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एक सोपि विश्व मानान्तं करणानि च । जेयानि तानि सर्वाणि मनसा सह सर्वदा ॥ ३६॥
ये इन्द्रियां एक-एक ही विश्व को व्याप्त किये हुए हैं अर्थात् संसार को वश करे हुए है पांचों इन्द्रियों की तो बात ही क्या है ? इन जगज्जयी इन्द्रियों को मन के साथ जीतना चाहिए अर्थात् वश करना चाहिए ।।३।।
यथाकालं च कर्तव्यं षडावश्यक मजसा । प्रमावेन विना भर श्रद्धा संशुद्ध चेतसा ।। ४० ॥
हे भद् ! प्रमाद का त्याग कर निरन्तर प्रतिदिन यथा समय षडावश्यक पालन करना चाहिए । सतत श्रद्धा पूर्वक शुद्ध चित्त से यथा काल, जिन वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, समता भाव धारणा कर और कायोत्सर्ग करना प्रावश्यक है । ४० ।।
नितान्त समारस्य महा मायोचितस्य च । कार्य केशकलापस्य सुचनं सुषिया तथा ॥ ४२ ॥ रोम वल्कल पत्राद्या वरणापि यत्र नो। अचेलक्यं तदत्यन्त क्लेशकारि सहेतकः ॥ ४२ ॥
नितान्त सुकुमार, सुकोमल, महा माल्योचित केशों का हे सुधि ! शुद्ध बुद्धि से अपने हाथों से लौंच करना चाहिए तथा शरीर पर वल्कल, पत्रादि का भी प्रावरण नहीं करने वाला अचेलत्व व्रत महा क्लेशकारी है उस कठोर नग्नत्व का कष्ट सहना होता है ।। ४१-४२ ।।
प्राजन्म मल मल्लादि लिप्त देह तया स्थिति: । स शर्करा धरा शय्या मुख वासादि वर्जनम् ॥४३॥
जीवन पर्यन्त जल्ल मल्ल से लिप्त देह की स्थिति रखना चाहिए अर्यात् यावज्जीन स्नान त्याग करना होगा। कंकरीली-पथरीली भूमि पर शयन करना होगा, वस्त्रादि रहित भूमि मे सोना पड़ेगा ।। ४३ ।।
बल्भनं पाणि पात्रेण काले कार्य यथा विधिः । स्थितेम सवबा सकृत् कायस्य स्थिति हेतये ॥ ४४ ॥
अपने हाथों में शुद्ध प्रासुक आहार दाता के द्वारा यथा विधि दिया १८८ ]