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साहमोह तमाछत्रा निशेषो ग पायिनी। दीयते मवि नो पुत्र प्रकोपः कुल वेरमनि ॥६५॥
में केवल मोह तम से प्राच्छन्न उढग दायिनी ही हूं क्योंकि कुस प्रकाशक दीप स्वरूप पुत्र उत्पन्न नहीं कर सकी । घर का अंधकार पुत्र द्वारा ही नष्ट होता है। मेरा सेवन कर पतिदेव का मात्र उद्वेग हो | बढ़ेगा अतः मेरा जीवन व्यर्थ है ।। ६५ ।।
चिन्तयन्तीति मा बाला कपोल न्यस्त हस्तका। पातयामास सभ्यानां ने अभङ्गात् मुखाम्बुजे ॥६६॥ ।
इस प्रगर नहबासा गरेपोला कर रखकर चिन्तयन करने लगी । उसके सरल सुन्दर नेत्रों से अश्रुधारा कपोलों पर पड़ने लगी। मानों नेत्र रूपी शृगार झारी से पड़ती हुयी धारा उसके मुख कमल पर गिरने लगी।। ६६ ।।
पेतुर्य या यथा तस्याः सुभ्र वो वास्प विववा: । भेजुस्सथा तथा दुःखं मानसानि सभासवाम् ।। ६७ ।।
जैसे-से उसके प्रश्रु विन्दु गिरती वैसे-वैसे वहाँ उपस्थित सभासदों के मानस में दुःखोत्पादन करने लगीं अर्थात् सभा में पारों ओर शोक । का वातावरण फैल गया । सभी उसके दुःख से क्षुभित हो उठे।। ६७ ॥
सभा विस्मम सभ्पना तो दु:स भरालसाम् । प्रथालोक्य जगादासो कृपयेति यतोश्वरः ॥८॥
यह देखकर करुणा मिधान गुरुवर्य मुनिराज कहने लगे अर्थात् प्राश्चर्य चकित सभा मोर दु:ख के भार से पीडित सेवानी को देखकर परम कृपालु यतिराज पाश्वासन देते हुए इस प्रकार दिव्य वाणी में बोले ॥ ६८ ।।
विशुद्ध हवये कार्शी: शोक सागर मम्मनं । मा वर्षव यतः शोनं सफला ते मनोरथाः ॥ ६॥
हे विशुद्ध हृदयेः शोक मत कर । क्यों शोक रूपी सागर में स्नान करती हो ? अर्थात् शोक सागर में मत डूबो, पृथा हो क्लेश मत करो। तुम्हारा मनोरथ शीघ्र ही सफल होने वाला है ||६|| १८ ]