक विकास के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ निर्धारित हैं । ये चारों एक-दूसरे के सहायक हैं। इनका पाना और यथोचित प्रयोग करना मानव जीवन की कला है। "इस कला का ज्ञायक किस प्रकार बनता है" यह पाठ इस चरित्र में सम्यक प्रकार अंकित किया गया है । प्राचार्य श्री स्वयं लिखते हैं, "धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ मुक्ताफल-मोतियों के सदश हैं इनको बुद्धि रूपी सूत्र से गूंथ कर जिनदत्त कथा रूपी हार निर्मित करने को मेरा मन चाहता है ।" अर्थात् चारों पुरुषार्थों की सिद्धि एक भव्यात्मा किस प्रकार कर सकता है इस युक्ति का दर्शक यह अन्य है।
__ जीवन कंकरीली, कटीली, टेडी-मेडी, सघन, तमाच्छन्न संकीर्ण पगडण्डी है । इसे पार करना सरल नहीं। तो भी इस दुर्गम, दुरुह पथ को एक सम्यक्त्वी, भव्यप्राणी विवेक ज्योति से, सदाचार के सहारे सुगम, सरल बना लेता है। काम कोपादि कटीली झाड़ियों को सत्य अहिंसा रूपी शस्त्रों के द्वारा काट समता रस से सिंचन करता हुआ