Book Title: Jainism Course Part 01
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजित जैनिज़म सर्व जीवो मोक्ष जाओ विश्व विद्या राजि श्री विश्वतारक रत्नत्रयी जैनिज़म कोर्स मंगल लेखिका - सा. मणिप्रभा श्री खण्ड - 1 ज्ञान (वाणी) खण्ड - 9 खण्ड - 8 खण्ड - 5 खण्ड - 4 खण्ड-3 खण्ड - 7 खण्ड - 6 खण्ड - 1 खण्ड - 2 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WELCOME: JAINISM श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजित तारकर A विश्वता OR BPS त्रिवर्षीय भ सर्वजीवी मोजाओ 10 आशीर्वाद दाता - प.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति वर्तमानाचार्य देवेश जैनिज़म कोर्स 1 श्रॉमा,जय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. लेखिका-सा. मणिप्रभा श्री जिसमें आनंद है, पर संक्लेश नहीं... जिसमें मस्ती है, पर परवशता नहीं... जिसमें प्रसन्नता है, पर पाप नहीं.. जिसमें सुख है, पर लाचारी नहीं... जिसमें ताजगी है, पर गुलामी नहीं.... आज की शिक्षा प्रणाली ने विद्यार्थियों की शिक्षा के महल तो बड़ें, ऊँचे और भव्य बना दिए, लेकिन उनमें संस्कारों की सीढ़ियों का नितांत अभाव है । सीढ़ियों के बिना महल के ऊपर की मंजिले व्यर्थ है । उन सीढ़ियों को बनाने का एक मात्र आधार है जैनिज़म कोर्स ... ऐसे कई छोटे-छोटे गाँव है जहाँ कोई साधु-साध्वी नहीं पहुँच पाते अथवा चातुर्मास नहीं होते। भारत भर के ऐसे छोटे बड़े सभी गाँव में इसका प्रचार कर घर-घर में घट-घट में सम्यक्तव का दीप जलाकर मोक्षाभिमुख करना, अनंत-आनंद का सच्चा मार्ग-दर्शन देना। JAINISM HOLD THE KEY TO SUCCESS जैनिज़म की प्रत्येक पुस्तक में निम्न Five Chapter है :_क्या आप अपने जीवन को परमात्मा के बताये हुए मार्गानुसारी शुद्ध क्रिया द्वारा प्रोज्जवल करना चाहते हो... ??? तो देखिए First Chapter क्रिया शुद्धि। क्या आप अपने जीवन को स्वर्ग जैसा सुंदर बनाकर मैत्री सरोवर में झूमना चाहते हो ... ??? तो अपने जीवन में उतारिये Second Chapter सुखी परिवार की चाबी। क्या आप गणधर रचित सूत्र-अर्थ द्वारा अपने कर्म मल धोकर प्रभु भक्ति से आत्म-शुद्धि करना चाहते हो... ??? . तो कंठस्थ कीजिए Third Chapter सूत्र-अर्थ एवं काव्य विभाग क्या आप महापुरुषों के पचिन्हों पर चलकर महापुरुष की तरह अमर बनना चाहते हो... ??? तो पढ़िये Fourth Chapter आदर्श जीवन चरित्र। क्या आप जीव-विचार, नव-तत्त्व, कर्मग्रन्थादि गहन तत्त्वों को बातों-बातों में सीख लेना चाहते हो...??? Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल. १८१/B ।। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ मण्डन आदिनाथाय नमः।। ॥ श्री राजेन्द्र-धनचन्द्र-भूपेन्द्र-यतीन्द्र-विद्याचन्द्र सूरि गुरुभ्यो नमः।। श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजित जैनिज़म कोर्स खण्ड त्रिवर्षिय खण्ड1 रत्नत्रयी पी विद्या gadro जवबा मामला राजितं जेनिज़म कोर्स : आशीर्वाद दाता : प.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति वर्तमानाचार्य देवेश श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. स्व. महत्तरिका पू.सा. श्री ललितश्रीजी म.सा. स्व. प्रवर्तिनी पू.सा. श्री मुक्तिश्रीजी म.सा. पू. वात्सल्य वारिधि सेवाभावी सा. श्री संघवणश्रीजी म.सा. : लेखिका : सा. मणिप्रभाश्रीजी कके अधीन : प्रोत्साहक : कुमारपाल वी. शाह प्रकाशक प्रकाशक श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़ (धार) म.प्र. सर्वाधिकार Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन वर्ष :सं. 2068 द्वितीय आवृत्ति : 3000 प्रतियाँ मूल्य 360/-रु. आधार ग्रन्थ * श्राद्ध विधि * धर्म संग्रह * आहार शुद्धि ग्रंथ * डायनींग टेबल * गणधर रचित आवश्यक सूत्र * कल्पसूत्र बालावबोध * श्रीपालरास * बृहत्संग्रहणी * लोक प्रकाश * नवतत्त्व * कर्मग्रंथ प्रकाशक 8श्री मोहनखेड़ा तीर्थ चित्र निम्न पुस्तकों से साभार लिए गये * बालपोथी * दो प्रतिक्रमण सूत्र आल्बम * कल्पसूत्र * पाप की मजा नरक की सजा इस पुस्तक का सर्वाधिकार लेखक एवं प्रकाशक के अधीन है।। : मुख्य कार्यालय : श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं समिति 20/21 साई बाबा शॉपींग सेंटर के.के. मार्ग, नवजीवन पोस्ट ऑफिस के सामने, मुंबई सेंट्रल मुंबई -8 (महाराष्ट्र) फोन : 022 65500387 मुद्रक: कंचन ग्राफिक्स - राजगढ़ (मोहनखेड़ा) म.प्र. मो. 09893005032, 09926277871 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः।। तव चरणं शरणं मम जिनकी कृपा, करुणा, आशिष, वरदान एवं वात्सल्य धारा इस कोर्स पर सतत बरस रही है। जिनके पुण्य प्रभाव से यह कोर्स प्रभावित है, ऐसे विश्व मंगल के मूलाधार प्राणेश्वर, हृदयेश्वर, सर्वेश्वर श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में ..... जिनकी क्षायिक प्रीति भक्ति ने इस कोर्स को प्रभु से भेद बनाया है, ऐसे सिद्धगिरि मंडन ऋषभदेव भगवान के चरणों में.... इस कोर्स को पढ़कर निर्मल आराधना कर आने वाले भव में महाविदेह क्षेत्र में जिनके पास जाकर चारित्र ग्रहण कर मोक्ष को प्राप्त करना है. ऐसे मोक्ष दातारी सीमंधर स्वामी के चरणों में.... जिनकी अनंत लब्धि से यह कोर्स मोक्षदायी लब्धि सम्पन्न बना है ऐसे परम श्रद्धेय समर्पण के सागरं गौतम स्वामी के चरणों में.... जो रामवसरण में प्रभु मुख कमल में विराजित है, जो जिनवाणी के रूप में प्रकाशित बनती है, जो सर्व अक्षर, सर्व वर्ण एवं स्वर माला की भगवती माता है, जो इस कोर्स के प्रत्येक अक्षर को सम्यम् ज्ञान में परिणमन कर रही है ऐसी तीर्थेश्वरी सिद्धेश्वरी माता के चरण कमलों में ...... शताब्दि वर्ष में जिनकी अपार कृपा से जिनके सानिध्य में इस कोर्स रचना के सुंदर मनोरथ पैदा हुए एवं जिनके विरत काशिष से इस कोर्स का निर्माण हुआ। जो जन-जन के आस्था के केन्द्र है, जो इस कोर्स को विश्व व्यापी बना रहे हैं। जो पू.धनचन्द्रसूरि, पू.भूपेन्द्रसूरि, पू.यतीन्द्रसूरि, पू.विद्याचन्द्रसूरि आदि परिवार से शोभित है ऐसे समर्पित परिवार के तात विश्व पूज्य प्रातः स्मरणीय पू. दादा गुरुदेव राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के चरण कमलों में..... जिनकी कृपावारि ने सतत मुझे इस कोर्स के लिए प्रोत्साहित किया ऐसे वर्तमान भाचार्यदेवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., पू. गुरुणीजी विद्याश्रीजी म.सा, पू. प्रवर्तिनी मानश्रीजी म.सा., पू. महत्तरिका ललितश्रीजी म.सा., पू प्रवर्तिनी मुक्ति श्रीजी म.सा., सेवाभावी गुरुमैय्या संघवणश्रीजी म.सा. के चरण कमलों में..... इस कोर्स का प्रत्येक खंड, प्रत्येक चेप्टर, प्रत्येक अक्षर आपका झापश्री के चरणों में सादर समर्पणम सा. मणिप्रभाश्री 5/4/2010, सोमवार भीनमाल Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ... काही श्री श्री मणीप्रभाश्रीजी आदि ठाणा आशापुरा । 'हम शाला पूर्वक हैं, आप समस्त ठाता की भी सुखाला की परमात्मा से मंगल कामना करते हैं! ''विशेष:- यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि "श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या शक्ति जैनिङ्म कोर्स" का "प्रकाशन हो रहा है. ! कम्प्यूटर इंटरनेट के इस आधुनिक एवं अतिरिक्त युग में औन संस्कृति एवं इस संस्कृति से जुड़े युवाओं के लिये जैनिज्म कोर्स संजीवनी है जो कि बिगड़ी हुई दशा एवं दिशा दोनो को पु नवजीवन प्रदान करेगी ! संस्कृतिक आचार-विचार सम्यक श्रुत ज्ञान के लिये आपका लगाव अनुमोदनीय है ! जैन जागृति के लिये किया गया आपका शंखनाद प्रशंसनीय है आपके प्रचंड पुरुषार्थ एवं परिश्रम को मैं अनुमोदना करता है। यह केसी विश्वव्यापि बने तथा पाठकण मामी बनें! इस भागिरथ शुभ कार्य के लिये शुभाशिर्वाद प्रदान करता हुँ तथा परमात्मा के कामना करना " हूँ कि भविष्य में भी ऐसे प्रवीन एवं रचनात्मक कार्य करके समाज को लाभान्वित करती रहें! मी नाम हे भेन्द्र सूदि जैन धर्म जन जन का धर्म है। चित्र में धारण करें, श्रद्धा से स्वीकार करे और आचरण में अनुभव करे, उसे इस धर्म की गहनता एवं गंभीरता का ज्ञान हो सकता है। राग-द्वेष से मुक्त, सर्व जीव समत्व दृष्टिघारी इसे अरिहंत परमात्मा द्वारा प्ररुपित एवं स्थापित यह धर्माशना का सुंदर पथ है। के 'अ' से लेकर 'ज्ञ' तक की सारी विधाएँ इस धर्मग्रियों से प्राप्त होती है। शून्य से सृजन तक का गहरा ज्ञान जैन दर्शन में उपलब्ध है। उसी ग्रहन शान सागर में से चुन चुन कर अनेक मोतीयों को माला में रूपान्तरित कर 'जैमिन्स कोर्स' नामक पुस्तक को तैयार किया है विदुषी साध्वानी श्री मविप्राणी ने! यो प्रकाशित होकर पाठकों के सम्मुख है। इस पुस्तक के अध्ययन द्वारा आबाल वृद्ध सभी स्वयं को स्वगुण से समुद्ध कर सकते है। ज्ञान प्रकाश मे अपने जीवन विकास के कदम आगे बढ़ाकर वस्तु स्वरूप के संप्राप्त कर सकते हैं। साध्वीजी का प्रयास एवं श्रम की अनुमोदना कर मैं उनके जीवन में वे साहित्य जगत में अग्रगामी बने, यह शुभकामना करता हूं। -G-मू विसर 151 10/2010 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ માતંગ-સિટિઝપરિપત્ર તાસ #વમાનીમને. નમ: શ્રી ત્રિકમ પ્રેમ-ભુવનમાન-નયને ધર્મ નિત.- નય-શેઢરસૂરીશ્વમે નમ: विदुषी सhिan Arya ! सादर अनुवन्ना- सुख-शा ... તીન સાઈ - ૬ ઢિમા ને વ્યાપ્ત ગેનિઝમ ર્સ પા કેનો' નીવન મે સખ્યત્ર સાન ફર્વ સમયમા જો વર્ધમાન 4ના મે' सुस होस मालू परमात्मा से प्रार्थना... पाकों से अनुरोध कि वे ६२ कोर्स के अध्ययन में, पुननि में तn 4सा में नियमित बसे... प्रभा को ५२३५१ ज बने.. प्रभु ने A-23 मोना +.. इस कोर्स से प्राप्त नको जीवन में सकियर सो आये.... - आ414 अप्रयशेवर-भूरि. उसोय विनमवर्ती विजामीनी मणिप्रभाभीजी आदि सुखकाला yew आपनाना संस्कार वक्र निज्म का जो कोर्म प्रकाभिात किया जा रहा है उसके पति रभारी शर्दिक शुभकामनाये। वर्तमान युग में बाल युवा वर्ग अयोग्य आमरणाओं को अपनाकरमानव भव को हार र एसे समय में संस्कार वकि साहित्य की आवश्यकता है। मह साहित्य बाल युवा वर्गी भार्ग कि बने/ मही शुभाभिलाषा जमाना धरना Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांवर पचनाममा सिसारे महायात्रा * જેમ-કુકમનું-છે-ચિલિતમહેંસર- હિરોહરસુરી Anકાં હેયર Ff6a- NR 11, #1, દ્વિતીઠS Aી નેર માં પ્રેમ નુ - 3 - ૪, ૧૯૬ઠ સEGaf \ s5f97 માં,,, કારંગ. મ. ૩ सोय नायर नुवंदन । | ભરેજ કે માને જાનવ" વમ)નપાછુ कवननिस्म कोर्स के मान भाग संशोधन नमो में) માને કેન-કેન ભof ધર્મ છે કે, મહિલાનું म कति xिinी तर Math इतुके 41 पिझुझे मान है નિના વક્ષ્ય અવતમ્ રેસ છોર્સ છે ! પ્રશ્ન કર્ન છે નિપાની કામ) , માળ - 1 રન છે ' સ્થિત માકે' નિ સંતો નતે 45નને ન સૂવન fજ કે " મ પ ફેન પર 41ન ને ? | सरा या यर प्रमालासही कम से अमन क्षेम जडीशन बातेन NRNA करो भावित होश [आप की मान-अप का गर्भन सटे से jમ મil / cdra કરે અને શુ મૈAS ! -- कार्य माजतोखरसरा साबर मनुवंदना taarદ ,કાલે કા ઉge( રૂ.33 ગાધ પ્રમા.ffee # દં ઝprી દે અાવત 3 સુvશના 1૬ હજાનવર કે Jરુ કૃપા માતા શ્વ ૨૬ દિક્ષા મા ~૬ભુત સત્યરાજ ને રાલ્ફ સ૬uોધદાય શેલીઝrt સુરૅર સ્રરકાર કરૂં છે મારાં *X $ માં ખાસ કા યો જા ? કાશ ને સ્નાપ* વિસન ની સેવા ઋજુદોદ નરેમ કરો દરેક છે, ૌને થી સ લ નામepજ્ઞાસા ?v#ા વન? સ? 4 da1 સારિત્યનો અત્યંત જરૂરી +1 હતી ને પૂરી કરેલ છે. નાa સાહિ»નું સર્જન કરવાની શસ્તિ તમોને RE: Vtપ્ત 01 મે તેવર માર a>દ છે. ચન્દન નસાગારજૂ કરં ન મન વંદું ના ? સુ = Ring ? ભરવૈત નઝાર, તા વ7. 9. • ૨9 નં જ કર્મ કર૦૮ કર૮ નprટીસ ગુરૂ બધે ન ર્થી પહોચી શકતા : | માટે ગ્રંથન્દ્ર સર્જન ફરે છે. નિર્ણયૂ પરંપરા માં હચ્છત્તે લખાયેલા અાવા અને ગ્રંથ જ્ઞાનભડા ઝ - દુર્લભ ને નાં ધી સૂઈની જેમ સચવાયેલ છે. જૈન સંઘ ખા વૈભવથી સૌર્થી વધુ સમૃદ્ધ છે. પ્રભુના ઉપાસિડા સા.શ્રી મહાપ્રભઃ શ્રીજી તપસ્વી કી જ માથે દા ખાનુ છે અનેક વિષયને અંધવી લેતો અને પદાનં પ્રગટ ઋતૈ શ્રી વિષd તારહ રત્ન ત્રશી યિા રાજતં " o : 73મનો ગ્રંથ એ મું ઘાસ = H મુદ્દો જ છે | 4 ના ખૂબ પ્રસન્નતા થઈ. | ત પાર્વ ભાવે મગ મનવાળને | જનતા સમજે ભષા મા લાખ) અને શ્રીલ) નો સોનામું, ગૂગંધુ 2યો નવો વીરનુકવાનો એમને પ્રયા ખૂબ રૂપ #ારફ બન અતિ હૃવધૂ ગ્રથો એનના દ્વારા જૈન સંબને પ્રાપ્ત થઇa. એ ખાસા અને આગળયાન -મર્મ મe-ડેજમેસ્ટ્રા Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः (हृदयोदगार शताब्दि वर्ष में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में विशाल संख्या में युवति संस्कार शिविर का आयोजन हमारी निश्रा में हुआ। जिसमें कुमारपाल वी. शाह भी पधारे थे। उन्होंने बताया कि "भारतभर में 15000 जैन बस्ती वाले गाँवों में से मात्र हजार, पंद्रह सौ गाँवों को ही साधुसाध्वी का योग मिलता है। बाकी के जैन गाँवों की स्थिति अति विचारणीय है। शताब्दि वर्ष में उन तक जैन धर्म का ज्ञान पहुँचे ऐसा कुछ प्रावधान बनें तो यह गुरु शताब्दि वर्ष सार्थक बन जाएगा।" उनके इन शब्दों ने मेरी आत्म चेतना को झकझोर दिया। नई प्रेरणा मिली। प्रथम तीर्थंकर तीर्थाधिपति आदिनाथ दादा, प.पू. दादा गुरुदेव राजेन्द्र सूरि, यतीन्द्र सूरि तथा विद्याचंद्र सूरि आदि गुरुभगवंतों के आशिष लिये। कार्य प्रारंभ किया "श्री गुरु राजेन्द्र विद्या वाटिका-जैनिज़म कोर्स" के नाम से पाठ्यक्रम बनाना शुरु किया। मोहनखेड़ा चातुर्मास में शताब्दि वर्ष में 100 सेंटर बने। प्रथम खंड की परीक्षा गुरु शताब्दि वर्ष तक सम्पन्न हो गई। इस क्रम में 4 खंड की परीक्षा होती रही। _शताब्दि वर्ष के बाद हमारा दूसरा चातुर्मास आहोर हुआ। इस कोर्स को गच्छ के बंधनों से मुक्त कर सर्वव्यापी बनाने हेतु गोड़ी पार्श्वनाथ दादा एवं गुरुदेव से प्रार्थना की। जाप करते-करते इस कोर्स का नाम “श्री विश्व तारक रत्नत्रयी विद्या राजितं-जैनिज़म कोर्स" रखना एवं जिनवाणी का उद्गम स्थान समवसरण, एवं लक्ष्य स्थान सिद्धशीला का मोनो बनाना आदि बाते स्फुरायमान हुई। फिर तो इस कोर्स का पुनरुद्धार हुआ। प्रथम खंड से पुनः काफी छणावट के साथ लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ। यह कार्य आहोर-जावरा के चातुर्मास में मंद गति से रहा। तत्पश्चात् | मोहनखेड़ा में 36 दिनों में गुरुदेव की कृपा से इस कार्य ने तीव्र गति पकड़ी। फिर शंखेश्वर तीर्थ में 11 महिने आराधना के साथ सतत प्रभु के सानिध्य में शंखेश्वर दादा को प्रार्थना, समर्पण एवं शरणागति के साथ इस कार्य को वेग मिलता रहा। पूरा समर्पित परिवार इसके लेखन कार्य में मेरे । साथ जुड़ गया। किसी ने लेखन के लिए आवश्यक पुस्तकों का संग्रह किया तो किसी ने मेरे मार्गदर्शन के अनुरुप मेरे साथ-साथ लेखन कार्य में सहयोग दिया। किसी ने प्रुफ रिडिंग की तो Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः किसी ने इस कार्य, इसके उद्देश्य को सफल बनाने के लिए जाप किये, तो किसी ने कार्य कर रहे महात्माओं की वैयावच्च का लाभ लिया। इस प्रकार पूरा परिवार इस कार्य में लगा रहा। इस प्यारे-प्यारे परिवार के समर्पण भरे इस सहयोग को मैं अंतर हृदय से बधाती हैं। पू. भुवनभानु सूरि समुदाय के पू. उपकारी आचार्य भ. अभयशेखर सूरि म.सा. एवं पू. आचार्य अजितशेखर सूरि म.सा. ने इस पूरे कोर्स का सूक्ष्मता से निरीक्षण कर यथायोग्य सूचनाओं के साथ सुंदर संशोधन एवं आशीर्वचन प्रदान कर मुझ पर महती कृपा की है। अत: मैं अंतरहृदय से पू. गुरुभगवंतों के प्रति नतमस्तक हूँ। पद्म-नंदी (गिरीश टी. मेहता, सुमी बेन) ने भी इस भगीरथ कार्य के लिए शंखेश्वर दादा के कई अभिषेक, प्रार्थनाएँ आदि की। इन पुस्तकों के मुद्रक कंचन ग्राफिक्स, राजगढ़ (मोहनखेड़ा) के अमित जैन ने भी पूर्ण समर्पण भाव से हम जहाँ रहे वहाँ 20-20 दिन तक रहकर इन पुस्तकों का प्रिंटींग कार्य शीघ्र करने में सहयोग प्रदान किया। अत: धन्यवाद! इन पुस्तकों के लेखन में जिन-जिन पुस्तकों का आधार लिया गया है तथा जो-जो पुस्तक प्रत्यक्ष, परोक्ष रूप से इस लेखन कार्य में उपयुक्त हुई तथा जिन-जिन पुस्तकों में से चित्र आदि लिये गये उन सबका मैं अंतर हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ। इन पुस्तकों के लेखन में काफी सावधानी एवं उपयोग रखा गया है, फिर भी वीतराग की आज्ञा के विरुद्ध कुछ लिखा गया हो तो त्रिविधे-त्रिविधे मिच्छामि दुक्कड़म्! अत: मैं देव-गुरु की कृपा से निर्मित यह कोर्स विश्व व्यापी बन सर्व जीवों को मोक्ष प्रदान करें यही शुभेच्छा। शुभम् भवतु श्री श्रमण प्रधान चतुर्विध श्री संघस्य सा. मणिप्रभाश्री ता. 5/4/2010, सोमवार भीनमाल Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका 01 08 21 45 46 46 47 47 47 जैनाचार-1 मैं कौन हूँ? मेरे परमात्मा नवपद (नवकार) मेरे गुरु रिश्तों में मधुरता-1 हर घर जैन बनें सूत्र एवं अर्थ विभाग-1 मुझे पढ़कर ही आगे बढ़े नमस्कार (नवकार) सूत्र पंचिदिय (गुरुस्तुति-गुरुस्थापना)सूत्र खमासमण (पंचाग प्रणिपात) सूत्र इच्छकार सुहराई (सुखसाता पृच्छा) सूत्र अब्भुट्टिओ सूत्र (गुरु खामणा सूत्र) इरियावहियं (प्रतिक्रमण) सूत्र तस्स उत्तरी सूत्र अन्नत्थ सूत्र लोगस्स (चतुर्विंशति-स्तव) सूत्र करेमि भंते (सामायिक) सूत्र सामाइय-वय-जुत्तो (सामायिक-पारण) सूत्र नवकारसी का पच्चक्खाण चउविहार-तिविहार का पच्चक्खाण किसमें कौन श्रेष्ठ है? कौन क्या खाता है? जैन इतिहास-1 श्री वीर गौतम चरित्र रात्रिभोजन महापाप हंस और केशव की कथा समरो मंत्र भलो नवकार 48 49 50 51 52 52 53 53 54 54 55 70 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 71 72 86 88 95 103 105 105 108 126 127 देव बना बंदर पोपट बना राजकुमार हंडीक चोर द्वारा नवकार की महिमा तत्त्वज्ञान-1 जीव का विकास क्रम विश्व दर्शन - चौदह राजलोक नवतत्त्व कर्म लेश्या प्रश्नोत्तरी जैनाचार-2 जिन मन्दिर पाँच अभिगम प्रभु भक्ति की रित दशत्रिक से प्रीत पूजा के लिए आवश्यक सात प्रकार की शुद्धि आरती एवं मंगल दीप रिश्तों में मधुरता-2 Indian culture Vs/ Western culture सूत्र एवं अर्थ विभाग-2 मुझे पढ़कर ही आगे बढ़े जगचिन्तामणि सूत्र जं किंचि सूत्र नमुत्थुणं (शक्रस्तव) सूत्र जावंति सूत्र जावंत के वि साहू सूत्र नमोऽर्हत् सूत्र उवसग्गहरं सूत्र जय वीयराय (प्रणिधान) सूत्र अरिहंत-चेइयाणं (चैत्यस्तव) सूत्र कल्लाण कंदं सूत्र संसार-दावानल सूत्र चैत्यवंदन की विधि पोरिसि-साढ़पोरिसि का पच्चक्खाण केवलज्ञान प्रश्नोत्तरी ओपनबुक एक्जाम प्रश्नपत्र उत्तर पत्र -151 152 153 154 155 155 156 156 157 158 158 160 160 161 162 163 167 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार देव, गुरु, धर्म की पहचान COTS Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकों से विश्वमंगल जिनके च्यवन कल्याणक से, सृष्टि नवपल्लवित बनें जिनके जन्म कल्याणक से समकित नवपल्लवित बनें जिनके दीक्षा कल्याणक से विरतिधर्म नवपल्लवित बनें जिनके केवलज्ञान कल्याणक से उपयोग नवपल्लवित बनें जिनके निर्वाण कल्याणक से आत्मप्रदेश नवपल्लवित बनें जयवंत रहो, जयवंत रहो, प्रभु के पंचकल्याणक जयवंत रहो। भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं। भगवान ने पूर्व भव में सर्व जीवों को मोक्ष में ले जाने की उत्कृष्ट साधना की जिसके फलस्वरूप चरम भव में च्यवन आदि कल्याणकों में यह विश्व प्रभु के प्रति अहोभाव धारा एवं प्रभु की करुणा, वात्सल्य के महाविस्फोट से शीघ्र मोक्षगामी बनता है। कल्याणक यानि क्या ? कल्याणक यानि परमात्मा की विश्वमंगल भावना का साक्षात्कार । कल्याणक यानि परमात्मा की जगत के जीवों पर बरसती अपार करुणा, अनंत वात्सल्य धारा । कल्याणक यानि परमात्मा के जीवन के महाकल्याणकारी अपूर्व क्षणों का समूह जो कल्याण करे, जो मंगल करे वह कल्याणक | जो कर्मों को काटे, जो कषायों का क्षय करे - 1 • वह कल्याणक । जो मोक्ष दे, जो जीव को शिव बनाए जो जीव को शाता दे, जो आनंद दे कल्याणक कल्पतरु है जो इच्छित को देता है। कल्याणक कामधेनु है जो मनवांछित पूर्ण करता है। कल्याणक चिंतामणी है जो सर्वकामना पूर्ण करता है। कल्याणक में बरसती प्रभु की करुणा से भूलों का भांगाकार, दोषों की बादबाकी, साधना का जोड़कर और गुणों का गुणाकार होता है। अशुभ परमाणु और अशुभ अध्यवसाय शुभ बनते हैं। शुभ से शुद्ध बनते हैं। - • वह कल्याणक । - वह कल्याणक । प्रभु के जीवन की च्यवन से निर्वाण तक की प्रत्येक पल जगत के जीवों के कल्याण के लिए है, मंगल के लिए है। परमात्मा के ऐसे कारुण्य पंचकल्याणकों को मैं अपने समग्र अस्तित्व से, हृदय उर्मियों से, अत्यन्त बहुमान पूर्वक नमस्कार करता हूँ। पद्मनंदी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MERO मैं कौन हूँ? क्या मैं शरीर हूँ? नहीं, शरीर तो काला, गोरा होता है; मैं तो रूप रहित हूँ। शरीर यहाँ पड़ा रहता है; मैं दूसरे भव में जाता हूँ। शरीर नाशवंत है; मैं शाश्वत हूँ। शरीर साधन है; मैं साधक हूँ। शरीर घर है: आत्मा उसका मालिक है। अर्थात् उसमें रहने वाला है। जैसे बस में आदमी है तो बस और आदमी एक है या अलग? अलग .... तपेली में दूध है तो तपेली और दूध एक है या अलग? __ अलग .... उसी प्रकार शरीर में आत्मा है तो आत्मा और शरीर एक है या अलग? . अलग .... तो अब बताइए ..... आप शरीर है या आत्मा? आत्मा आपको ज्यादा प्रेम किससे है? शरीर से या आत्मा से? आप ज्यादा समय किसके लिए देते हैं? शरीर के लिए या आत्मा के लिए? खाना, पीना, सोना, टी.वी. देखना, अच्छे-अच्छे कपड़े पहनना, गाड़ी में घूमना, डनलप की गादी पर सोना, टेपरिकॉर्ड सुनना, धंधा करना आदि की जरुरत किसको है? शरीर को या आत्मा को ? शरीर को .... तो आप मूर्ख है या समझदार? यदि हम आत्मा होते हुए भी अपना ज्यादा समय शरीर के लिए देते हैं तो मूर्ख है और यदि ज्यादा समय आत्मा के लिए देते हैं तो समझदार है। प्र. : मैं आत्मा हूँ' इस संस्कार को गाढ़ करने के लिए क्या करना चाहिए? उ.: 'मैं आत्मा हूँ' इस संस्कार को गाढ़ करने के लिए निम्न छ: बातों को बार-बार याद करें। (001 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. आत्मा है। 2. आत्मा नित्य है। 3. आत्मा ही कर्मों को करने वाली है। 4. आत्मा ही कर्मों को भोगने वाली है। 5. आत्मा का मोक्ष होता है। 6. मोक्ष के उपाय है। इस प्रकार मैं आत्मा हूँ यह प्रतीत होने पर आत्म कल्याण हेतु जीवन कैसा होना चाहिए यह जानने के लिए सर्वप्रथम प्रात: उठने एवं सोने की विधि सिखनी चाहिए। प्रात: उठने की विधि जिन भावों में व्यक्ति सोता है, उन भावों में रात्री व्यतीत होती है। अत: रात्री में नवकार के स्मरण पूर्वक सोये हुए व्यक्ति की भावशुद्धि स्वत: ही होती रहती है। सुबह कम से कम सूर्योदय से 48 मिनिट पहले उठे । उठते ही आठ कर्मों का क्षय करने के लिए 8 नमस्कार महामंत्र का हृदय कमल में ध्यान करें। पटम हवइमंगलं नमो (सिदाणं) /एसोपंच नमुक्कारो नमो नमोलोए नमो सव्व साहूर्ण अरिहंताणं आवरियाण उक्झाया मंगलाणं सव्येसिं प्पणासणो सव्व पाव साथ ही एक-एक नवकार गिनते समय एक-एक कर्म क्षय हो रहे हैं, ऐसी भावना करें। चित्र में बताये अनुसार 8 बार नमस्कार महामंत्र हृदय कमल में कल्पना से चिंतन करें। तत्पश्चात् दोनों हाथ की हथेली इकट्ठी कर सिद्धशीला पर 24 तीर्थंकर प्रभु का स्मरण करें। वह इस प्रकार है : Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 16 24 17 19 18 इस प्रकार सिद्धशीला पर 24 तीर्थंकर प्रभु का ध्यान करने के बाद श्रावक अपने मन में निम्न विचार करें। श्रावक की धर्म जागरिका: 1. मैं कौन हूँ? मैं आत्मा हूँ। 2. मैं कहाँ से आया हूँ ? 84 लाख जीवयोनि में भटककर आया हूँ। 3. अब मुझे कहाँ जाना है ? मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है ? “सीमंधर स्वामी के पास हमें जाना है, संयम लेके केवल पाके मोक्ष हमें जाना है।" इस लक्ष्य को दृढ़ता पूर्वक 3 बार मन में दोहराईये। 4. मैं कौन-सा सत्कार्य शक्ति होने पर भी नहीं करता ? 5. कब मैं जिनाज्ञानुसारी सच्चा श्रावक बनूँगा? 6. मुझे कौन - सा दोष सता रहा है ? क्रोध, मान, माया, लोभ, निंदा, ईर्ष्या आदि सोचकर प्रतिदिन किसी एक दोष को दूर करने का संकल्प करें। जैसे आज मैं क्रोध नहीं करूँगा इत्यादि । 7. मैं छ: काय की विराधना में फँसा प्राणी कब इस मोह माया के बंधन को तोड़कर संयम का मार्ग अपनाऊँगा? जिन लोगों से सुबह जल्दी उठा नहीं जाता उनको रात को सोते समय अपने सिर से जमीन, गद्दी अथवा तकिये पर तीन बार टकोर लगाकर कहना, कि मुझे 4 बजे उठाना और शरीर को भी कहना कि मुझे साथ देना। इस प्रकार करने से आप समय पर उठ जायेंगे। परन्तु एक बार उठने के बाद प्रमाद करके वापस नहीं सोना। यदि उठते समय नींद न खुले तो संथारा पोरसी में बताये हुए 'उसास निरंभणा लोए' इस पाठ के अनुसार नाक दबाकर श्वास रोके, जिससे नींद उड़ जायेगी। फिर नाक के जिस तरफ के छिद्र में से हवा निकल रही हो, उस तरफ के पैर को प्रथम उठाकर श्वास को रोककर जमीन पर रखें। फिर शौच विधि कर सुबह का प्रतिक्रमण करें। यदि पूरा प्रतिक्रमण न कर सको तो कम से कम इरियावहियं कर कुसुमिण - दुसुमिण का 4 लोगस्स का काउस्सग्ग कर भरहेसर, सात लाख एवं सकलतीर्थ 003 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र से वंदना करें। तत्पश्चात् 14 नियम धारण करें। एवं यथाशक्ति नवकारशी आदि पच्चक्खाण अवश्य ग्रहण करें। सोने की विधि * सूर्यास्त के 1 प्रहर (3 घंटे) बाद यानि लगभग 10 बजे सोना और सुबह 4 बजे उठना। * बायीं करवट से सोना, सोते समय भय के निवारण हेतु 7 नवकार गिनना। * पूर्व दिशा या दक्षिण दिशा में सिर रखकर सोना। दक्षिण दिशा में कभी भी पैर रखकर नहीं सोना। * ऊँधों सुवे अभागियो, सिधो सुवे रोगी। डाबे पड़खे सहु कोई सुवे, जमणे पड़खे जोगी।। अर्थात् डाबे पड़खे सोना चाहिए। कभी भी उल्टा नहीं सोना चाहिए। इससे व्यक्ति भाग्य हीन हो जाता है और न ही कभी सीधा सोना चाहिए। * सोते समय भगवान का स्मरण करना। नेमिनाथ प्रभु, पार्श्वनाथ प्रभु के स्मरण से बुरे सपने नहीं आते। श्री चन्द्रप्रभु स्वामी के स्मरण से नींद सुखपूर्वक आती है। श्री शांतिनाथ दादा के स्मरण से चोर आदि का भय नाश होता है। * सोते समय शरीर के अंगों पर परमात्मा की स्थापना करते हुए बोले :- काने मारे कुंथुनाथ, आँखे मारे अरनाथ, नाके मारे नेमिनाथ, मुखे मारे मल्लीनाथ, शांति आपे शांतिनाथ, कष्ट निवारे पार्श्वनाथ, भर निद्रा में काल करूँ तो वोसिरे-वोसिरे-वोसिरे। * सोते समय बोलने की भावना 1. आहार शरीर ने उपधि, पच्चक्खु पाप अढ़ार, मरण आवे तो वोसिरे, जीतुं तो आगार। शीयल मारे संथारे, समकित मारे ओशिंगे ज्ञान मारे हैडे वस्यु, भर निद्रामां काल करूं तो वोसिरे-वोसिरे-वोसिरे। पहले सोचे फिर जवाब दे...??? संसार क्षेत्र में आप फ्लेट से बंगले में आए, साईकल से मारुती में आए, कुर्सी से सोफा सेट पर आए, जवाब दीजिए धर्मक्षेत्र में आप पहले कहाँ थे और अब कहाँ पहुँचे? .. 000 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HE _मेरे परमात्मा प्र.: भगवान किसे कहते है? उ.: जो सभी को सच्चा सुख देते है, उन्हें भगवान कहते है। वैसे तो दुनिया में कई देवी-देवता हैं, सच्चे भगवान कौन हो सकते हैं ? उसकी परीक्षा करनी चाहिए। आप ही परीक्षा करें ... प्रः जो शस्त्रधारी होते हैं क्या वे भगवान हो सकते हैं? उ.: नहीं .. क्योंकि उनसे तो हमें डर लगता है। शस्त्र द्वेष का प्रतीक है। द्वेषी व्यक्ति हमें सुख नहीं दे सकता। प्र.: जो स्त्री को अपने पास रखते हैं क्या वे भगवान हो सकते हैं? उ.: नहीं .. क्योंकि स्त्री राग का कारण है। जो एक से राग करता है, वह सभी को समान दृष्टि से नहीं देख सकता। प्र.: तो सब जीवों को सुख देने वाले भगवान कौन हो सकते हैं? उ.: जो राग-द्वेष रहित हो, जिनको देखते ही मन खुश हो जाये, जो हमारे विषय-कषायों को नाश कर हमारा सच्चा हित करें, ऐसे वीतराग प्रभु ही सच्चे भगवान हो सकते हैं। प्र.: वीतराग प्रभु ही सबसे महान क्यों है? उ.: क्योंकि दुनिया के स्वामी जो 64 इन्द्र हैं, वे भी प्रभु के दास बनकर प्रभु की सेवा करते हैं। प्र.: प्रभु की इन्द्रादि देव सेवा क्यों करते हैं? उ.: क्योंकि प्रभु ने पूर्वभव में “सवि जीव करूँ शासन रसी' की अद्भुत भावना से तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित किया था। उस साधना में प्रभु ने सतत सब जीवों को तारने की शक्ति उपार्जित की थी। इन्द्र महाराजा जानते हैं कि इनकी सेवा से ही शाश्वत सुख मिल सकता है। इसलिए इन्द्रादि देव प्रभु की सेवा करते हैं। प्र.: तीर्थंकर कैसे बनते है? उ.: अनंत भव्य आत्माएँ इस संसार में हैं। उनमें से कुछ आत्माओं में ऐसी विशेषता होती है कि वे स्वयं मोक्ष में जाने से पूर्व अनेकानेक आत्माओं को मोक्ष के सन्मुख कर इस संसार समुद्र से तारने का अद्भुत कार्य करती है। वे तीर्थंकर की आत्माएँ होती हैं। उनकी इस विशेषता का मुख्य कारण होता है जीव मात्र के प्रति अनंत करुणा। 005) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे काँटा पैर में लगता है। पर आँसू आँख में आते हैं। हाथ काँटा निकालने के लिए पैर के पास पहुँच जाते हैं । मन दत्त चित्त बनकर काँटा निकालने का उपाय बताने लग जाता है। ऐसा क्यों होता है ? तो इसका कारण है कि पैर मेरा है, तो हाथ भी मेरा है, आँख भी मेरी है और मन भी मेरा है। बस शरीर के सभी अंगोपांग के प्रति रहा हुआ हमारा यह अपनत्व का भाव हमें शरीर के एक भी अंगोपांग के दुःख की उपेक्षा करने नहीं देता। ठीक इसी प्रकार तीर्थंकर प्रभु की आत्मा में सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के बाद जगत के सर्व जीवों के प्रति अपनत्व की भावना इतने हद तक बढ़ जाती है कि विश्व के प्राणी मात्र के दुःख को देखकर उनका हृदय करुणा से भर जाता है। जीव मात्र के दुःख को दूर करने के लिए वे कटिबद्ध हो जाते हैं। सम्यग् दर्शन से जीवों की दुःख मुक्ति का एवं अनंत सुख प्राप्ति का सच्चा उपाय जान लेते हैं। फिर सर्व जीवों के प्रति अपार करुणा से वीश स्थानक की उत्कृष्ट आराधना करते हैं। जिससे सर्व जीवों को तारने का उत्कृष्ट सामर्थ्य उन्हें प्राप्त होता है। प्रभु के हृदय में, हर श्वास में, रग-रग में, रोम-रोम में, आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में सर्व जीवों को सुखी बनाने का नाद गूंजता रहता है। इससे तीर्थंकर नामकर्म की वे निकाचना करते हैं। _____ अंतिम भव में घाति कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् देव रचित समवसरण में वीतराग प्रभु देशना द्वारा जीवों को तारने का कार्य करते हैं। इतना ही नहीं प्रभु का नाम, प्रभु की मूर्ति एवं प्रभु के जीवन चरित्र का श्रवण भी जीवों के दुःख को दूर करने में समर्थ बनता है। इस प्रकार तीर्थंकर प्रभु सतत इस जगत पर उपकार करते हैं। प्र.: तीर्थंकर प्रभु तो वीतराग है एवं वीतराग होने से वे जीवों को कुछ देते नहीं तो वे जीवों के दुःख को दूर कर कैसे उपकार करते हैं? उ.: आपकी इस बात में कोई सार नहीं है। यह बात बिल्कुल गलत है कि जो वीतराग होते हैं वे कुछ नहीं देते हैं क्योंकि वीतरागता निष्क्रियता का सूचक नहीं है, बल्कि निष्पक्षता का सूचक है। जहाँ राग-द्वेष होता है, वहाँ रागवश अथवा द्वेषवश कोई न कोई पक्षपात हो जाने से सच्चा न्याय नहीं हो पाता। जैसे जो पत्रकार बिना रिश्वत (लॉच) लिए एवं किसी प्रकार के पक्षपात किए बिना सत्य समाचार छापते है। वे ही लोगों में विश्वास पात्र बनते हैं। वैसे ही राग-द्वेष रहित व्यक्ति ही बिना पक्षपात सर्व जगत को सही मार्गदर्शन एवं सच्चा सुख दे सकता है। एक बात खास याद रखने जैसी है कि जैसे अरिहंत प्रभु वीतराग होने से पक्षपात रहित है। वैसे ही करुणा सागर होने से सर्व जीवों के दुःख को दूर करने की भावना वाले भी है, तथा साथ ही अचिंत्य शक्ति एवं प्रचंड पुण्यशाली होने से अपने अतिशय पुण्य से जीवों के मोह का विदारण कर अनंत Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंद को देने में भी समर्थ है। जैसे लक्ष्मी भरपूर हो, दिल उदार हो, एवं सामने याचक वर्ग हाजिर हो, तो दातार दिल खोलकर देने में बाकी नहीं रखता। वैसे ही प्रभु भी अचिंत्य शक्ति युक्त होने से जीवों को देने में कुछ बाकी नहीं रखते। प्र.: यदि अरिहंत प्रभु सर्व जीवों को मोक्ष देने में समर्थ है तो हमें मोक्ष क्यों नहीं दिया? अभी तक हमारा भव-भ्रमण क्यों चालु है? उ.: भगवान तो हमें मोक्ष देने में समर्थ है लेकिन जब तक हम संसार का राग एवं आग्रह नहीं छोड़ते तब तक हमारा मोक्ष नहीं हो सकता। जैसे सूर्य अपना प्रकाश धरती पर फैलाता ही है। लेकिन उस प्रकाश को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपने घर का दरवाज़ा खुला रखना पड़ता है। प्रकाश युक्त कमरे में जाकर स्वयं को बैठना पड़ता है तथा उस कमरे में बैठने के बाद अपनी आँखें भी खुली रखनी पड़ती है। तभी व्यक्ति सूर्य के प्रकाश का लाभ उठा सकता है। ठीक उसी प्रकार जगत के सर्व जीवों के प्रति प्रभु तो अनंत करुणा बरसा ही रहे है। लेकिन उस करुणा को ग्रहण करने के लिए योग्यता तो हमें ही प्रगट करनी पड़ती है। छाया देना यह वृक्ष का स्वभाव है एवं ठंडी को दूर करना यह अग्नि का स्वभाव है, परंतु छाया प्राप्ति एवं ठंडी को दूर करने के लिए स्वयं व्यक्ति को वृक्ष एवं अग्नि के पास तो जाना ही पड़ता है। इसी प्रकार मोक्ष देने का स्वभाव वीतराग प्रभु का है लेकिन मोक्ष के इच्छुक व्यक्ति को सच्ची श्रद्धा से प्रभु की शरणागति तो स्वीकारनी ही पड़ती है। हम स्वयं आँखें बंद रखें एवं सूर्य की प्रकाशता पर शंका करे... यह कहाँ तक उचित है? उसी तरह हम स्वयं प्रभु से दूर रहे और प्रभु की तारकता पर शंका करे..... यह कहाँ तक उचित है ? प्र.: प्रभु की शरणागति कैसे स्वीकार करनी चाहिए? उ.: अपने जीवन में जो कुछ भी अच्छा हो रहा है उसमें अरिहंत प्रभु की करुणा के सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है। जगत में अंधेरे का नहीं होना जैसे सूर्य पर आधारित है, उसी प्रकार अपने जीवन में दु:ख, संक्लेश का नहीं होना वह मात्र अरिहंत की करुणा पर आधारित है। ऐसे अनंत उपकारी तीर्थंकर प्रभु के उपकारों को हृदय से स्वीकार करें। प्रभु के उपकारों के स्मरण से हृदय को गद् गद् बनायें। आत्म कल्याणकारी उनकी प्रत्येक आज्ञा का जीवन में यथाशक्य पालन करें, कषायों के नाश के लिए निष्ठा पूर्वक प्रयत्न करें। जीव मात्र के प्रति सद्भाव पैदा करें। जीवन के प्रत्येक बाह्याभ्यंतर विकास के मूल में तारक प्रभु की कृपा-वर्षा ही एक मात्र कारण है... ऐसा अंत:करण से स्वीकार करें। यही है प्रभु की शरणागति भाव। जो आत्मा प्रभु की शरणागति भाव को स्वीकार करती है वह आत्मा प्रभु की कृपा पात्र बनती है और जो कृपा पात्र बनती है वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करती है... इसमें कोई शंका नहीं । 6007 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवपद (नवकार) जहाँ नवकार है वहाँ सत्कार, आवकार, पुरस्कार, नमस्कार आदि हैं। जहाँ नवकार नहीं है वहाँ तिरस्कार, धिक्कार, अहंकार, ममकार आदि हैं। यह शाश्वत मंत्र है। इसके एक-एक अक्षर पर अनेक देव अधिष्ठित है, यह सर्व मंगल में प्रथम है। इसमें नौ की संख्या अखंड है। नौ को किसी भी संख्या से गुणा करने पर भी 9 का अंक अखंड रहता है। जैसे 9x1 = 9, 9x2 = 18, 1+8 = 9, 9x3 = 27, 7+2 = 9, 9x4 = 36 3+6 = 9, 9x5 = 45, 4+5 = 9.... आदि। नवकार के नवपद 1. अरिहंतः अरि-शत्रु (राग-द्वेषादि) का हंत=नाश करने वाले। अरिहंत को तीर्थंकर, जिनेश्वर, परमात्मा, भगवान, वीतराग, देवाधिदेव भी कहते हैं। इनका वर्ण सफेद होता है। अरिहंत के बारह गुण होते हैं वे इस प्रकार है :(1) अशोकवृक्ष : यह वृक्ष प्रभु के शरीर से 12 गुणा ऊँचा, एकदम घटादार लाल पत्तों से युक्त एक योजन विस्तार वाला होता है। (2) सुरपुष्प वृष्टि : देवता सतत पाँच रंग के फूलों की जानु तक वृष्टि करते हैं और वे फूल सीधे एवं स्वस्तिक आदि अलग-अलग आकार में गिरते हैं। (3) दिव्यध्वनि : प्रभु मालकोष आदि राग और अर्धमागधी भाषा में देशना देते हैं। उस देशना को एक योजन तक एक समान आवाज़ में फैलाने वाली यह दिव्य ध्वनि होती है। (4) चामर : चारों दिशाओं में प्रभु के दोनों तरफ इंद्रों द्वारा रत्न जड़ित उज्जवल चामर ढाले जाते हैं। (5) सिंहासन : चारों दिशाओं में रत्नों से जड़ित सिंह की आकृति वाला सुवर्णमय एक-एक सिंहासन होता है। (C) भामंडल : प्रभु का शरीर हज़ारों सूर्य से भी अधिक तेजस्वी होने से हम प्रभु का मुख देख नहीं पाते। अत: उस तेज का संहरण करने के लिए प्रभु के पीछे भामंडल होता है। (7)देवदुंदुभि:देवता का वाजिंत्र। यह लोगों को सूचना देता है कि, “हे भव्य जीवों ! तुम यहाँ आओ, तीन लोक के नाथ यहाँ बिराजमान है। उनकी सेवा करों।" (४) तीनछत्र: परमात्मा तीन लोक के नाथ होने से प्रभु के मस्तक पर सुवर्णमय रत्न जड़ित तीन छत्र होते हैं। 008 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) अपायापगमातिशय: प्रभु जहाँ विचरते है, वहाँ 125 योजन तक मारी, मरकी आदि किसी प्रकार का रोग एवं अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि 6 महिने तक नहीं होते।. (10) ज्ञानातिशय: प्रभु केवलज्ञान से भूत-भावि एवं वर्तमान तीनों काल के सर्वद्रव्य के सर्व पर्याय को जानते हैं। (11) पूजातिशय : केवलज्ञान के बाद चारों निकाय के देवता अष्ट प्रातिहार्य की रचना से प्रभु-भक्ति करते हैं एवं 64 इन्द्र तथा जघन्य से एक करोड़ देवता हमेशा प्रभु की सेवा में हाजिर रहते हैं। (12)वचनातिशय : प्रभु की वाणी को देव-मनुष्य-तिर्यंच अपनी-अपनी भाषा में समझकर अपने सर्व संशयों का नाश करते हैं। भव्य आत्माएँ प्रभु के वचनातिशय के प्रभाव से शीघ्र वैरागी बनकर मोक्षाभिमुख बनती हैं। ये 8 प्रातिहार्य + 4 अतिशय = 12 अरिहंत के गुण कहलाते हैं। प्रभु को जन्मसे 4 अतिशय होते हैं 1. प्रभु का खून सफेद होता है। 2. आहार-निहार अदृश्य रूप से होते हैं। 3. श्वासोश्वास कमल के समान सुगंधित होता है। 4. पसीना नहीं होता। प्रभु के खून का वर्ण सफेद है, क्योंकि जिस प्रकार अपने बालक पर रहे वात्सल्य के कारण माता के स्तन का खून सफेद दूध बन जाता है। उसी प्रकार प्रभु को सर्व जीवों के प्रति अपार वात्सल्य होने से उनका खून सफेद बन जाये तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अरिहंत प्रभु ने मोक्ष का मार्ग बताया इसलिए उनका नवकार में प्रथम नंबर है। इनके 4 घाति कर्म नाश हो गये हैं। 2. मिन्द : आठों कर्मों का क्षय कर जिन्होंने मोक्ष को प्राप्त किया हो वे सिद्ध कहलाते हैं। जब एक जीव मोक्ष में जाता है तब एक जीव निगोद में से बाहर निकलता है। इनका वर्ण लाल है। क्योंकि आठ कर्मों को इन्होंने ध्यानरूपी लाल ज्वाला से जलाया है। सिद्ध भगवंतों ने आठ कर्मों का क्षय करके 8 गुणों को प्राप्त किया है। वे इस प्रकार है :1. अनंतज्ञानः ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से सर्व क्षेत्र एवं सर्वकाल के सर्व पदार्थों को सर्व पर्यायों के साथ एक समय में विशेष रूप में जान सके ऐसा लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्रकट होता है। 2.अनंतदर्शन: दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से विश्व के जीव-अजीव पदार्थों के भूत-भावि के (009 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐनमो तवर ही नमो आबरियाण ही नमो चारित्तस्म ॐही नमो नाणस्स अनंत पर्याय, एक समय में सामान्य रूप से देख सकते हैं। 3.अव्याबाध सुख : वेदनीय कर्म के क्षय से सुख में कभी किसी प्रकार की बाधा नहीं आती। 4.अनंतचारित्र: मोहनीय कर्म के क्षय से सिद्ध भगवंत स्थिरता रूप चारित्र में ही रहते हैं। आत्म स्वभाव से विचलित नहीं होते। 5.अक्षय स्थिति: आयुष्य कर्म के क्षय से मोक्ष की स्थिति (काल) कभी क्षय नहीं होती अर्थात् जीव मोक्ष में से पुन: संसार में कभी नहीं आता। 6.अरूपी: नाम कर्म के क्षय से मोक्ष में जीव आकार, रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित होते हैं। 7.अगुरुलघु: गोत्र कर्म के क्षय से मोक्ष में आत्मा हल्की-भारी नहीं होती। 8.अनंतवीर्य: अंतराय कर्म के क्षय से मोक्ष में आत्मा स्थिर रहती हैं। इससे अनंतवीर्य लब्धि प्राप्त होती है। (010 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _3. आचार्य:प्रभु के विरहकाल में शासन की धुरा आचार्य भगवंत संभालते हैं । ये सूत्रों के अर्थ की देशना देते हैं। पाँच इन्द्रियों के विषयों को दमन करने में समर्थ, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य के पालक, चार कषायों से मुक्त, पंचाचार के पालक, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति से युक्त ऐसे छत्तीस गुणवाले आचार्य भगवंत होते हैं। ये अरिहंत प्रभु के मार्ग को सूर्य के समान सर्वत्र प्रकाशित करते हैं। अत: इनका वर्ण पीला होता है। 4. उपाध्याय: ये सूत्र की देशना देने में बड़े दक्ष होते हैं। ये 11 अंग, 12 उपांग, चरणसित्तरी एवं करण सित्तरी इन 25 गुणों से अलंकृत होते हैं । मुमुक्षुओं को आराधना द्वारा ज्ञानादि की शीतल छाया देने वाले हरे-भरे वृक्ष के समान होने से इनका वर्ण हरा होता है। . 5. साधुःजो दूसरों को सहाय करें, स्वयं साधना करें उसे साधु कहते हैं। ये मोक्ष के साधक होते हैं। छ: महाव्रत का पालन, छ:काय का रक्षण, पाँच इन्द्रिय एवं लोभ का निग्रह, तीन अकुशल मन, वचन, काया का त्याग, क्षमा रखना, भाव विशुद्धि, पडिलेहण में विशुद्धि, संयम योग से युक्त, शीतादि पीड़ा को सहन करना, मरणान्त उपसर्ग को वहन करना इस प्रकार साधु के कुल मिलाकर 27 गुण होते हैं। अंदर से कर्मों की कालिमा को बाहर निकालते हैं। इसलिए इनका वर्ण काला होता है। 6.सम्यग् दर्शनः एक ऐसी दृष्टि जिसमें करने योग्य और नहीं करने योग्य कार्य का सम्यग् विवेक होता है एवं सुदेव, सुगुरु , सुधर्म पर सच्ची श्रद्धा बनती है। इससे आत्मदशा का ज्ञान होता है। मिथ्यात्व मोहनीय की मंदता अथवा नाश से इसकी प्राप्ति होती है। इसके 67 भेद हैं। इसका वर्ण श्वेत होता है। इसके बिना किया गया धर्म विशेष फलदायी नहीं बनता। ____7.सम्यग्ज्ञान: जीवादि नव तत्त्व एवं वीतराग वाणी का वास्तविक स्वरुप इससे ज्ञात होता है। इस ज्ञान के अभाव से ही जीव ने अनंत दुःख देखे हैं। इसके 51 भेद हैं। तथा इसका वर्ण श्वेत होता है। 8.सम्यग् चारित्रः सम्यग् विवेक एवं सम्यग् जानकारी होने के बाद उसके अनुरुप आचरण आने पर ही मुक्ति मिल सकती है। इस आचरण को चारित्र कहते हैं। इसके 70 भेद है एवं वर्ण श्वेत होता है। 9.सम्यग् तपः जिससे समभाव का पोषण हो, सहिष्णुता बढ़े, कषाय घटे एवं इच्छाओं का रोध हो, वह सम्यग् तप है। तप कर्म की निर्जरा के उद्देश्य से होना चाहिए। इसके 12 भेद हैं एवं वर्ण श्वेत होता है। इन नवपद में प्रथम दो पद देव तत्त्व के हैं। उसके बाद तीन पद गुरु तत्त्व के एवं अंतिम चार पद धर्म तत्त्व के हैं। गुरु ही देव एवं धर्म की पहचान कराते हैं। अत: गुरु तत्त्व मध्य में है। इन नवपद में प्रथम दो Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद साध्य है। बीच के तीन पद साधक है एवं अंतिम चार पद साधन रूप हैं। पंच परमेष्ठी का स्वरूप संसार स्वरुप अरिहंत -परोपकार स्वरुप स्वार्थ स्वरुप सिद्ध - देहाध्यास त्यागस्वरुप देहाध्यास स्वरुप आचार्य - सदाचार स्वरुप । अनाचार स्वरुप उपाध्याय - ज्ञान स्वरुप अज्ञान स्वरुप साधु - सहिष्णुता स्वरुप असहिष्णुता स्वरुप संसार स्वरुप का त्याग कर पंच परमेष्ठी के गुणों को प्राप्त करने के लिए पंच परमेष्ठी की आराधना साधना एवं जाप करने चाहिए। नवपद जपें कर्म ख . नवकार का एक अक्षर बोलने पर = 7 सागरोपम जितने दुर्गति जनक पापों का नाश होता हैं। इसका एक पद बोलने पर = 50 सागरोपम जितने दुर्गति जनक पापों का नाश होता हैं। पूरी नवकार एक बार बोलने पर = 500 सागरोपम जितने दुर्गति जनक पापों का नाश होता हैं। 108 बार बोलने पर = 54,000 सागरोपम जितने दुर्गति जनक पापों का नाश होता हैं। नव लाख जाप करने पर = 45,00,00,000 सागरोपम जितने दुर्गति जनक पापों का नाश होता हैं। इसका भाव से स्मरण करने वाला = 3,7 या 11 भव में मोक्ष में जाता हैं। ) माला गिनने की विधि . 6 18910 बायाँ हाथ दायाँ हाथ दायें हाथ में क्रमश: नंबर पर माला का मंत्र बोले, एक बार दायें हाथ के नंबर पूरे होने पर बाएँ हाथ का एक नंबर आगे बढ़ाए। इसी क्रम से जब बाएँ हाथ के 9 नंबर पूरे हो जाएँ तब एक माला पूरी होती है। जाप करते समय ध्यान रखने की बातें1. जाप का समय हमेशा एक ही होना उचित है। OD Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. एक ही आसन पर बैठकर, एक ही माला से, एक ही दिशा सन्मुख बैठकर जाप करना उचित है। 3. जाप की संख्या निश्चित रखना। जाप करने की समझ 000000 1. मोक्ष की प्राप्ति के लिए अंगूठे से मणके उतारने चाहिए। 2. शत्रु दमन के लिए तर्जनी अंगुली से मणके उतारने चाहिए। 3. धन और सुख की प्राप्ति के लिए मध्यमा अंगुली से मणके उतारने चाहिए। 4. शांति के लिए अनामिका अंगुली से मणके उतारने चाहिए। 5. आकर्षण कार्य के लिए टचली (कनिष्ठा) अंगुली से मणके उतारने चाहिए। * सुतर एवं चंदन की माला पर किया गया जाप सदा सुखकारी होता है । * चांदी, परवाला, सोना, मोती की माला का जाप अनुक्रम से शांति, सौभाग्य, आरोग्य और पुष्टि को देने वाला होता है। * रत्न, स्फटिक, नीलम, तेजस्वी मणि की माला से जाप करने पर हजारों उपवास का फल मिलता हैं। सूचना: प्लास्टीक एवं लकड़े की माला से माला नहीं गिननी चाहिए। कितने किसलिए नवकार गिनने चाहिए? ल.: आठ कर्मों का क्षय करने के लिए। खाने के पूर्व एक अमृत भोजन के लिए। बाहर जाते समय तीन स्वस्थता, समाधि, सफलता के लिए। मंदिर में बारह अरिहंत प्रभु के गुण को याद करने के लिए। छींक आये तब नमो अरिहंताणं अमंगल दूर करने के लिए। सोते समय सात सात प्रकार के भय को जीतने के लिए। प्रतिदिन एक सौ आठ दुर्गति को दूर करने के लिए। इस मंत्र के प्रभाव से कितने चमत्कार हो गये है।देखिए1. पार्श्वकुमार ने जलते हुए नाग को सेवक के मुख से मात्र नवकार मंत्र सुनाया और वे धरणेन्द्र बन गये। 013) प्र.: केब उठते आठ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. श्रीमति ने नवकार गिनकर घड़े में हाथ डाला, तो घड़े में रहा साँप भी फूल की माला बन गया। 3. शिवकुमार ने नवकार गिना, जिससे मौत के बदले सुवर्ण पुरुष की प्राप्ति हुई। 4. नवकार के प्रभाव से समडी (पक्षी) मरकर राजकुमारी सुदर्शना बनी। 5. नवकार मंत्र के प्रभाव से अमरकुमार के शूली का सिहांसन बन गया। O) नवकार की महिमा . एक छोटी लड़की थी। उसके माता-पिता का बचपन में ही देहान्त हो गया था। वह अपने मामा के घर रहने लगी। मामी उसके पास बहुत काम करवाती थी। मामा को दया आती, फिर भी क्या करें। एक बार महाराज साहेब गाँव में पधारें, मामी ने उपाश्रय में झाडू निकालने के लिए भेजा। महाराज साहेब ने नवकार मन्त्र सिखाया और दुःख में गिनने को कहा। लड़की बड़ी हुई, मामा ने उसकी शादी की। उसकी सास का स्वभाव अच्छा नहीं था। फिर भी वह अपने धर्म-कार्य में अटल थी। वह प्रतिदिन गाय को रोटी देती थी। एक दिन वह गाय को रोटी खिला रही थी। गाय बीमार होने के कारण खा नहीं रही थी। उसने गाय को नवकार सुनाया। नवकार सुनते-सुनते गाय ने प्राण त्याग कर लिये। नवकार के प्रभाव से वह गाय मरकर देव बनी। देव ने उपयोग रखकर देखा कि “मैं कौन से पुण्य से यहाँ आया हूँ"। उसे मालूम हुआ कि नवकार मंत्र के प्रभाव से मैं देव बना हूँ। उसने अपनी उपकारी स्त्री पर उपकार करने के लिए उसे एक स्वप्न बताया कि कल तेरे पति फेक्ट्री जायेंगे तब वापस लौटते समय बीच में एक्सीडेंट होने वाला है, इसलिए उनको जाने मत देना। पत्नी ने पति को जाने से मना किया। लेकिन पति नहीं माना। पत्नी ने घर बैठेबैठे ही पति के हित के लिए नवकार मंत्र का जाप शुरु किया। इस तरफ पति जब घर आ रहे थे, तब सामने आ रही ट्रक से एक्सीडेंट हुआ, लेकिन नवकार मंत्र के प्रभाव से देव जागृत थे। इसलिए देव ने उसके पति को स्कूटर से उठाकर एक तरफ फेंक दिया। स्कूटर चकनाचुर हो गया। लेकिन उसके पति को कुछ नहीं हुआ। वह सही सलामत घर आया। आकर पत्नी से पूछा कि तुम्हें कैसे मालूम पड़ा कि आज यह दुर्घटना होने वाली थी, जिससे तुमने मुझे जाने के लिए मना किया। उसने गाय को नवकार सुनाने से लेकर देव स्वप्न तक की सारी बातें कह सुनाई और जब मेरे रोकने पर भी आप नहीं रुके तब आपके हित के लिए मैंने नवकार का जाप शुरु किया। जिसके प्रभाव से आप बचे हो। इस घटना से पूरे परिवार में उस कन्या एवं नवकार के प्रति आदर भाव पैदा हुए एवं धर्म-ध्यान से पूरा परिवार सुखी बना। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे गुरु अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर जो ले जाए, वे गुरु कहलाते हैं। प्रः सद्गुरु की पहचान क्या? उ.: जो पाँच महाव्रतों का अणिशुद्ध पालन करें, वे सद्गुरु कहलाते हैं। प्र.: पांच महाव्रतों के नाम बताकर उनकी व्याख्या बताओ? उ.: 1. सर्वथा जीव हिंसा नहीं करना। 2. सर्वथा झूठ नहीं बोलना। . 3. सर्वथा चोरी नहीं करनी। 4. सर्व प्रकार से ब्रह्मचर्य का पालन करना। 5. सर्वथा पैसे आदि नहीं रखना। (सर्वथा वस्तु के प्रति ममत्व भाव से रहित होना) 1. सर्वथा जीव-हिंसा नहीं करना- मात्र मच्छर, चींटि, लट, शंख आदि चलते-फिरते जीव ही नहीं बल्कि पृथ्वीकाय-नमक, मिट्टी आदि, अप्काय-कच्चा पानी, बरफ आदि, तेऊकाय-अग्नि, गैस, पंखा, इलेक्ट्रिसीटि आदि, वाऊकाय-पंखा आदि की हवा, वनस्पतिकाय -फल, फूल, सब्जी, हरियाली आदि त्रस-स्थावर किसी भी जीव की हिंसा नहीं करना। चाहे जितनी प्यास लगे फिर भी कच्चा पानी नहीं पीना, गर्मी लगे तो पंखा नहीं करना, जोरों की भूख लगी हो खाने को कुछ भी न मिले और सामने फलों का ढेर पड़ा हो फिर भी उसे लेकर नहीं खाना।' उदाहरण:- गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर अंगारे भरें। तब मुनि ने विचार किया... कि यदि मैं थोड़ा भी हिल गया तो ये अंगारे नीचे मिट्टी में गिरेंगे। जिससे अग्निकाय एवं पृथ्वीकाय दोनों की विराधना होगी। इस जीवदया के परिणाम से मुनि ने समभाव पूर्वक मस्तक को जलने दिया और वहीं उन्हें उत्कृष्ट भावों से केवलज्ञान हो गया। धन्य है मुनि की जीवदया को. 2.सर्वथा झूठ नहीं बोलना-मात्र धर्म संबंधी ही नहीं बल्कि कोई मारने आ जाए तो भी झूठ न बोलकर सत्य ही बोलना। उ. सर्वथा चोरी नहीं करना- रास्ते पर रही हुई मिट्टी लेनी हो तो भी उसके मालिक को पूछे बिना नहीं लेना। 4. सर्वथा ब्रह्मचर्य का पालन-साधु भगवंत को स्त्री का और साध्वीजी को पुरुष का स्पर्श नहीं करना। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहे एक दिन का छोटा बालक हो फिर भी साध्वीजी उसे नहीं छूते। ब्रह्मचर्य की नव-गुप्ति का पूर्णतया पालन करना। 5. परिग्रह कात्याग- साधु के उपकरण के सिवाय पैसा, सोना, चाँदी, घर, दुकान, पुत्र, परिवार, बर्तन आदि किसी भी प्रकार की सामग्री नहीं रखनी। कोई सोने (सुवर्ण रत्न) की माला वहोराने आ जाए तो भी उस पर ममत्व नहीं रखकर मना कर देना। वर्तमान में जहाँ पैसे के बिना एक क्षण भी नहीं जी सकते, वहाँ ये मुनि एक दमड़ी भी अपने पास नहीं रखते। फिर भी इनके चेहरे की प्रसन्नता श्रीमंत की तुलना से हज़ार गुणा अधिक देखने को मिलती हैं। माना कि आत्मानंद की अपेक्षा से साधु प्रसन्न चित्त रह सकता है, लेकिन प्रश्न आता है कि पैसे के बिना जीवन निर्वाह में उपयोगी रोटी-कपड़ा एवं मकान कैसे मिल सकते हैं? इसका जवाब है - प्रभु शासन की लीला न्यारी है। प्रभु ने चतुर्विध संघ की स्थापना की है। श्रावकश्राविका के लिए प्रभु ने गुरु भक्ति का महत्त्व समझाकर खूब अहोभाव से गोचरी-पानी-वस्त्र-वसति आदि सुपात्र दान से विपुल कर्म निर्जरा बताई, तो साधु-साध्वीजी को घर-संसार, ऋद्धि-समृद्धि का त्याग कर नि:स्पृह जीवन जीने का उपदेश दिया है। अतः साधु महात्मा नि:स्पृह भाव से मात्र संयम में उपकारी हो, उतनी निर्दोष (श्रावक के स्वयं के लिए ही तैयार की गई एवं जिसमें साधु का कोई उद्देश्य भी न हो ऐसी) गोचरी, वस्त्र एवं वसति का लाभ देकर श्रावकों को कृतार्थ बनाते हैं। साधु महात्मा एक ही घर से संपूर्ण आहार नहीं वहोरते। लेकिन जिस प्रकार गाय थोड़ी-थोड़ी घास चरती है उसी प्रकार साधु महात्मा भी घर-घर से थोड़ा-थोड़ा आहार ही लेते हैं। इसलिए साधु के आहार को गोचरी कहते हैं। साधु-साध्वीभगवंतों कीभाषा:गलतवाक्य सहीवाक्य 1. म.साहेब झाडू निकालते हैं। म.साहेब डंडासन से काजा निकालते हैं। 2. म.साहेब कपड़ा धोते हैं। म.साहेब काप निकालते हैं। 3. म.साहेब पानी ढोलते हैं। म.साहेब पानी परठते हैं। 4. म.साहेब गादी पर सोते हैं। म.साहेब संथारा करते हैं। 5. म.साहेब खाना लेने जाते हैं। म.साहेब गोचरी वहोरने जाते हैं। 6. म.साहेब खाना खाते हैं । म.साहेब गोचरी वापरते हैं। 7. म.साहेब खाना लेने आओं। म.साहेब गोचरी वहोरने पधारों। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. म.साहेब बार-बार कपड़ा उतारकर पहनते हैं। म.साहेब पडिलेहण करते हैं। इन 9. म.साहेब चरवला से कचरा दूर करते हैं। म.साहेब रजोहरण से जीवों की जयणा करते हैं। 10. म.साहेब थाली में खाते हैं। म.साहेब पात्रे में वापरते हैं। 11. म.साहेब गाड़ी में बैठकर एक गाँव से म.साहेब पैदल विहार करते हैं। दूसरे गाँव जाते हैं। 12. म.साहेब भाषण देते हैं। म.साहेब (उपदेश) व्याख्यान देते हैं। 13. म.साहेब मारने के लिए लंबी लकड़ी रखते हैं। म.साहेब संयम-रक्षा के लिए डंडा रखते हैं। (017 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र.: साधु एवं भिखारी दोनों के पास सुख-सामग्री के साधनों का अभाव है, तो दोनों में अंतर क्या है? साधु भिखारी 1. साधु स्वेच्छा से संसार के सुखों का भिखारी के पास संसार सुख के साधन त्याग करता है। न होने से भोग नहीं पाता। 2. साधु के मन में संसार के सुखों की भिखारी के मन में संसार सुख की सतत कोई इच्छा नहीं होती। झंखना रहती हैं। 3. साधु भिक्षा न मिलने पर तपोवृद्धि मानकर भिखारी भिक्षा न मिलने पर दुःखी ___ आनंद में रहते है पर किसी को उपालम्भ नहीं देते। बनकर लोगों को गाली देता है। 4. साधु त्याग करने पर पूजनीय भिखारी मांगने की वृत्ति से निंदनीय . बनता है। एवं घृणा पात्र बनता है। दृष्टान्त- एक भिखारी तीन दिन से कुछ भी खाने को न मिलने से एक सेठ के घर भीख मांगने गया। सेठ ने उसे कुछ भी दिए बिना तिरस्कार कर निकाल दिया। इतने में दो साधु महात्माजी पधारें। सेठ ने उन्हें बड़े भाव से आमंत्रण कर मिष्ठान वहोराया। दूर खड़े भिखारी ने यह दृश्य देखा। जैसे ही मुनि भगवंत वहोरकर बाहर आए वैसे ही भिखारी ने उन मुनियों के पास खाना माँगा। मुनि ने कहा - इस भिक्षा पर हमारे गुरु का अधिकार ____ यह सुन वह भिखारी भी उन महात्माओं के साथ उपाश्रय पहुँच गया। वहाँ उसने उनके गुरु से भिक्षा माँगी। गुरु ने उसे योग्य जानकर कहा कि- "भाई! यदि तुम दीक्षा लेते हो तो हम तुम्हें हमारा लाया हुआ भोजन दे सकते हैं। एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना भिखारी ने खाने के लिए दीक्षा ले ली। फिर उसने पेट भरकर खाना खाया। कई दिनों से भूखे होने के कारणं एक साथ पेट भरकर भोजन करने से रात्री में भयंकर शूल पीड़ा उत्पन्न हुई। तिरस्कार करने वाले सेठ भक्ति से मुनि की सेवा में जुड़ गये। वह भिखारी जिसने मात्र खाने के लिए दीक्षा ली थी, वह सोचने लगा कि कल तक भिखारी अवस्था में जो मेरा तिरस्कार कर रहे थे। वे ही सेठ-साहुकार आज मेरे पास प्रभु द्वारा प्रदत्त संयम जीवन होने से तन-मन-धन से मेरी सेवा कर रहे है। "अहो! धन्य है इस संयम जीवन को!" इस प्रकार संयम धर्म की अहोभाव से अनुमोदना करते हुए उस नूतन मुनि ने प्राण त्याग दिए। वहाँ से मरकर वह अशोक महाराजा का पौत्र संप्रति राजा बना। जिसने सवा लाख जिन मंदिर एवं सवा करोड़ जिन प्रतिमा भरवाई थी। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र.: साधु महात्मा ग्रामानुग्राम विहार क्यों करते है एवं कैसे करते है? उ.: प्रभु ने साधु भगवंत के जो उपकरण बताए हैं। साधु महात्मा उन उपकरणों को अपने शरीर पर उठाकर नंगे पैर स्व-पर कल्याण हेतु ग्रामानुग्राम विहार करते हैं। उनका अपना कोई स्थिर एड्रेस नहीं होता। गाँवगाँव में धर्म का उपदेश देकर जीवों को मोक्षाभिमुख बनाते हैं एवं उत्कृष्ट जीवदया के पालन से आत्मा के कर्म मल को धोते हैं। साथ ही उन्हें शारीरिक स्तर पर भी कई लाभ होते हैं। जैसे :- नंगे पैर चलने से पाँव के तलिये में एक्युप्रेशर हो जाता है। विहार में पेड़-पौधे एवं हरियाली होने से आँखें तेज होती है। शुद्ध हवा से शरीर में ताज़गी एवं स्फूर्ति बनी रहती है, जिससे बिमारी जल्दी नहीं आती एवं विहार से शरीर का संतुलन भी बना रहता है। प्र.: इसके अलावा साधु जीवनकी और क्या-क्या विशेषता होती है? उ.: साधु महात्मा अत्यंत निर्मल जीवन जीते हुए भी जाने-अनजाने में कोई पाप हुआ हो तो उसकी शुद्धि हेतु सुबह-शाम दो बार प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण की क्रिया भी अपने आप में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों ही प्रकार से आत्मा के लिए हितकर सिद्ध होती है। इतना ही नहीं संयमी महात्मा जीव -रक्षा हेतु लाईट, पंखा, वाहन आदि का बिल्कुल उपयोग नहीं करते। भूख-तृषा आदि परिषह उपसर्गों को कर्म क्षय करने हेतु सहर्ष सहन करते हैं। ___ बिना किसी अपेक्षा के स्वाधीन जीवन जीने वाले साधु महात्मा के जीवन की तरफ नज़र करते है, तो ऐसा लगता है कि जहाँ दुनिया के लोगों को (गृहस्थ) पैसा, लाईट, पंखा, वाहन, अग्नि, पानी, स्त्री आदि के बिना एक क्षण भी नहीं चलता। वहाँ जिन-शासन के साधु इन सारी चीज़ों का जिंदगी भर के लिए त्याग कर आनंद से जीवन व्यतीत करते है। क्या यह विश्व का सबसे बड़ा आश्चर्य नहीं है? अरे ! इससे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि जहाँ ये संसारी लोग भूमि शयन (संथारा) जैसे छोटे-छोटे नियम लेने से कतराते है वही प्रभु वीर के ये साधु हँसते-हँसते केश लुंचन करवाते है। संसारी जीव अपने हर कार्य में पाप कर्म का बंध करता है जबकि साधु आहार, विहार, निहार आदि हर कार्य में कर्मों की निर्जरा ही करता है। संसार में चारों तरफ बंधन ही है जबकि साधु हमेशा स्वेच्छा से आराधना कर प्रसन्न रहते हैं। - दीक्षा की महत्ता राजगृही नगरी के एक गरीब लड़के ने दीक्षा ली। गाँव के लोग उसे चिड़ाने लगे कि पैसे नहीं थे इसलिए दीक्षा ली। उससे सहन नहीं हुआ और उसने गुरु से कहा-यहाँ से विहार करो। तब अभयकुमार मंत्री 19 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने गुरु को अचानक विहार करने का कारण पूछा ? कारण ज्ञात होने पर उन्हें विनंती कर विहार करने का मना किया एवं गाँव के लोगों को त्याग का महत्त्व बताने के लिए गाँव में ढींढोरा पिटवाया कि यहाँ पर रत्नों के तीन ढेर लगाये गए है। जो व्यक्ति अग्नि, स्त्री(पुरुष) एवं कच्चे पानी का आजीवन त्याग करेगा उसे ये देर भेंट दिए जायेंगे। लोगों की भीड़ लगी पर तीन में से एक भी वस्तु का त्याग करके रत्नों के ढेर को लेने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। अभयकुमार ने कहा - "इन बाल मुनि ने इन तीनों का त्याग किया है। इसे यह राशि दी जाती है।" लेकिन बाल मुनि ने कहा- “ममत्व के द्वारा दुर्गति में धकेलने वाली यह रत्नराशि मुझे नहीं चाहिए।” तब लोगों को दीक्षा का महत्त्व पता चला कि इसने कितना महान कार्य किया है। फिर सब उसे पूजने लगे। इससे यह सिद्ध होता है कि जो त्याग करता है उसे सब पूजते हैं। । प्र.: ऐसे महान गुरु भगवंत को वंदन करने से क्या लाभ होता है? उ.: 1.अज्ञान रूपी अंधकार का नाश होता है। 2.नीच गोत्र का क्षय होता है। 3.अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। 4.असंख्य भवों के पाप नाश होते हैं। 5.तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन होता है। 6.परमात्मा की आज्ञा का पालन होता है। मोक्ष का महत्त्व किसलिए? झगड़े अच्छे नहीं लगते - तो मोक्ष में कभी झगड़े नहीं होते। ठंडी अच्छी नहीं लगती -तो मोक्ष में कभी ठंडी नहीं होती। गरमी अच्छी नहीं लगती - तो मोक्ष में कभीगरमीनहीं होती। तकलीफ अच्छी नहीं लगती - तो मोक्ष में किसी प्रकार की तकलीफ नहीं है। जुल्म अच्छे नहीं लगते - तो मोक्ष में किसी प्रकार के जुल्म नहीं है। भय अच्छा नहीं लगता - तो मोक्ष में किसी प्रकार का भय नहीं है। जो दु:ख आपको दु:खी करते है उनमें से एक भी दु:ख मोक्ष में नहीं है। फिर भी जो मोक्ष की महत्ता समझ में न आए तो इसके जैसी कमनसीबी दूसरी क्या हो सकती है? 020 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Art of Living जैसा खाये अन्न, पैसा होवे मन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर वास्तुशास्त्र वायव्य ईशान दिशा यंत्र पश्चिम पूर्व (EAST) - शुभ पश्चिम (WEST) - अशुभ दक्षिण (SOUTH) - अशुभ उत्तर (NORTH) - शुभ नैऋत्य दक्षिण अग्नि इन्सान के जीवन में दो चीज़े प्रभावित करती है :- (1) भाग्य (2) वास्तु। 50% भाग्य एवं 50% वास्तु। यदि आपके सितारे बुलंद है और वास्तु में गड़बड़ है तो प्रयास की तुलना में नतीजे आधे मिलेंगे। इसके विपरीत यदि आपकी वास्तु सही है और ग्रह दिशा ठीक नहीं है तो भी उन्हें उतने कष्ट नहीं झेलने पड़ते जितने यदि दोनों में गड़बड़ हो तो, अर्थात् यदि वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार गृह निर्माण कराया जाए तो मनुष्य के भाग्य की स्थिति बदल सकती है। * अध्ययन दिशा :- सदैव ध्यान रखें कि पूर्व, ईशान एवं उत्तर दिशाएँ ज्ञानवर्धक होने से इन दिशाओं के सन्मुख मुख रखकर पढ़ना चाहिए । पुस्तकें हमेशा नैऋत्य दिशा में जमाकर रखें। इस दिशा के अभाव में दक्षिण या पश्चिम में रखी जा सकती है। अध्ययन कक्ष में टेबल के सामने या पास में मुँह देखने का कांच न हो... * पूजा स्थान :- घर में पूजा का कमरा ईशान में हो । परमात्मा की मूर्ति या फोटो पूर्व या उत्तर दिशा में रखे जिससे दर्शन के समय आपका मुख पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख हो। धूप, अगरबत्ती आदि अग्निकोण में रखें। पूजा घर का दरवाज़ा ऑटोमेटिक बंद होने वाला नहीं होना चाहिए, इस दरवाज़े पर स्प्रींग या डोर क्लोजर नहीं लगाना चाहिए तथा पूजा घर के ऊपर या नीचे के भाग में शौचालय नहीं होना चाहिए। * पूर्वजों के चित्र :- नैऋत्य कोण में लगाये । मृतात्मा के चित्र पूजन कक्ष में देवताओं के सामने न हो। * घर में सभी प्रकार के दर्पण पूर्व या उत्तर दिवारों पर हो । मुख्य दिवार पर कांच न हो। * घर में घड़ियाँ पूर्व, पश्चिम या उत्तर में लगाए। * तिजोरी उत्तर में रखें । उत्तर दिशा कुबेर का स्थान है । कुबेर देवता कभी भी कोष को खाली नहीं होने देते। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर घर जैन बनें आज के इस विज्ञान प्रधान युग में बाह्य साधनों से भले ही हम प्रगति की राह पर है, परंतु पाश्चात्य संस्कृति की लालसा के कारण मनुष्य अपनी मानवता और भारतीय संस्कृति को भूलता जा रहा है। इससे आज घर-घर की स्थिति बिगड़ती जा रही है। सामान्यत: यह शिकायत बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती है कि इस वर्तमान युग में बच्चें सुनते नहीं, कहना नहीं मानते, एशन फैशन के रंग में अपनी मर्जी अनुसार करते हैं। बचपन से ही अपने सारे फैसले अपनी इच्छानुसार लेने के आदी हो जाते हैं । यहाँ तक कि बड़े हो जाने पर लव- मेरे जैसे बड़े-बड़े फैसले भी अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध या उनकी अनुमति बिना ही कर लेते हैं। इसके परिणाम स्वरुप पूरा घर बिखर जाता है या फिर उन्हें पूरी जिंदगी संघर्ष करना पड़ता है। प्रश्न यह उठता है कि विज्ञान की दृष्टि से हम पिछले ज़माने से कई कदम प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं तो फिर मानवता, सहयोग, सेवा, कर्तव्य और समर्पण की भावना में उतने ही पीछे क्यों जा रहे हैं ? आज के युग में श्रवणकुमार जैसे पुत्र, भरत जैसे भाई, राम जैसे पति के दर्शन भी दुर्लभ हो गये हैं। ये सब महापुरुष हमारे अतीत का हिस्सा बनते जा रहे हैं। फिलहाल हमारे आदर्श तो टी. वी. सिनेमा के हीरो-हीरोईन बन गए हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? यह बदलाव क्यों ? इसका मूल कारण क्या? क्यों हमारी वर्तमान पीढ़ी माता- -पिता के प्रति अपने कर्तव्यों से पीछे हट रही है? यदि आप इसका जवाब जानना चाहते हैं तो इसका एकमात्र जवाब यही है कि वर्तमान युग के बच्चों में संस्कारों का नितांत अभाव। आज की फास्ट-फॉरवर्ड लाईफ में सामान्यतया हर माता-पिता की भी यही इच्छा होती है कि उनके बच्चें मॉर्डन लाईफ स्टाईल के हिसाब से चलें । जहाँ संस्कारों का कोई नामो-निशान ही नहीं है। इसके विपरीत यदि जन्म से संस्कारों का बीजारोपण बच्चों में किया जाए तो उपरोक्त एक भी समस्या जीवन में घटित नहीं होगी। अब ये संस्कार कब, कहाँ, कैसे, किसलिए दिए जाए उस पर हम एक नज़र करेंगे। जीवन में संस्कारों का बीजारोपण कितना महत्त्वपूर्ण होता है उसे एक काल्पनिक कहानी के माध्यम हम देखेंगे। कहानी के मुख्य पात्र में जैन परिवार की दो सहेलियाँ है - सुषमा और जयणा । जैन परिवार की होने के बावजूद भी दोनों में जैन धर्म के अनुरुप संस्कार नहीं थे। दोनों की लॉईफ स्टाईल थोड़ी अलग थी। जयणा अपनी इच्छानुसार थोड़ा बहुत धर्म करती थी जैसे आठम-चौदस को रात्रिभोजन का त्याग करना, मंदिर 021 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन करने जाना आदि। लेकिन सुषमा तो पर्वतिथियों के दिन भी किसी प्रकार का त्याग नहीं करती थी। उसके जीवन में धर्म का नामोनिशान नहीं था। एक दिन जयणा मंदिर गई। वहाँ उसने “युवति संस्कार शिविर" की पत्रिका देखी। पत्रिका देखकर उसने सोचा कि “ मेरे जीवन में धर्म नहीं है और ना ही उसका ज्ञान। अत: इस शिविर के माध्यम से मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान मिलेगा। और वैसे भी अभी 10 दिन की छुट्टियाँ है।" ऐसा सोचकर उसे शिविर में जाने की भावना हुई। उसने यह बात अपनी खास सहेली सुषमा को बताई। जयणा - सुषमा! इन दस दिन की छुट्टियों में कहाँ जाने का प्लॉन है ? सुषमा - जयणा! अभी तक कुछ सोचा नहीं है। तुम्हीं बताओ, कहाँ चले माथेरान या गोवा? जयणा - नहीं सुषमा! इस बार हम घूमने नहीं जायेंगे। इस बार हम शिविर में जायेंगे। अभी-अभी मैं मंदिर में पत्रिका पढ़कर आई हूँ। बहुत ही अच्छा “युवति संस्कार शिविर" लग रहा है। सुषमा - क्या? शिविर! दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा। जयणा - चलो ना सुषमा! 10 दिन की ही तो बात है। हर बार घूमने ही तो जाते हैं। इस बार कुछ नया करेंगे। घूमना भी हो जायेगा और शिविर भी अटेण्ड हो जायेगी। सुषमा - जयणा! तुम जितना सोचती हो उतना आसान नहीं है। कॉलेज में एक भी लेक्चर अटेंड नहीं करने वाले हम 10 दिन वहाँ कैसे टिक पायेंगे ? मैंने तो सुना है कि शिविर में पाँच बजे उठाते है और एक भी क्लास बंक नहीं मार सकते। नहीं बाबा! तुम्हें जाना हो तो जाओ। मैं और रेशमा तो माथेरान जाने का सोच रहे हैं। जयणा - ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी। (जयणा ने अपनी 4-5 सहेलियों को फोन किया और सब शिविर में आने के लिए तैयार हो गई। सुषमा भी अपनी कुछ सहेलियों के साथ माथेरान घूमने चली गई।) (इधर एक दिन शिविर में क्लास के दौरान -) साहेबजी - साधु यदि रत्नत्रयी की उत्कृष्ट आराधना न भी करें तो भी श्रावकों की ऐसी धारणा होती है कि उन्हें कम से कम (Minimum level में) दो टाईम प्रतिक्रमण करना, पडिलेहन करना, टी.वी. नहीं देखना, गाड़ी में नहीं घूमना, गरम पानी पीना आदि का पालन तो करना ही चाहिए। साधु यदि इतना भी न करें तो उन्हें साधु मानने या हाथ जोड़ने का श्रावक को मन भी नहीं होता। अब आप ये बताईए कि प्रभु का संघ द्विविध या चतुर्विध? यदि साधु-साध्वी को Minimum level का पालन करना ही चाहिए तो श्रावक-श्राविका को भी Minimum level का पालन तो करना ही चाहिए ना ? तभी उन्हें जैन के रुप में मान सकते हैं। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणा - साहेबजी! श्रावक का Minimum level क्या है? साहेबजी - 'जन' शब्द के ऊपर दो मात्रा लगाने पर 'जैन' शब्द बनता है। यह दो मात्रा हमें (1) मन्दिरंपूजा (2) जिनवाणी श्रवण, इन दोनों का जीवन में आचरण तथा (1) रात्रिभोजन एवं (2) कंदमूल इन दोनों का सर्वथा त्याग करने का बोध देती है। यह श्रावक का Minimum level है। श्रावक को Minimum level में इन चार नियमों का पालन करना ही चाहिए। हम जन्म से तो जैन बन गये लेकिन अब जीवन भी ऐसा जीए कि हमें देखकर ही सामने वाले व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाए कि हम जैन है। आप किसी अन्य धर्मी के साथ धंधे का कोई व्यवहार कर रहे हो। उसी समय चउविहार का समय हो जाए और आप भोजन के लिए जल्दबाजी करे तो वह व्यक्ति तुरंत पूछेगा" क्या आप जैन है?" क्योंकि यह बात लोक-प्रसिद्ध है कि 'जैन' रात को नहीं खातें। इसी तरह आलू-प्याज़ आदि का त्याग करके भी जैन होने की छाप हम दूसरों पर लगा सकते हैं। हम जैन हैं। जैन होने का हमें गर्व हैं। जैन होने के नाते ही स्वामीवात्सल्य आदि में जाते हैं। मंदिरउपाश्रय में प्रभावना लेते हैं। यदि हम सम्यक्त्व मूल बारह व्रत धारी श्रेष्ठ श्रावक न बन सके तो कम से कम इन चारों बातों को जीवन में एवं परिवार में कड़काई से अपना कर अपने परिवार को सच्चे अर्थ में जैन बनाना चाहिए। 1. जिनमंदिर पूजा- प्रभु ने हम पर करुणा कर इस संसार-समुद्र से पार उतरने का उत्तम मार्ग बताया है। जिस प्रभु की कृपा से हमें सब-कुछ मिला है। उन प्रभु के दर्शन-पूजन कर हमें उनके प्रति कृतज्ञ भाव व्यक्त करना चाहिए। सामान्य से दया को धर्म का मूल कहा गया है। लेकिन यदि हम सूक्ष्मता से विचार करे तो दया की अपेक्षा कृतज्ञ-भाव को धर्म का मूल कहा जा सकता है। यदि हमें दया-धर्म को सिखाने वाले प्रभु के प्रति कृतज्ञ-भाव (विनय-भाव) नहीं होंगे तो दया-धर्म हमारे जीवन व्यवहार में कैसे आ सकता है? इसलिए जैन होने की पहली पहचान है मंदिर जाना, पूजा करना एवं वहाँ जाकर जिनाज्ञा को शिरोधार्य करने के रुप तिलक लगाना। मंदिर जाने वाला ही तिलक लगाता है। इसलिए तिलक यह जैन श्रावक का चिन्ह है। (जिन मंदिर एवं जिन पूजा की विस्तृत विधि आपको इस कोर्स के दूसरे खंड में सिखाई जायेगी।) 2. जिनवाणी श्रवण - गुरु भगवंत व्याख्यान द्वारा परमात्मा की वाणी सुनाते है। उसे सुनने पर हमें क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए? उसका ज्ञान होता है। एवं गुरु मुख से सुनी हुई वाणी का जीव पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जिससे उसे आचरण में लाने के परिणाम पैदा होते है। अत: जैन होने की दूसरी पहचान है जिनवाणी श्रवण करना। (जैनिज़म कोर्स भी जिनवाणी श्रवण का ही एक प्रकार है। इसमें भी गुरु Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवंत द्वारा जिनवाणी ही आप तक पहुँचाई जाती है।) अब आती है बात रात्रिभोजन एवं कंदमूल त्याग करने की। जयणा - पूजा और जिन वाणी श्रवण तक तो ठीक है लेकिन साहेबजी! भगवान ने श्रावक के Minimum level के लिए रात्रिभोजन और कंदमूल के त्याग को ही इतनी मुख्यता क्यों दी? दूसरी कई चीज़े थी जैसे कि हिंसा का त्याग, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना आदि। खाने के मामले में ही इतनी पाबंदी क्यों ? साहेबजी- जयणा! तुमने सुना ही होगा "जैसा खाए अन्न वैसा होवे मन"। इस कहावत के अनुसार किसी भी कार्य में सबसे महत्त्वपूर्ण है मन। मन को विशुद्ध रखने के लिए जरुरी है शुद्ध भोजन। यदि मन विशुद्ध होगा तो ही हम अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का पालन कर सकेंगे। जीवन जीने के लिए मनुष्य को आहार की आवश्यकता होती है अर्थात् जीवन जीने में उपयोगी तत्त्व आहार है। शरीर को टिकाने का साधन आहार है। लेकिन आहार जब आहार संज्ञा का रुप धारण कर लेता है तब वह आत्मा को भारी नुकसान करता है। इसलिए आज की इस क्लास में हम आहार शुद्धि के बारे में विचार करेंगे। आहार क्या है? आहार संज्ञा क्या है ? यह आहार कैसा होना चाहिए? खाने जैसा क्या है ? नहीं खाने जैसा क्या है ? ये सारे विचार करना ही आहार शुद्धि कहलाती है। __ शरीर के लिए उपयोगी एवं योग्य आहार की ही जरुरत होती है। जो शरीर को नुकसान न करे वह है उपयोगी आहार। जो आत्मा और मन को नुकसान न करे वह है योग्य आहार। * विवेक पूर्वक परमात्मा की आज्ञानुसार मात्र शरीर को टिकाने के लिए जो खाते हैं। उसे आहार कहते हैं। अर्थात् जीने के लिए खाना आहार है। * आसक्ति एवं राग पूर्वक भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक किए बिना खाना उसे आहार संज्ञा कहते है अर्थात् खाने के लिए जीना, यह आहार संज्ञा है। आहार से शरीर स्वस्थ एवं अपने कार्य में समर्थ बनता है। जबकि आहार संज्ञा से शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं एवं मन में दोष उत्पन्न होते हैं। आहार संज्ञा के लोभ में जीव भक्ष्य (खाने योग्य) एवं अभक्ष्य (नहीं खाने योग्य) आहार का भी विचार नहीं करता। तथा कर्मबंध कर नरक निगोद में दुःख भोगता है। इस दुःख से मुक्त होने के लिए अभक्ष्य आहार को समझकर छोड़ना जरुरी है। अभक्ष्य बावीस होते हैं, इन 22 अभक्ष्य में रात्रिभोजन को नरक का नेशनल हाईवे कहा गया है। प्रभु ने रात्रिभोजन के अनेक नुकसान देखकर आत्महित के लिए रात्रिभोजन का त्याग करने की आज्ञा फरमाई है। सूर्यास्त से सूर्योदय तक जो भोजन करने में आता है उसे रात्रिभोजन कहते हैं। 020 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणा- साहेबजी! आज के ज़माने में आप मन शुद्धि तथा आहार शुद्धि की बातें करेंगे तो शायद ही कोई मानेगा। यदि आप वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सचोट जवाब दे तो हम माने कि हाँ, सचमुच रात्रिभोजन करने जैसा ही नहीं है। साहेबजी- हाँ जयणा! तुम्हारे इस प्रश्न का भी जवाब मेरे पास है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार:* सूर्यास्त के बाद सूक्ष्म जंतु चारों ओर उड़ने लगते है। ये सूक्ष्म जंतु फोकसलाईट के प्रकाश में खुली आँखों से भी नहीं दिखतें। * सूर्यास्त के बाद डॉक्टर भी मेजर ऑपरेशन नहीं करते। वे भी मेजर ऑपरेशन के समय डे-लाईट (सूर्य-प्रकाश) की अपेक्षा रखते है। क्योंकि सूक्ष्म जंतु ऑपरेशन के समय शरीर के खुले भाग में चिपक जाए तो ऑपरेशन निष्फल हो जाता है। * रात के समय भोजन पर भी ये सूक्ष्म जंतु चिपक जाते हैं और खाने के साथ-साथ पेट में चले जाते हैं। जिससे शरीर रोगग्रस्त बन जाता है। * इसी प्रकार भोजन के पाचन के लिए जरुरी ऑक्सीजन का प्रमाण सूर्य की उपस्थिति में ही मिलता है। क्योंकि पेड़-पौधे दिन में कार्बनडाई-ऑक्साईड ग्रहण करके ऑक्सीजन छोड़ते हैं। * रात में होजरी का कमल मुरझा जाता है जो सूर्योदय के साथ खुलता है। इसलिए रात्रि में किया हुआ भोजन सुपाच्य नहीं होता। सुबह होजरी का कमल थोड़ा खिलता है। इसलिए हल्का नाश्ता लिया जाता है। दोपहर तक होजरी का कमल पूर्णत: खिल जाता है, तब पूरी खोराक ली जाती है और वह सुपाच्य बनती है। * हजारों लाईट का प्रकाश होने पर भी कमल नहीं खिलता। वह तो सूर्य के प्रकाश से ही खिलता है। इससे पता चलता है कि सूर्य का कार्य सूर्य ही कर सकता है। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण मैं तुम्हें बताती हूँ- अपने ही जैन समाज की एक लड़की अट्ठाई का पारणा करके रविवार की रात को लॉरी पर पानीपुरी खाने गयी। उसने पानीपुरी खायी। पानीपुरी के साथ एकाध जिंदी लट उसके पेट में चली गई। जिससे सबेरे उठते ही उसके पूरे शरीर, आँख, कान, नाक, नाभि, मुँह आदि छिद्रों से लटें निकलने लगी। उसकी जाँच करवाने पर डॉक्टर ने कहा - इसका मरण के सिवाय दुसरा कोई इलाज़ नहीं है। अर्थात् रात्रि में सूर्य का प्रकाश न होने के कारण एवं वहाँ बिना छाना हुआ पानी, बासी घोल, कई दिनों के आटे से बनी हुई वस्तुएँ होने से उन पदार्थों में न जाने कैसे-कैसे सूक्ष्म जीव-जंतु होते हैं जो आज नहीं तो थोड़े दिन बाद हमें धोखा देने वाले ही है। जयणा - (चौंककर) क्या ? एक बार रात्रिभोजन करने का इतना बुरा परिणाम? Q25 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहेबजी - इतना ही नहीं जयणा ! यह तो हुई वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात । परंतु इसी के साथ-साथ तुम यदि अपने शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखोगी तो तुम्हें पता चलेगा कि परमात्मा ने रात्रिभोजन त्याग की आज्ञा कर हम पर कितना बड़ा उपकार किया है। जयणा - हाँ ! साहेबजी. ! अब तो मुझे भी यह बात जानने की बड़ी उत्सुकता है। साहेबजी - तो सुनो शास्त्रीय दृष्टि से रात्रिभोजन त्याज्यः शासन नायक वीरजी ए, पामी परम आधार तो, रात्रि भोजन मत करो ए, जाणी पाप अपार तो, धुवड, काग ने नागनाए, ते पामे अवतार तो, नियम नोकारशी नित करो ए, सांझे करो चउविहार तो । * देवता दिन के प्रथम भाग में, ऋषि मध्यान्ह में, पितृ देव तीसरे भाग में, और दानव चौथे भाग में खाते है। राक्षस रात्रि में खाते है अर्थात् रात्रि में राक्षस के खाने का समय होता है मनुष्य का नहीं । यदि हम रात्रि में भोजन करते है तो राक्षसों के द्वारा हमारे आहार को अदृश्य रुप से झूठा करने की संभावना रहती है। * जब घर में एक व्यक्ति मर जाता है, तब शोक मनाया जाता है तथा खाना नहीं खाते। तो फिर दिन का पति (सूर्य) अस्त हो जाने पर रात्रि में भोजन कैसे कर सकते है ? चिड़ियाँ, तोता, कौआ, कबूतर, मोर आदि पक्षी भी सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते । चाहे कितनी भी लाईट का प्रकाश हो फिर भी वे न तो उड़ते है और न ही खाते हैं। इन पक्षियों को किसी धर्मंगुरु ने रात्रिभोजन त्याग का नियम नहीं दिया। परंतु कुदरती ही ये पशु-पक्षी रात्रिभोजन को त्याग देते हैं । रात्री भोजन करने वाले मनुष्य के पास एक पक्षी जितनी भी समझ नहीं होती है। * सूर्य के प्रकाश में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। क्योंकि सूर्य का प्रकाश सूक्ष्म जीवों के लिए अवरोधक तत्त्व है। रात्रि में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति अधिक मात्रा में होने से सूक्ष्म-जीव-जंतु भोजन में गिर जाए तो भी दिखाई नहीं देते। * रात्रिभोजन करते समय खाने में चींटि आने से बुद्धि भ्रष्ट, जूँ से जलोदर, मक्खी से उल्टी, मकड़ी से कुष्ट रोग, काँटा या लकड़ी के टुकड़े से गले में वेदना, बाल से स्वर भंग होता है। * रात्रिभोजन करने वाले मनुष्य परभव में नरक या छट्ठे आरे में अथवा उल्लू, कौआ, बिल्ली, गिद्ध, भूंड, साँप, बिच्छू के भवों में जन्म लेते हैं। जयणा - साहेबजी.! रात्रिभोजन करने के परिणाम सुनकर मेरी आत्मा तो काँप उठी है। मुझे तो डर है कि 026 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज तक मैंने इतनी बार चाव से रात्रिभोजन किया है तो मेरी क्या गति होगी ? परंतु साहेबजी यह छट्ठा आरा क्या होता है ? साहेबजी - जयणा ! छट्टा आरा यह कालचक्र का एक भाग है। यह कालचक्र क्या है ? इसका विवरण तो तुम्हारी तत्त्वज्ञान की क्लास में आयेगा ही । फिर भी मैं तुम्हें संक्षेप में छट्ठे आरे का वर्णन सुनाती हूँ उसकी भयंकरता को देखकर तुम अभी ही रात्रिभोजन के त्याग का नियम ले लो। जयणा ! ध्यान से सुनो। इसी कालचक्र के पांचवें आरे के अंत में अग्नि की बारीश होगी और उसमें भरत क्षेत्र के बहुत से लोग जल जायेंगे। कुछ लोग वैताढ्य पर्वत के बिल में जाकर रहेंगे। वहाँ पर मनुष्य का शरीर एक हाथ का और आयुष् 20 वर्ष का होगा। दिन में सख्त ताप, रात में भयंकर ठंडी पड़ेगी। बिलवासी मानव सूर्योदय के समय मछलियाँ और जलचरों को पकड़कर रेती में दबायेंगे। दिन के प्रचण्ड ताप में भून जाने पर रात में उसका भक्षण करेंगे। परस्पर क्लेश करने वाले, दीन-हीन, दुर्बल, रोगिष्ट, अपवित्र, नग्न, आचारहीन और माताबहन-पत्नी के प्रतिं विवेकहीन होंगे। छ: वर्ष की बालिका गर्भधारण कर बालकों को जन्म देगी। सुअर के सदृश अधिकाधिक बच्चें पैदाकर महाक्लेश का अनुभव करेगी। अतिशय दुःख के कारण अशुभ कर्म उपार्जन कर नरक-तिर्यंचादि गति प्राप्त करेंगे। इस आरे में दुःख ही दुःख है। • जिसे छट्ठे आरे में जन्म धारण न करना हो उसे जीवनभर रात्रिभोजन, कंदमूल आदि का त्याग करना अति आवश्यक है। अन्यथा रात्रिभोजन, कंदमूल आदि के कुसंस्कार वाले छट्ठे आरे में जन्म धारण करने के फल स्वरुप अनेकविध कष्ट, दुःख और यातनाओं के भागी बनेंगे। इस प्रकार कषाय की परंपरा से दुःखों की परंपरा का सर्जन होता है। जयणा - बस, साहेबजी. ! मेरी आत्मा इन सब दुःखों को सहन करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। आप मुझे इसी वक्त आजीवन रात्रिभोजन त्याग का नियम दे दीजिए। साहेबजी - जयणा ! तुम्हें धन्यवाद है, जो तुमने आज सच्चे मार्ग को अपनाने के लिए इतना बड़ा पराक्रम किया। (शिविरार्थियों को संबोधित करते हुए) आप लोग भी जयणा का उदाहरण लेकर अपने जीवन में त्याग धर्म को अपनाएँ। ( जयणा को देखकर बहुत सारी लड़कियों का भी उत्साह बढ़ा। और बहुत-सी शिविरार्थियों ने यथाशक्ति भोजन त्याग करने का नियम लिया ।) जयणा - साहेबजी.! मैंने रात्रिभोजन त्याग का नियम तो ले लिया। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं दृढ़तापूर्वक तथा शुद्ध रीति से इस नियम को पाल सकूँ। इसके लिए मुझे क्या-क्या सावधानियाँ रखनी Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ेगी यह बताने की कृपा करें। साहेबजी- जयणा! जब हम त्याग के मार्ग पर बढ़ते हैं, तब देव-गुरु के आशिष हम पर सदा बरसते है। रात्रिभोजन त्याग के नियम में निम्न सावधानियाँ रखनी अति आवश्यक है:* रात्रिभोजन के त्यागी व्यक्ति सूर्यास्त के 5 मिनट पहले ही मुँह साफ कर ले। सूर्यास्त के अंत समय तक पानी पीने से, खाना खाने से, दवाई लेने से “लगभग वेलाए व्यालु कीधु' यह अतिचार लगता है। * नौकरी-धंधा करने वालों को भी रात्रिभोजन का त्याग करना ही चाहिए। इसलिए उन्हें शाम के भोजन का टिफिन साथ में लेकर जाना चाहिए। यह न हो सके तो आजकल हर जगह चउविहार हाऊस की व्यवस्था है। वहाँ भोजन कर अपने रात्रिभोजन त्याग के नियम को अखंड रख सकते है। रविवार के दिन तो छुट्टी होने से रात्रिभोजन का त्याग करना ही चाहिए। * रात्रिभोजन के त्यागी यदि चउविहार का पच्चक्खाण न कर सके तो तिविहार के पच्चक्खाण के द्वारा रात्रि में 10 बजे के पहले बैठकर तीन नवकार गिनकर पानी पी सकते है। जयणा - साहेबजी.! अब तो मैंने नरक में जाने का हाईवे बंद कर दिया है। अब तो मैं नरक में नहीं जाऊँगी ना? साहेबजी- नहीं जयणा! अभी तक कई रास्ते खुले है। मैंने तुम्हें बताया था कि श्रावक के Minimum level में रात्रिभोजन त्याग के साथ कंदमूल त्याग भी अति महत्त्वपूर्ण है। जयणा - साहेबजी.! कंदमूल में ऐसा क्या है कि हम उसे नहीं खा सकते ? साहेबजी- जयणा! “अहिंसा परमो धर्मः" यह हमारा श्रेष्ठ धर्म है। सबसे श्रेष्ठ अहिंसामय जीवन तो साधु जीवन ही है। परंतु विरति नहीं ग्रहण करने वाले श्रावकों के लिए कम-से-कम हिंसा हो ऐसा मार्गानुसारी जीवन प्रभु ने बताया है। खाने के संबंध में भी हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमें भोजन भी ऐसा ही बनाना चाहिए जिसमें कम-से-कम जीवों की हिंसा हो। जैसे कि सर्वप्रथम तो संपूर्ण हरी वनस्पति का त्याग करना चाहिए। लेकिन मान लो कि हरी वनस्पति के बिना न चले तो हमें ऐसी वनस्पति ही उपयोग में लेनी चाहिए जिसमें कम हिंसा हो यानि कि प्रत्येक वनस्पति। जैसे भींडी, मटर, लौकी (दूधी)आदि। लेकिन अपने स्वाद के लिए अनंत जीवों के संहार करने वाले अनंतकाय यानि आलू, प्याज़, गाजर, मूला, शकरकंद आदि जमीनकंद का त्याग तो करना ही चाहिए। एक सुई को आलू के अंदर डालकर निकालने पर उस सुई के अग्रभाग पर जो आलू का कण होता है उस छोटे से कण में असंख्य शरीर रहे हुए हैं। हर एक शरीर में अनंत जीव (आत्मा) रहे हुए हैं। यदि कोई Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जादू से मात्र एक शरीर में रहे हुए अनंत जीवों को कबूतर जितना बना दें तो वे पूरे विश्व में नहीं समा पायेंगे। यह तो हुई आलू के एक कण में रहे एक शरीर की बात। अब तुम ही सोचो जयणा कि एक आलू के टुकड़े में कितने जीव होंगे? और एक पूरे आलू में कितने जीव होंगे? एक बात विशेष ध्यान में रखने जैसी है कि जीव के जैसे भाव होते है वैसा ही भव मिलता है। जैसी मति होती है वैसी गति मिलती है। एक भाई चौदस के दिन घर पर भोजन करने आया। उसकी पत्नी धार्मिक थी। इसलिए उसने सूकी सब्जी बनाई। भाई अधर्मी था। उसने कहा- "मैं यह सब्जी नहीं खाऊँगा। मुझे तो अभी ही आलू की सब्जी चाहिए।" बहन ने खूब समझाया। फिर भी वह नहीं माना। मुझे चौदस से कुछ लेना-देना नहीं है। मुझे तो आलू ही चाहिए। पत्नी ने रोते-रोते सब्जी बनाकर दी। भाई ने जैसे ही सब्जी खाने के लिए रोटी का टुकड़ा लिया वहीं पर हार्ट अटेक से मर गया। यमराज के सामने किसी की भी नहीं चलती। आप कल्पना कीजिए कि वह भाई मरकर कहाँ गया होगा? 1. फ्रीज का पानी पीते-पीते आयुष्य बंध हो जाये तो - अप्काय (पानी) में जन्म, 2. गरमा-गरम चाय पीते-पीते आयुष्य बंध हो जाये तो - तेउकाय (अग्नि) में जन्म, 3. ए.सी. की ठंडी हवा खाते-खाते आयुष्य बंध हो जाये तो-वायुकाय (हवा) में जन्म होने की संभावना रहती है। ___ मरते समय उस भाई का मन आलू में ही रह गया था "जैसी मति वैसी गति" इस युक्ति से संभव है कि उनका जन्म आलू में हुआ होगा। आलू में जन्म लेने वाले जीव की दशा जानकर तो तुम काँप उठोगी। आलू अनंतकाय है। जहाँ एक श्वास में 18 बार जन्म और 17 बार मरण होता है। * आलू के एक शरीर में अनंत जीव होते हैं। यदि अपने शरीर में एक प्रेत आत्मा प्रवेश करे तो भी हम सहन नहीं कर सकते। तो अनंत जीवों को एक साथ में श्वास लेना छोड़ना आदि कितना दुःखद होता होगा। * वहाँ एक बार जन्म लेने के बाद कम-से-कम अनंत भव तो करने ही पड़ते हैं। उसके बाद ही वहाँ से दूसरी गति में जा सकते हैं। * यदि जीभ के तुच्छ स्वाद के लिए ऐसी गतियों में अनंत दुःख को सहन नहीं करना हो तो आप लोग आज और अभी से ही कंदमूल का त्याग कीजिए। जयणा - साहेबजी.! मुझे ना तो ऐसी कोई गति में जाना है ना नरक-निगोद में घूमना है और ना ही छठे आरे में भटकना है। मैंने आजीवन कंदमूल त्याग करने का निर्णय ले लिया है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहेबजी- यह तो बहुत ही अच्छी बात है क्योंकि जयणा तीन सौ वर्ष पूर्व रचे ‘धर्मसंग्रह' नामकग्रंथ में आवश्यक चूर्णि के पाठ के अधिकार में बताया है कि "उत्सर्ग मार्ग से श्रावक स्वयं के निमित्त से हिंसा करके बनाएँ हुए भोजन का त्याग करें। यदि यह नहीं हो सके तो स्वयं के निमित्त से बने हुए भोजन को ग्रहण करें; परंतु उसमें किसी भी प्रकार का सचित्त(जीवयुक्त) आहार ग्रहण न करें। यदि यह भी न कर सके तो अनंतकाय वाली वनस्पति तथा बहुबीज जैसी वनस्पति का तो अवश्य त्याग करें। कभी यदि जंगल में मार्ग भूल जाए या दुष्काल पड़ा हो तो ऐसी परिस्थिति में भी श्रावक को अचित्त (जीव रहित) भोजन ही करना चाहिए। ऐसे पदार्थ न मिलें तो उपवास कर लेना चाहिए। परन्तु यदि ऐसी शक्यता न हो और प्राणों की रक्षा के लिए भोजन करना भी पड़े तो सचित्त फल आदि खाए। परन्तु अनंतकाय-कंदमूल को तो ऐसे समय में भी न खाए।” कहने का सार इतना ही है कि जंगल और अकाल में भी जिन पदार्थों के भक्षण का शास्त्रों में निषेध किया गया है। उन पदार्थों को यदि मानव अपनी तंदरुस्ती एवं पूरे होशो-हवाश में बड़े चाव से खाए तो यह समझ लेना चाहिए कि उसके दिल-दिमाग में से नरक का भय निकल गया है। जयणा! इस बात को ध्यान में रखकर पूरी दृढ़ता पूर्वक एवं उत्साह से नियम का पालन करोगी तो मोक्ष दूर नहीं रहेगा। जयणा - साहेबजी आपकी कही बात का मैं पूर्णतया ध्यान रखूगी। पर साहेबजी.! अनंतकाय में आने वाली अदरक और हरी हल्दी सूक जाने के बाद सूंठ और हल्दी के रुप में उसका उपयोग हर कोई करता है। यहाँ तक कि साधु-साध्वी भगवंत भी झूठादि वहोरते हैं तो क्या इसी प्रकार आलू की वेफर भी खा सकते है? साहेबजी- नहीं जयणा! अदरक तथा हरी हल्दी अनंतकाय होने के कारण शास्त्रों में इन्हें खाने का निषेध किया है। परंतु ये चीज़े सूक जाने के बाद इनका उपयोग औषध के रुप में कर सकते है। पूरी जिंदगी में व्यक्ति खा-खाकर कितनी सुंठ खायेगा और उसे खाते समय भी आसक्ति की कोई शक्यता नहीं रहती। इसके विपरीत आलू की वेफर बनाने में कितना आरंभ-समारंभ करना पड़ता है। तथा आलू की वेफर व्यक्ति एक दिन में चाहे तो एक किलो भी खा सकता है। तथा खाते समय आसक्ति होना भी निश्चित है। आलू यदि ऐसे ही पड़े रहे तो भी बारह महीने तक हरे ही रहते है अपने आप नहीं सूकते। यदि सूंठ की भी सब्जी बनती होती तो भगवान उसके लिए भी निश्चित मना करते। इन सब कारणों से आलू की वेफर खाने का निषेध किया गया है। जयणा - साहेबजी.! किन शब्दों में आपका आभार व्यक्त करूँ? आज आपने इतनी छोटी-छोटी बातें बताकर हमें दुर्गति में जाने से बचाया हैं। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहेबजी - जयणा! श्रावक के Minimum level में रात्रिभोजन एवं कंदमूल त्याग बताया है, तो इसके साथ एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि 'होटल' एक ऐसा स्थान है जहाँ व्यक्ति रात्रिभोजन एवं कंदमूल दोनों पाप साथ में करता है। अतः श्रावक के Minimum level में होटल का त्याग करना भी उतना ही आवश्यक है। ___हर एक व्यक्ति यही चाहता है कि मेरा देह निरोगी बने। लेकिन अफसोस बुद्धिमान कहलाने वाला इंसान भी शरीर से हार कर दर्द से कराहता हुआ हॉस्पीटल के चक्कर काट-काटकर अपनी जिंदगी पूरी कर रहा है। आइये, हम उन कारणों की तलाश करें कि ऐसा क्यों होता है ? गहराई से सोचने पर काफी चौंकाने वाला सत्य नज़र आ रहा है और वह है 'होटल'। 'होटल' शब्द स्वयं यह बोध देता है कि मेरे पास 'हो' कर 'टल' जाओ। यदि आप फिर भी होटल का यह उपदेश नहीं मानेंगे तो समझ लीजिए कि हॉस्पीटल के बेड एवं डॉक्टर आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। एक दिन सुबह 5 बजे म. साहेब विहार कर रहे थे। तब एक होटल वाला आदमी पत्थर धोए बिना चटनी पीसने लगा। यह देखकर साहेबजी ने उसे पूछा कि “भाई! तुम पत्थर क्यों नहीं धो रहे हो?" उसने कहा कि “चटनी के पत्थर को धोये 6 महिने हो गये है। नहीं धोने पर इसमें सड़ा जीवात उत्पन्न होता है और वह जीवात चटनी के साथ पीसने से चटनी खूब टेस्टी बनती है। यदि हम पत्थर धोकर चटनी बनाएँगे तो हमारी और घर की चटनी में कोई फर्क नहीं रहेगा। अर्थात् हमारा धंधा नहीं चलेगा। लोग हमारे यहाँ चटनी खाने के लिए ही तो आते हैं।' होटल की चटनी एवं इटली आदि का घोल एवं घोल के बर्तन कई दिनों से पड़े रहते हैं। उसमें मक्खी-मच्छर, चींटियाँ आदि मसाले के रुप में आ जाते हैं। उससे चटनी में मादकता (एल्कोहल) आती हैं। एक दिन चिंटू अपनी मम्मी-पापा के साथ होटल गया। टमाटर के जूस का ओर्डर दिया। तीन ग्लास जूस आया। चिंटू का होटल में नहीं खाने का नियम था, फिर भी मम्मी ने मारकर जूस पीने को कहा। तब उसने जैसे ही ग्लास हाथ में लेकर अंगुली से अंदर रहे हुए टमाटर का टुकड़ा लेना चाहा, तो हाथ में टमाटर के टुकड़े के बदले मुर्गी के मांस का टुकड़ा आया। होटल वाले को बुलाया। तब मालूम पड़ा कि बाहर से वे जैन शुद्ध शाकाहारी बोलते हैं। लेकिन अंदर सब मिश्र होता है। अत: होटल का त्याग करना चाहिए। जयणा - नहीं साहेबजी.! आपके इन दृष्टांतों से मैं सहमत नहीं हूँ। हम खुद ही देखते है कि हमारे सामने ही गरमागरम ताज़ा और शुद्ध खाना बनता है तो फिर हम इसका त्याग क्यों करें ? Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहेबजी- जयणा! अब तक तो मैं तुम्हें दूसरों के दृष्टांत द्वारा समझाती आई हूँ, परंतु अब मैं तुम्हें अपना निजी अनुभव बताती हूँ। मेरी बात सुनकर शायद तुम होटल की तरफ देखना भी पसंद नहीं करोगी। ___एक 'जैन होटल' का मेनेज़र मुझे वंदन करने आया। मैंने वासक्षेप डालकर पूछा - मुझे आपसे होटल के विषय में कुछ जानकारी चाहिए। क्या आप मुझे बताएंगे? मेनेजर- क्यों नहीं साहेबजी! आप तो त्यागी-तपस्वी है। आपसे छुपाने जैसा क्या है? साहेबजी- आपके होटल में तेज़ी और मंदी कब आती है? मेनेजर - साहेबजी! वैसे तो हमारी होटल हमेशा तेजी से चलती है। क्योंकि आज किसी का जन्मदिन होता है तो कल किसी की सालगिरा तो परसो किसी का सगाई समारोह। और आपको तो पता ही होगा कि ऐसे प्रसंगों में घर पर तो खाना बनाते ही नहीं। इसलिए हमारी होटल बराबर चलती रहती है। लेकिन हाँ.... जब आपका चातुर्मास शुरु होता है। तब दो महिने हमारे यहाँ मंदी अवश्य आ जाती है। उसमें पर्युषण में तो होटल बिल्कुल बंद-सी हो जाती है। साहेबजी- क्यों ? उस समय अन्य धर्मी तो आते ही होंगे ना? मेनेजर - नहीं साहेबजी! जितनी संख्या होटल में जैनों की होती है। उतनी अन्य धर्मी की नहीं होती। 75% तो जैन ग्राहकों से ही हमारा धंधा चलता है। साहेबजी- चातुर्मास में आपको इतना अधिक नुकसान होने पर हम जैसे साधु-संतों पर आपको गुस्सा तो आता ही होगा क्योंकि हम व्याख्यान-शिविर आदि में जोर-शोर से होटल त्याग करने का उपदेश देकर आपके ग्राहकों को तोड़ते हैं। मेनेजर - बिल्कुल नहीं साहेबजी! मैं स्वयं भी जैन हूँ। कोई होटल त्याग करके धर्म का पालन करे तो मैं क्यों गलत सोचूँ। मैं तो स्वयं उसकी अनुमोदना करता हूँ। मैं स्वयं होटल के नुकसानों से भली-भांति परिचित हूँ। इसलिए मैं कभी भी होटल का खाना नहीं खाता। मेरे लिए तो प्रतिदिन घर की ताज़ी रसोई बनकर आती है। साहेबजी- अरे .... ! होटल का मालिक और होटल के नुकसान समझे तथा होटल नहीं आनेवालों की अनुमोदना करें, यह बात दिमाग में नहीं बैठती। और चातुर्मास में होटल में मंदी आ जाए उसका भी आपको कोई गम नहीं? मेनेजर - साहेबजी! मुझे तो कोई नुकसान नहीं होता। क्योंकि आप जितना त्याग का उपदेश देते हो। दो महिनें तो आपकी उन मर्यादाओं का पालन सभी कर लेते है लेकिन पर्युषण पूर्ण होते ही भूखे-भेड़िए की Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहेबजी - चलो, आपकी यह बात तो समझ में आ गई। पर आप मुझे यह बताईए कि होटल में तो प्रतिदिन गरमा-गरम ताज़ी रसोई बनती होगी, तो फिर आप स्वयं घर के खाने का आग्रह क्यों रखते है ? मेज़र - आपको होटल की क्या बात कहूँ। कुछ कहने जैसा नहीं है। लेकिन जब आपने पूछ ही लिया है तो आपकी बात मैं टाल भी नहीं सकता। तो सुनिए... हम तो धंधा लेकर बैठे हैं। होटल हमारे लिए पैसे कमाने का साधन है। इसलिए हम ऐसी चीजें लाते हैं, जो सस्ती हो । जैसे कि: 1 1. मार्केट से अंत में बची हुई साग-सब्जी ले आते हैं, चाहे वह सड़ी हुई हो या जीव जंतु वाली हो। नौकर लोग उसे सस्ते में खरीद लाते हैं। जैसे मार्केट से लेकर आते हैं वैसे ही सीधा उन्हें काट कर सब्जी तैयार कर दी जाती है। कौन परवाह करे उन छोटे-छोटे जीव-जंतु की ? किसके पास है इतना समय कि बैठकर उसे यापूर्वक सुधारें। 2. इसी प्रकार बाज़ार से हल्का धान्य (सड़ा-गला) खरीदकर साफ किए बिना ही सीधा आटा बना देते हैं। यदि हम नौकरों के पास छान बिन कराए तो होटल में रसोई कौन बनाए ? एवं मजदूरी लगे वह अलग। 3. होटल में रसोई घर under ground होता है। वहाँ अंधेरा होने से लाईट में ही रसोई आदि काम करना पड़ता है। होटल में चौबीसों घंटे ग्राहक होने के कारण नौकरों को सतत रसोई बनाने का काम रहता है। और रसोई-घर के पास में ही लेटरिन - बाथरुम होता है। रसोई बनाते-बनाते यदि बीच में लघु शंका या बड़ी शंका हो जाए तो बीच में ही निपटाकर आ जाते हैं। हाथ धोने का तो कोई काम ही नहीं । रसोई घर की गर्मी एवं सतत रसोई का काम करने के कारण शरीर पसीने से लथपथ हो जाता है। शरीर का पसीना, बीड़ी-सिगरेट का धुआँ एवं अंधेरे में मच्छर-मक्खी आदि भोजन में गिरकर मानो मसाले का काम करते हो । 4. ग्राहक ज्यादा होने के कारण आटा भी हाथ से न गूंथकर पैरों से ही गूंथते हैं। 5. हर चीज़ में पानी अलगन ही उपयोग किया जाता है। यहाँ तक की पीने का पानी भी अलगन ही होता है। 6. इतना ही नहीं साहेबजी! इटली-वडे आदि का घोल बच भी जाए तो उसे दूसरे दिन काम में लिया जाता है। कभी-कभी तो 4-5 दिन तक उसका उपयोग होता रहता है। साग-सब्जी आदि बच भी जाए तो दूसरे दिन गरम करके उपयोग में ले लेते हैं। एक भी चीज़ बाहर फेंकने का तो सवाल ही नहीं उठता। और एक भी बर्तन हुए नहीं होते। 7. यदि दूध आदि किसी वस्तु में चूहा, कोकरोच या छिपकली गिर जाए तो नौकर उसे चिमटे से पकड़कर 033 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । बाहर फक दत हा लाकन पगार के पैसे कट हाँ जान के भय से दूध आदि की बाहर नहीं फेकत। फिर उसी दूध में मसाला डालकर स्पेशल चाय बनाकर ग्राहकों को पिलाते है। 8. साथ ही महिनों तक साग-सब्जी आदि बनाने के बर्तन नहीं धोते, क्योंकि दूसरे दिन पुन: उन्हीं बर्तनों में रसोई बनानी होती है। अब आप ही बताईए साहेबजी यह सब साक्षात् आँखों से देखने वाला मैं भला होटल की रसोई कैसे खा सकता हूँ? साहेबजी- बाप रे बाप! आपकी बातें सुनकर तो मेरा हृदय कांप उठता है कि हमारे जैन भाई क्या ऐसा खाना खाने होटल जाते है? लेकिन मेरे दिल में एक शंका उठती है कि यदि सब माल हल्का, सब काम हल्का तो ऐसी रसोई से लोग आकर्षित क्यों होते है? होटल में ऐसा आप क्या कर देते हो जिससे लोग स्वाद के लिए आपकी होटलों पर टूट पड़ते हैं। मेनेज़र - आज की दुनिया ने स्वाद के लिए क्या बाकी रखा है? एक बात मैं आपको बता दूं कि वर्तमान में मसाला प्रिय लोगों को मूल में साग-सब्जी, धान्य या बासी से कुछ लेना देना नहीं होता। वस्तु उत्तम क्वालिटी की हो या हल्की क्वालिटी की मात्र उस पर अच्छे-अच्छे colourful एसेन्स, Flavour आदि डाल दें, थोड़ी काकड़ी, टमाटर सजा दें एवं मसाला डाल दे तो चीज़ दिखने में आकर्षित तथा इतनी सुगंधी बन जाती है कि भल-भला व्यक्ति भूखे भेड़िए की तरह उस पर टूट पड़ता है। साहेबजी- आपने आपके होटल की सारी कहानी खुली किताब की तरह मेरे सामने खोलकर रख दी। क्या आपके मन में यह डर नहीं उठता कि यदि मैं व्याख्यान या किसी लेख में यह बात लिख दूँ तो आपकी होटल का क्या होगा? मेनेजर - मेरे मन में बिल्कुल डर नहीं है। वैसे आपने मेरी होटल का नाम तो पूछा ही नहीं है। मेरी बातों से आपको जनरल होटल में क्या होता है उसका सचोट ज्ञान हो गया है लेकिन इसमें डरने जैसी क्या बात है? क्योंकि इस वर्ष चातुर्मास में मैंने आपके प्रवचनों में जीव मात्र पर मैत्री एवं करुणा रखने वाले देवाधिदेव का स्वरुप एवं उनकी भावना सुनी है। सुनते-सुनते कई बार मेरे होटल में होने वाली जीव हिंसा का दृश्य मेरी आँखों के सामने तैर आता था। उस समय कई बार मुझे यह धंधा बंद कर देने का मन हो जाता था। लेकिन लोभ वश में इतना साहस नहीं कर पाया। मेरे मन में अपने जैन भाईयों के शरीर-मन और आत्मा को नुकसान पहुँचाने में भागीदार बनने का पाप सतत डंक दे रहा है। आपकी कृपा से यदि सहज रुप से ही हमारे जैन भाई होटल का खाना छोड़ देंगे तो मेरे लिए यह सोने में सुहागा होगा। मेरी होटल बंद हो जायेगी तो मैं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चित होकर आप जैसे संर्ता की एवं शासन की सेवा में जुड़ जाऊँगा। पाप कर-करके पैसे तो खूब कमा लिये है। अब उन्हें धोने के लिए ही मानो आपका सहयोग मिला हो ऐसा मैं मानता हूँ। जयणा- साहेबजी ! होटल में ऐसा सब होता है यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। साहेबजी- जयणा! यदि जब एक होटल का मेनेज़र स्वयं भी इतना कोमल बन जाये तो क्या आप होटल नहीं छोड़ सकते ? यदि छोड़ सकते है तो परमात्मा की शरण एवं साक्षी लेकर आज से ही होटल जाना बंद कर अपनी आत्मा के लिए नरक के दरवाज़े सदा के लिए बंद कर दो। जयणा! यह तो हुई स्थूल बातें ; परंतु आज की स्थिति तो ऐसी है कि अज्ञानता के कारण हम शाकाहारी होते हुए भी शाकाहार के नाम पर मांसाहार कर रहे है। अनायास ही नरकादि नीच गति की ओर कदम भरने की कोशिश कर रहे हैं। जयणा - मैं होटल का आज से ही त्याग करती हूँ। मुझे आप यह बताईए कि हम शाकाहार के नाम पर मांसाहार कैसे कर रहे हैं? साहेबजी - जयणा! हमारे दैनिक जीवन में हम ऐसी कई वस्तुओं का उपयोग करते है। जो नाम से शाकाहार है। परंतु बनाने में नॉनवेज का उपयोग किया जाता है। जिससे indirectly मांसाहार भक्षण का पाप लगता है जैसे1. जिलेटीन - प्राणियों के हड्डियों का पाउडर है। इसका उपयोग जेली, आईस्क्रीम, पीपरमेन्ट, केप्सुल, च्युइंगम आदि बनाने में किया जाता है। 2.जाजाब्स, एक्स्ट्रा ,स्ट्रोंग सफेद पीपरमेन्ट,जेली क्रिस्टल- इनमें जिलेटीन आता है। उ.सेन्डवीच स्प्रेड मेयोनीज- इसमें अंडे का रस विशेष होता है जो ब्रेड के ऊपर लगाया जाता है। 4. बटर-मक्खन में उसी रंग के असंख्य त्रस जीव-जंतु होते हैं। 5. चाइनायास- समुद्री काई-सेवाल (लील) के मिश्रण से बनाया जाता है। 6. क्राफ्ट चीज़ - 2-3 दिन के जन्में बछड़े के जठर को निचोड़कर रस निकाला जाता है। यह पीझा के ऊपर लगाने में काम आता है। 7.मेन्टोस- इसे बनाने में बीफटेलो, बोन (हड्डी का पाउडर और जिलेटीन) का उपयोग किया जाता है। 8. पोलो - इसमें जिलेटीन और (बीफ ओरिजीन) गाय-बैल के मांस का मिश्रण किया जाता है। इसमें मांसाणु के कारण इन्हें खाने वालों के स्वभाव में तीखापन, बात-बात में चिड़चिड़ापन आदि होता है। १.नूडल्स सेव पेकेट - इसमें चिकन फ्लेवर (मुर्गी का और अंडे का रस) होता है जो नास्ते में खाते हैं। (0350 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10.सुपपाउडर तथा सुपक्युब्ज- इसम मा मुगा कारसआताहा 11. पेप्सीन (साबुदाना की वेफर) - रतालु नाम के जमीनकंद के रस से बनती है। रस के कुंड में असंख्य कीड़े आदि जन्तु पैर से कुचल दिए जाते हैं। उस रस के गोल-गोल दानों को साबुदाना कहते हैं। इसमें अनंतकाय और असंख्य त्रस जंतुओं का कचूमर निकलता है। 12.टुथ पेस्ट - प्राय: सभी में अंडे का रस, हड्डी का पाउडर तथा प्राणिज ग्लिसरीन की मिलावट होती हैं। इसके स्थान पर वज्रदन्ती, बैद्यनाथ, लाल दंत मंजन, विक्को, हों, काले मंजन एवं दंतेश्वरी आदि का उपयोग करें। 13.स्नान के साबुन- इसमें अधिकतर प्राणिज चर्बी होती है। 14.लिप्स्टीक,शेम्पू - इसमें जानवरों की हड्डी का पाउडर, लाल खून, चर्बी, जानवरों के निचोड़ का रस होता है। इन सबकी जाँच सुअर, चूहे, बंदर आदि की आँखों में की जाती है जिससे वे अंधे हो जाते हैं। 15. ब्रेड-पाव - इसमें अभक्ष्य मैदा, ईयल जैसे अनेक कीड़ों का नाश, खमीर बनाते समय त्रस जीवों का अग्नि में संहार तथा पानी का अंश रह जाने से बासी आटे में करोड़ों जीव(बेक्टीरिया) उत्पन्न हो जाते हैं। जयणा- साहेबजी.! आज तक मैं अपने आप को शाकाहारी ही समझती थी। परंतु आज मुझे पता चला कि आज दिन तक मैनें बड़े चाव से अपनी अज्ञानता के कारण मांसाहार का भक्षण किया है। साहेबजी- जयणा! अज्ञानता में किए गए पापों का फल इतना नहीं भुगतना पड़ता। परंतु ज्ञान प्राप्त होने के बाद भी यदि हम वही कार्य करते रहें तो हमें नरक-निगोद में जाने से कोई नहीं रोक सकता।। जयणा- साहेबजी.! मैं पूरी कोशिश करूँगी कि अब से मैं एकदम शुद्ध शाकाहारी भोजन कर सकूँ। साहेबजी- जयणा! अब तक तो मैंने तुम्हें बाहरी पदार्थों के बारे में बताया है। परंतु भोजन शुद्धि में घर में बनने वाली वस्तुओं में भी हमें कुछ सावधानियाँ रखनी पड़ती है अन्यथा खाते समय अथवा बनाते समय हमारी असावधानी उस भोजन को अभक्ष्य बना देती है। जयणा- साहेबजी.! ये सावधानियाँ कौन-कौन सी है? साहेबजी- जयणा! जिसके दो भाग होते है वैसे धान्य, जैसे कि मूंग, चणा, तुअर, मसुर, मेथी, वटाणा, उड़द एवं इनकी दाल तथा आटा। जो वृक्ष के फल के रुप में न हो, जिसे पिसने से तेल नहीं निकलता, जिसकी दाले बनती हो तथा जिसके दो भाग के बीच में पड़ हो ऐसी सारी चीज़े द्विदल कहलाती है। इन्हें कच्चे दूध, दही, छाछ (गोरस) के साथ नहीं खा सकते क्योंकि गोरस के मिश्र होते ही उनमें असंख्य बेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती हैं। C0360 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी प्रकार के कंदमूल (जमीनकंद) त्याग करे। * विश्व की सभी हरी वनस्पति में जितने जीव है, उससे बहुत ज्यादा जीव जमीनकंद के एक ही पीन पॉईन्ट में होते है। इसलिए जमीनकंद का त्याग करें। आलु, मूला, गाजर, लहसून, कांदा और शक्करकंद को अभक्ष्य और अनंतकायमाना गया है। * फ्लॉवर गोबी और गोबी के अंदर सूक्ष्म जीव छीपे हुए रहते है, इसलिए छोड़ना हितावह है। * मशरुम को भी अनंतकाय और अभक्ष्य माना गया है। द्विदल त्याग * कच्चे दही, दूध और छाछ के साथ कठोल का भोजन करने से सूक्ष्म कीटाणु पैदा होते हैं, इसलिए दही, दूध और छाछ को गरम करके ही कठोल के साथ उपयोग में लेना चाहिए। * श्रीखंड के साथ दाल का उपयोग नहीं करना चाहिए। * दहीवड़े बनाते समय दही को गरम करने के बाद ही वड़े पर डालना चाहिए। * थेपला, ढोकला और कढ़ी बनाते समय छाछ को पहले गरम करना चाहिए। बाज़ार में मिलने वाले सभी अचार अभक्ष्य होते है। यदि अचार में पानी का अंश रह जाये तो वह कच्चा और अभक्ष्य माना जाता है। अचार को पक्का बनाने के लिए शक्कर की चासनी तीन तार वाली होनी चाहिए। अथवा तीन दिन तक कड़ी धूपदीजानी चाहिए। (CCCC Raisi MROPICALE Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात बासी पदार्थ का त्याग जिन खाद्य पदार्थों में पानी का अंश रह जाता हो, वे सभी प्रकार के पदार्थ को रात-बासी माना जाता है। जहाँ पानी होता है वहा अवश्य जीवोत्पत्ति हो जाती है। यहाँ पर दर्शाये गये सभी फरसाण और मिठाईयों को रात-बासी माना गया है। सीझनल टाईम लीमीट वाले पदार्थ जिन खाद्य पदार्थों में पानी का अंश नहीं बचा हो या जिन्हें पूरी तरह सुका (डीहाईड्रेट) बनाया गया हो वे फरसाण और मिठाईयाँ शीत काल में 30 दिन, उष्णकाल में 20 दिन और वर्षाकाल में 15 दिन चल सकती है। उसके बाद वे अभक्ष्य बन जाते हैं और इसके पहले भी यदि वे खराब हो जाते है तो वे अभक्ष्य बन जाते हैं। प्राणीजतत्त्व से बनने वाले सभी पदार्थ अभक्ष्य होते है। बाज़ार में मिलते अनेक खाद्य एवं अन्य पदार्थों में प्राणीजतत्त्व, केमीकल्स और जंतुनाशक पदार्थ होते है। उनका उपयोग करने से पूर्व यह जान लेना चाहिए कि कहीं उनके प्राणीज तत्त्व तो नहीं है। इनके उपयोग से हमें मांसाहार का दोष लगता है। यहाँ दिये गये सभी पदार्थों में किसी न किसी रूप में प्राणिज पदार्थ उपयोग होते हैं। RSITEOS TUR PADKG mentos bom TOS STATURAA Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणा- साहेबजी.! इन सब दालों को दही के साथ मिश्रित करने पर तो बहुत सारी आईटम बनता ह जस कि कढ़ी, दही वडे आदि। तो क्या हम यह सब चीज़े खा ही नहीं सकते? साहेबजी- नहीं जयणा! दही, छाछ आदि को गरम करने के बाद इन दालों को इन के साथ मिश्रित करने पर जीवोत्पत्ति नहीं होती। जयणा- दही गरम करने के बाद जीवोत्पत्ति क्यों नहीं होती? साहेबजी- जयणा! जैसे सूके गोबर पर पानी गिरने पर जीवोत्पत्ति होती हैं पर गोबर एवं पानी दोनों अलग होने पर नहीं। वैसे ही दाल आदि के साथ दही का संयोग होने पर ही जीवोत्पत्ति होती हैं, जब दही को गरम किया जाता है तब उसमें जीवोत्पत्ति होने की शक्ति खत्म हो जाती है। जयणा- साहेबजी.! “द्विदल' की संभावना कहाँ-कहाँ पर होती है ? साहेबजी- दही-वडे, मेथी के पराठे, श्रीखंड, रायता, कढ़ी, ढोकला आदि में गरम किए बिना कच्चा दही उपयोग करने पर द्विदल की संभावना होती है। साहेबजी- जयणा! दही संबंधी कुछ विशेष बातें ध्यान रखने जैसी है। जैसे कि दूध में दही डालने पर बेक्टीरिया उत्पन्न नहीं होता लेकिन पुद्गल में परिवर्तन होता है। जयणा यह तो हुई द्विदल की बात। अब आता है ‘चलित रस'। इसका प्रख्यात नाम है बासी पदार्थ। बासी अर्थात् जिसमें पानी का अंश रहता हो। वह चीज़ दूसरे दिन बासी हो जाने से अभक्ष्य बनती है। जैसे रोटी, ब्रेड, पुडी, इटली, भजीया, वड़ा, श्रीखंड, रसमलाई, बासुंदी, दूधपाक, समोसा, डोसा, गुलाबजामुन, जलेबी, बंगाली-मिठाई, सेका हुआ पापड़, चटनी, शरबत का ऐसन्स, कच्चा मावा आदि। जर्मनी में अभी-अभी यह शोध किया गया है कि रात्रि में सूक्ष्म जीव भोजन में उत्पन्न होने से जैसेजैसे रात बढ़ती जाती है वस्तु एकदम कोमल (सॉफ्ट) होती जाती है। उसमें लट जैसे कोमल जीव उत्पन्न होते हैं। दूसरे दिन तक पूरा भोजन लटों का शरीर हो जाता है। इसलिए ब्रेड, बासी इटली आदि कोमल शरीर वाले जीवों की उत्पत्ति के कारण कोमल बनते हैं। जयणा - इसका मतलब यह हुआ कि आज बनाए हुए सब पदार्थ दूसरे दिन बासी ही कहे जायेंगे तो फिर हम खाखरे आदि कैसे खा सकते हैं। साहेबजी- जयणा! सूकी मिठाई, खाखरा, सेके हुए पदार्थ, तले हुए कड़क पदार्थ आदि दूसरे दिन बासी नहीं होकर उनकी काल मर्यादा के बाद अभक्ष्य होते है। जैसे कि चौमासे में 15 दिन, सर्दी में 30 दिन एवं गर्मी में 20 दिन तक चलते हैं। उसके पहले भी यदि किसी पदार्थ का स्वाद बिगड़ जाए तो वह पदार्थ अभक्ष्य 03D Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे दिन ही अभक्ष्य बनने वाले बासी पदार्थ रोटी, मोटी रोटी गिली पुड़ी भाखरी, पुडले -37 समय मर्यादा कहाँ तक (1) दूसरे दिन अभक्ष्य बनने वाले पदार्थ :- पानी डालकर बनाये हुए पदार्थ एक ही दिन उपयोग में ले सकते हैं दूसरे दिन उसमें जीवोत्पत्ति हो जाती है । भजिया, वड़ा खमण इटली डोसा 1 शीतकाल कार्तिक सुद 15 से फाल्गुन सुद 14 तक (टाईम लिमिट 30 दिन) सेके हुए पदार्थ चना, ममरा पॉपकार्न, खाखरा पीसा हुआ आटा चलित रस 62 सीझनल टाईम लिमिट खीर, मलाई बासुंदी, श्रीखंड फ्रूट सलाद बहुत दिनों के बाद अभक्ष्य बनने वाले पदार्थ: जिन पदार्थों को सेक कर या तलकर बनाने में आता है, ऐसे पदार्थों की समय मर्यादा शीतकाल, ग्रीष्मकाल, एवं चातुर्मास में मर्यादा अलग-अलग होती है। 2. सीझनल टाईम लिमिट 12 ग्रीष्मकाल का. सुद 15 से फा. सु. 14 तक ही भक्ष्य पदार्थ सभी प्रकार की भाजी कोथमीर, पत्तरवेल के पान खजूर, खारक, तिल खोपरा, बादाम आदि सुका मेवा ममरा चिवड़ा फाल्गुन सुद 15 से आषाढ़ सुद 14 तक (टाईम लिमिट 20 दिन) बघा हुए पदार्थ खाखरे, पापड़ की चूरी गुलाब जामुन जलेबी अर्थात् नीचे लिखे गये पदार्थ चातुर्मास में 15 दिन, शियाले के 4 महीनों में 30 दिन तक एवं गर्मी के 4 महीनों में 20 दिन तक चल सकते हैं। 3. सीझनल टाईम लिमिट वाले पदार्थ तले हुए पदार्थ सेव, गांठिया मावा, बंगाली मिठाई 3. समय मर्यादा कहाँ तक फाफड़ा, नमकीन कड़कड़ी आदि शेके हुए पापड़ पानी वाली चटनी शरबत के एसेन्स उ चातुर्मास आषाढ़ सुद 15 (चौमासा) से कार्तिक सुद 14 तक (टाईम लिमिट 15 दिन) आ.सु. 15 से का.सु. 14 तक ही भक्ष्य पक्की छासनी की मिठाई बेसन की चक्की काजू कतली बूंदी, घेवर, मोतीचूर आदि फा.सुद 15 से आ.सु. 14 तक भक्ष्य पदार्थ बादाम, खोपरा उबाले हुए तिल, भाजी - गुवारफली आदि सुकाए हुए पदार्थ पूरी बादाम, सूका नारीयल (जिस दिन फोड़े उसी दिन उपयोग कर सकते हैं।) विशेष : आद्रा नक्षत्र से त्याज्य पदार्थ :- केरी, रायण आदि (038 7 का. सु. 15 से आ.सु. 14 तक 8 महीने चलने वाले पदार्थ वड़ी, पापड़, खीचीयां सारेवड़ा, सूकी चीज़े ( राबोडी) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाता है। विभिन्न पदार्थों की काल मर्यादा हम निम्न चार्ट द्वारा आसानी से समझ सकते है। जयणा - सचमुच धन्य है प्रभु के शासन को। परमात्मा के ज्ञान को। हमारी छोटी-सी असावधानी भी कितने जीवों के संहार का कारण बनती है। खाना तो बनता ही है परंतु यदि सावधानी पूर्वक बनाए तो शुद्ध बनता है और असावधानी पूर्वक बनाए तो अभक्ष्य हो जाता है। साहेबजी- जयणा! शास्त्रों में नरक में जाने के चार द्वार बताए है - (1) रात्रिभोजन (2) कंदमूल (3) परस्त्रीगमन (4) अचार (अथाणा)। जयणा- क्या 'अचार' खाने से नरक में जाते हैं ? तो फिर मेरी नरक निश्चित है क्योंकि अचार के बिना तो मैं खाना खा ही नहीं सकती। साहेबजी.! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अचार भी खाएँ और नरक में भी न जाना पड़े? साहेबजी- हो सकता है जयणा! यदि हम शास्त्रीय विधि से अचार बनाएँ तो वह अचार भक्ष्य होता है। जयणा- अचार बनाने की शास्त्रीय विधि क्या है ? साहेबजी - जयणा! अचार तीन प्रकार की विधि से बनाया जाता है। इन विधियों से सावधानी पूर्वक बनाया हुआ अचार भक्ष्य बनता है। लेकिन उसमें यदि थोड़ी भी असावधानी आ जाए तो भक्ष्य अचार भी अभक्ष्य बन जाता है। इसलिए विधि का बराबर ध्यान रखें। __पहली विधि है - धूप में बना हुआ अचार-इस विधि के अन्तर्गत केरी, नींबू, मिर्ची आदि में नमक डालकर धूप में सुकाया जाता है। पाँच, सात बार सुकाकर जब वह चुड़ी की तरह कड़क बन जाता है तब उसमें गरम करके ठंडा किया हुआ सरसों का तेल, राई, मिर्च, नमक आदि डाला जाता है। इस प्रकार से बनाया हुआ अचार एक वर्ष तक चलता है। अब दूसरी विधि गैस पर बनाने की - इसमें केरी को छिलकर उसके पानी को निकाल दिया जाता है। फिर एक बर्तन में शक्कर डालकर उसे गैस पर रखने के बाद उसमें वह छिली हुई केरी डालकर उसे गरम किया जाता है। जब वह शक्कर पिघलकर तीन तार वाली छासणी के रुप में बन जाए तब उसे गैस से उतारकर ठंडा करने के बाद उसे काँच की बोतल में भर दिया जाता है। जयणा- साहेबजी.! यह तीन तार वाली छासणी क्या होती है ? साहेबजी- छासणी के तार देखने के लिए उसकी एक बूंद को अँगूठे और ऊँगली के बीच में रख कर ऊँगली को धीरे-धीरे ऊपर उठाना। यदि अंगूठे और ऊँगली के बीच में तीन तार निरंतर रहे, बीच में टूटे नहीं तो समझ लेना कि वह छासणी तीन तार वाली पक्की है। उसमें बना हुआ मुरब्बा भक्ष्य बनता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणा- साहेबजी.! क्या मुरब्बा गैस पर ही बनता है या धूप में भी बनता है ? साहेबजी- मुरब्बा धूप में भी बनता है। बस शर्त इतनी है कि धूप की छासणी भी तीन तार वाली होनी चाहिए। अब तीसरी विधि - इस विधि के अनुसार तीन दिन तक नींबू के खट्टे रस में केरी, मिर्च आदि को भीगोकर रखा जाता है। तीन दिन बाद उन्हें 4-5 बार धूप में सुकाकर चुड़ी जैसा कड़क बनाया जाता है। फिर उसमें नमक, तेल, मिर्च, राई आदि डाले जाते हैं। तीनों प्रकार की विधियों में एक बात का खास ध्यान रखना कि इन सब में पानी का अंश रह न जाए। नहीं तो लील-फूग आ जाने से अचार अभक्ष्य बन जाता है। इसके अलावा अचार बनाते समय कुछ असावधानियाँ न हो जाए उसका पूर्णतया ध्यान रखना होगा। जयणा- कैसी असावधानियाँ साहेबजी? साहेबजी- अचार बनाते समय भूल से भी मेथी के दानें, सौंफ, गुड़ या अन्य किसी प्रकार का धान्य नहीं डालना चाहिए। क्योंकि वह अचार दूसरे दिन ही अभक्ष्य बन जाता है। फिर चाहे वह कितने ही शास्त्रीय विधि से क्यों न बना हो। 1.मेथी का अचार उस दिन तो भक्ष्य है परंतु दही के साथ खाने पर द्विदल होने से वह उस दिन भी अभक्ष्य बन जाता है। 2. अचार को काँच की बोतल में ही भरना चाहिए। 3. केरी के अचार पर 2 ऊँगली जितना तेल हमेशा होना चाहिए। 4. बोतल के मुँह पर चार पड़ वाला कपड़ा धागे से बाँधकर फिर उस पर ढक्कन लगाना चाहिए। 5. बोतल से अचार निकालते समय चम्मच और हाथ दोनों साफ एवं सूके होने चाहिए एवं बोतल बंद करते समय भी हाथ सूके होने चाहिए। 6. बोतल से उतना ही अचार निकालना चाहिए जितनी जरुरत हो। क्योंकि बाहर की हवा से अचार खराब हो जाता है। 7. धूप दिए बिना खट्टे रस में बनाया हुआ अचार तीन दिन तक ही भक्ष्य रहता है। जयणा! एक दिन भोजन के समय कंचन बहन की बहू ने कंचन बहन की थाली में मूंग की दाल के पास मुरब्बा रखा। खाते-खाते कंचन बहन को मुरब्बे में छोटे-छोटे जीव चल रहे हो ऐसा महसूस हुआ। उसने धूप में जाकर देखा तो पूरे मुरब्बे में छोटे-छोटे मुरब्बे के रंग के जैसे जीव चल रहे थे। धूप में मुरब्बे की बोतल को खोलकर देखा तो पूरी बोतल में जीव थे। जीवोत्पत्ति का कारण यह था कि छासणी कच्ची रह Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई थी। एक छोटी-सी भूल असंख्य जीवों की हिंसा का कारण बन जाती है। यह बात इस सत्य घटना से प्रतीत होती है। इसलिए इन सब सावधानियों को ध्यान में रखना जरुरी है। जयणा- साहेबजी.! भोजन संबंधी और भी ऐसी कोई ध्यान रखने योग्य बातें हो तो आप हमें बताने की कृपा करें। आज की क्लास सुनकर तो ऐसा लगता है कि आज तक हमने शुद्ध भोजन तो कभी खाया ही नहीं है। भोजन बनाते समय कोई सावधानी रखी नहीं। और न ही खाते समय। इन सबका हमें कितना भारी नुकसान उठाना पड़ेगा है ना साहेबजी.? साहेबजी - हाँ जयणा! रात्रिभोजन, कंदमूल, होटल तथा प्राणिज तत्त्व खाने से निम्न नुकसानों का सामना करना पड़ता है* शरीर रोगी व आलसी बनता है। * मन की पवित्रता घटती है। * नरक गति, अशाता वेदनीय आदि अशुभ कर्म बंधते हैं। मन में असमाधि होती है। __परलोक में दुर्गति व दुःख की परंपरा चलती है। * तिर्यंच गति में पराधीनता व कत्लखाने में कट जाना पड़ता है। * नरक की अनंत वेदना जघन्य से दस हज़ार वर्ष, उत्कृष्ट से 33 सागरोपम तक भुगतनी पड़ती है। इन सबसे बचने के लिए तुम्हें Minimumlevel की श्राविका बनना होगा। जयणा - Minimum level की श्राविका बनने के लिए मुझे क्या करना होगा? साहेबजी- *प्रतिदिन प्रभु मंदिर दर्शन/पूजा करना। * योग होने पर व्याख्यान श्रवण अथवा प्रतिदिन आधा घंटा जैनिज़म कोर्स अथवा कोई भी धार्मिक अध्ययन करना। * रात्रि भोजन का त्याग करना। * कंदमूल का त्याग करना। * होटल का त्याग करना। * प्राणिज तत्त्व का त्याग करना। (शिविरार्थियों को संबोधित करते हुए) इन नियमों का ग्रहण कर आप सभी जिनाज्ञा का पालन करें। जिससे Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, ध्यान आदि के लिए समय बचा पाओंगे। शरीर एवं मन की स्वस्थता को आमंत्रण मिलेगा। * आत्मा को अनेक पापों से बचा सकोगे। * आप स्वयं पर जैनत्व की छाप (मोहर) लगा पाओंगे। * आप जैन होने के गौरव की अनुभूति करोंगे। हमारी क्लास का समय पूरा होने आया है। उसके पूर्व मैं आपको भोजन करते समय ध्यान रखने योग्य कुछ उपयोगी बातें बताना चाहती हूँ। (1) हाथ धोकर, सभी वस्तु लेकर खाने बैठना। (2) दही-छाछ के तपेले देंककर दाल आदि से अलग रखना। (3) कुत्ते-बिल्ली-कौआ एवं भिखारी आदि की दृष्टि (नज़र) न पड़े वैसे बैठना। (4) खाने के पूर्व साधु भगवंत, साधर्मिक भाई, गाय आदि को देकर भोजन करना। (5) खाने की चीज़ों की अनुमोदना या निंदा नहीं करना। (6) खाते-खाते झूठे मुँह से बोलना नहीं एवं पुस्तक आदि को स्पर्श नहीं करना। (7) दोनों हाथ को झूठा नहीं करना एवं झूठा हाथ तपेली या घड़े में नहीं डालना। (8) खुले स्थान में, खड़े-खड़े, टी.वी. देखते-देखते, चलते-फिरते, सोते-सोते जुते-चप्पल पहनकर भोजन नहीं करना। बल्कि पलाठी लगाकर जमीन पर बैठकर भोजन करना। (9) खाते समय एक भी दाना नीचे न गिरें, इसका ध्यान रखना। गिरे तो तुरंत ही उठा ले। क्योंकि कीड़ी आदि आने की संभावना रहती है एवं अन्न देवता होने के कारण कचरे के डिब्बे में भी नहीं डाल सकते। (10) खाने के पूर्व नवकार गिनकर खाना ताकि खाया हुआ कभी अजीर्ण, रोग, पेट दर्द आदि न हो। (11) कुर्सी पर बैठकर नहीं खाना। अति गरम, अति ठंडा भी नहीं खाना। (12) भोजन स्वादिष्ट हो या फीका हो फिर भी मर्यादित ही करना। (13) भोजन के पूर्व जाँच कर ले कि परमात्मा की आज्ञा विरुद्ध (अभक्ष्य-अनंतकाय) तो नहीं है। (14) एम.सी. वाली बहनों के हाथों का भोजन नहीं करना। (15) क्रोध से रोते-रोते, अप्सेट माइंड से चिंतातुर होकर नहीं खाना। (16) खाने के तुरंत बाद पानी नहीं पीना, सोना नहीं, हार्डवर्क नहीं करना। (17) बार-बार खाना न पड़े, इस प्रकार ज्यादा से ज्यादा तीन बार पेट भरकर ही खाना। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (18) फास्ट फुड नहीं खाना। थाली धोकर पीना, पोंछकर रखना। (19) कच्चे दही, छाछ को अलग रखें। द्विदल न हो उसका ध्यान रखें। (20) भोजन करने के बाद भोजन बच जाए तो तुरंत ही उसका उपयोग (गाय, गरीब को देकर) कर लें। बासी न रखें। झूठे बर्तन 48 मिनिट से ज्यादा न रखें। (21) अत्यंत लोलुपता, गृद्धि एवं आसक्ति पूर्वक भोजन नहीं करना। (22) टूटे फुटे बर्तन में या कागज़ की प्लेट में भोजन नहीं करना। (23) खाते वक्त मुंह से किसी भी प्रकार की आवाज़ न हो। इस प्रकार चबा-चबाकर खाना चाहिए। (24) दक्षिण दिशा की ओर मुँह रखकर खाना न खाए। (25) खाने के पहले परिवार के बड़ों ने, छोटों ने, नौकरों ने खाना खाया या नहीं उसकी पृच्छा कर लें। (26) खाने के बाद नींद आए तो समझना की आज जरुरत से ज्यादा खा लिया है। (27) खाते वक्त कोकम, मीठा नीम का पत्ता, मिर्च, इमली आदि आ जाए तो उसे चबा ले। लेकिन बाहर न फेंके। जयणा - साहेबजी.! अपने जीवन को सुधारने के लिए तथा वास्तविक जैन बनने के लिए मैं उपरोक्त नियमों का पालन करने की पूरी-पूरी कोशिश करूँगी। जीवन में पहली बार मुझे जैन होने का गर्व महसूस हो रहा है। धन्य है जैन शासन को, जिसमें खाने में भी जीवों की जयणा को इतनी प्रधानता दी गई है तो बाकि चीज़ों का तो कहना ही क्या ?. - (इस प्रकार शिविर में तत्त्वज्ञान, पूजन विवेक आदि अनेक क्लासेस हुई। जयणा को पहली बार धर्म को इतनी गहराई से जानने को मिला था इससे वह बहुत ही प्रभावित हुई और हर क्लास में उसने यथाशक्ति नियम ग्रहण किए। इस प्रकार शिविर के 10 दिन पूरे हो गये। शिविर के बाद तो जयणा एक दूसरा रुप लेकर ही घर आयी। उसने शिविर की सारी बातें सुषमा को बताई। जयणा द्वारा लिए गए नियम से सुषमा ने चौंककर कहा - सुषमा- पागल हो गई है तू। पता है आजीवन रात्रिभोजन त्याग का मतलब क्या होता है ? साधुओं का तो काम ही है उपदेश देना। और तू बिना विचारे इतने सारे नियम लेकर आ गई। पूरी छुट्टियाँ waste कर दी। यदि माथेरान आती तो पता चलता, कितना मज़ा आया था। सब मिस् कर दिया। । जयणा - सुषमा! मिस् मैंने नहीं, मिस् तो तुमने किया है। माथेरान जाकर तुमने भले ही बहुत मौज-मज़े किए होंगे, परंतु शिविर में जाने के बाद मैंने सच्चा ज्ञान पाया है। जैन होने का गौरव पाया है तथा अपनी आत्मा को नरकादि में जाने से बचाया है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषमा- लगता है शिविर का भूत तुम्हारे दिमाग से अभी तक उतरा नहीं है। खैर किसने क्या मिस् किया यह तो बाद में पता चलेगा। (इस प्रकार दोनों अपनी-अपनी सोच के अनुसार अपना-अपना जीवन व्यतीत करने लगी। शिविर के बाद जयणा अब नित्य जिनपूजा, यथासंभव व्याख्यान श्रवण, रात्रिभोजन- कंदमूल का सर्वथा त्याग, द्विदल तथा बासी का पूरा ध्यान रखने लगी। उसने अपने परिवार वालों को भी शिविर की सारी बातें बतायी और उन्हें भी धर्म मार्ग पर जोड़ने की कोशिश की। धीरे-धीरे जयणा का परिवार भी धार्मिक वातावरण में जुड़ने लगा। इस प्रकार एक शिविर ने जयणा का ही नहीं उसके पूरे परिवार का जीवन सुधारा और आगे जाकर भी जयणा न जाने कितने लोगों को धर्म में जोड़ेगी। यह तो समय ही बतायेगा । और यहाँ जैसे-जैसे सुषमा उम्र में बड़ी होने लगी धर्म मार्ग से उतनी ही विमुख बनती गई। उसे मंदिर जाने के बदले घूमना-फिरना ही अच्छा लगता था। समय बीतने पर जयणा तथा सुषमा दोनों के घर पर उनकी शादी की बात चलने लगी। 1 जयणा के पिताजी ने इस विषय पर जयणा की राय लेनी चाही तब जयणा ने सिर्फ इतना ही कहा,“लड़का दिखने में कैसा है ? उसका रुप रंग कैसा है ? इससे मुझे कोई मतलब नहीं। मुझे तो बस इतना चाहिए कि शादी के बाद वह स्वयं भी धर्म करे तथा मुझे भी ना रोके । ” अत: जयणां का यह निर्णय सुनकर उसके पिताजी ने 'जिनेश' नाम के एक खानदानी, धार्मिक तथा संस्कारी लड़के से उसकी शादी करवा दी। शादी होने के बाद भी जयणा हमेशा साहेबजी के पास वंदनादि करने आती-जाती रहती थी । वैवाहिक जीवन में पति, सास-ससुर, देवर- ननंद आदि के साथ कैसे रहना ? रिश्तों में मधुरता किस प्रकार रखना? साथ ही अपनी हर एक शंकाओं का तथा जिज्ञासाओं का समाधान साहेबजी द्वारा प्राप्त करती रहती थी। और यहाँ सुषमा की शादी उसी के अनुरुप एक पैसे वाले standard तथा मॉर्डन लड़के “आदित्य' के साथ हो गई। शादी के बाद जया तथा सुषमा के जीवन में क्या होगा? उनकी सोच, उनके विचार उन्हें किस मोड़ पर ले जाकर खड़ा करेंगे? मॉर्डन लाईफ स्टाईल से जीने वाली सुषमा और सादा जीवन उच्च विचार के ख्यालात वाली जयणा क्या दोनों अपने ससुराल में सेट हो पायेगी। यह तो सहज बात है कि जैसे माँ के संस्कार होते है वैसे ही संस्कार बच्चों में आते है। अपने-अपने संस्कारों के अनुसार ये दोनों अपने बच्चों में किस प्रकार के संस्कारों का बीजारोपण करते है ? और वे संस्कार उन्हें कहाँ ले जाते है। Indian Culture और Wastern Culture की इस लड़ाई में जीत किसकी होगी तो आइए देखते है जैनिज़म के अगले खंड "Indian Culture V/s Wastern Culture" में 044 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाते छोटी मगर बड़े काम की कमर का दर्द * अजवायन और गुड़ समान भाग में मिक्स करके सुबह और शाम खाने से कमर का दर्द दूर होता है ।। * सूंठ का पाउडर गरम पानी के साथ लेने से कमर का दर्द दूर होता है। * सूंठ और हिंग डालकर तेल गरम करके उसकी मालिश करने से कमर का दर्द तथा शरीर अकडाया हो तो वह भी दूर होता है। जांघा का दर्द भी दूर होता है। * जायफल को सरसों के तेल में घिसकर मालिस करने से जांघा का दर्द दूर होता है। * लविंग का तेल घिसने से संधिवा का दर्द दूर होता है। * मेथी को थोड़े घी में सेककर उसका आटा बनाना, उसमें गुड़ और घी डालकर लड्डु बनाना। यह लड्डु 810 दिन खाने से कमर का दर्द और संधिवा दूर होता है। अकड़ाये हुए अंग छूटे पड़ते है। गले का दर्द * गरम पानी में हिंग डालकर पीने से आवाज़ बैठ गई हो तो खुल जाती * गरम किए हुए दूध में थोड़ी हल्दी डालकर पीने से बैठा हुआ गला खुल जाता है। * लविंग को थोडा सेककर मुंह में रखकर चूसने से गले का सूजन दूर होता है। * भोजन करने के बाद काली मिर्च (ब्लेक पेपर) का पाउडर घी के साथ चाटने से कान का दर्द * तिल के तेल में हिंग डालकर गरम कर उस तेल की बूंदे कान में डालने से कान का दर्द दूर होता है। * तुलसी के रस की बूंदे कान में डालने से कान का दर्द और सनके मारने दूर होते हैं। पस निकलता हो तो वह भी बंद हो जाता है * तेल में थोड़ी राई वाटकर (पिसकर) कान के सूजन पर लगाने से सूजन दूर होता है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माला गिनने की विधि स्थापना- मुद्रा खड़े-खड़े योग मुद्रा योग मुद्रा उत्थापन मुद्रा खमासमणा मुद्रा खमासमणा मुद्रा जिन मुद्रा मुक्ता सुक्ति मुद्रा सूत्र (मुझे याद करने पर तुम्हें शिव सुख मिलेगा ।) (मेरा बराबर उपयोग करें (1) अर्थ काव्य विभाग (मुझे याद कर भूल न जाना) (पाठशाला में पढ़ने आये हुए विनीत विद्यार्थियों को देखीये, समझीये, आचरीये) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे पढ़कर ही आगे बढे सूत्रोच्चार में खास ध्यान रखने योग्य बाते? * सूत्र बोलते समय अ, ह, रि, ए, य इन अक्षरों का खास ध्यान रखना चाहिए। कई बार ध्यान होने पर भी बोलते समय ये अक्षर गौण बन जाते है। 'ह' महाप्राण होने से इसको बोलने में थोड़ा जोर पड़ता है। जैसे- नमो अरिहंताणं, इसमें 'ह' शब्द का उपयोग न रहने से कई बार 'नमो अरिंताणं' ही बोल देते है। इसी प्रकार पंचवियार पालण न बोलकर पंचविहायार पालण... इच्छामि खमासणो न बोलकर इच्छामि खमासमणो मथेण वंदामि न बोलकर मत्थएण वंदामि इरियावियाये न बोलकर इरियावहियाए बोलना चाहिए। जहाँ जोडाक्षर हो वहाँ पूर्व के अक्षर पर जोर दें एवं आधा अक्षर पूर्व के अक्षर के साथ बोलें। लोगस्स उज्जोअगरे, लो-गस्-स उज्-जोअ-गरे। धम्मतित्थयरे जिणे, धम्-म-तित्-थ-यरे जिणे। अरिहंते कित्तइस्सं, अरि-हन्-ते कित्-त-इस्-सम् । चउवीसंपि केवली, चउ-वी-सम्-पि केव-ली। पडिक्कमामि, पडिक्-क-मामि * ह्रस्व दीर्घ का पूर्ण ख्याल रखें । दीर्घ (बड़ी) मात्रा हो वहाँ पर स्वर लम्बाना चाहिए। जैसे 'सव्व साहूणं' में 'हू' लम्बाना चाहिए। * सूत्र में जहाँ भी प्रश्नात्मक चिन्ह है, उसे प्रश्न रूप में बोले जैसे - इरियावहियं पडिक्कमामि ? यह वाक्य प्रश्नरूप है, इसलिए प्रश्न करते हो इस प्रकार बोलें। * पणग-दग, मट्टी-मक्कडा, संताणा संकमणे इस प्रकार दो-दो पदों को साथ में नहीं बोलना। परंतु पणग अलग बोलकर, दग-मट्टी साथ में बोलना तथा मक्कडा संताणा साथ में बोलकर फिर रुककर संकमणे पद बोलना। * बोलते समय जहाँ वंदे, वंदामि आदि नमस्कार सूचक शब्द एवं मिच्छामि दुक्कड़म् आदि आते हैं, वहाँ थोड़ा रुककर उन्हें थोड़ा जोर से बोलना चाहिए ताकि स्वयं को एवं अन्य को मस्तक झुकाने का उपयोग रहे। * प्राय: तो सूत्र के सामने शब्द के अनुसार अर्थ देने की कोशिश की है। लेकिन कहीं-कहीं अन्वय के अनुसार अर्थ दिये हैं। सूत्र पर जो नम्बर दिये गये है तदनुसार अर्थ के नम्बर देखने पर शब्दार्थ प्राप्त होंगे, तथा संलग्न अर्थ पढ़ेंगे तो आपको सहज गाथार्थ समझ में आ जाएगा। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RT 1. नमस्कार (नवकार) सूत्र बत भावार्थ - इस सूत्र को 'नवकार मंत्र' भी कहते हैं । जैन धर्म का यह परम श्रेष्ठ मंत्र हैं । प्रतिदिन प्रतिपल इसका जाप करना चाहिए। 108 बार इसका जाप करने से आत्मिक बल प्राप्त होता है। 'नमो 'अरिहंताणं। 'अरिहंत भगवंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। 'नमो सिद्धाणं। *सिद्ध भगवंतों को 'मैं नमस्कार करता हूँ। . 'नमो आयरियाणं । आचार्य भगवंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। 'नमो 'उवज्झायाणं। 'उपाध्याय भगवंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। 'नमो लोए "सव्व-साहूणं । लोक में (रहे) "सर्व साधु भगवंतों को "मैं नमस्कार करता हूँ। "एसो "पंच-नमुक्कारो, “इन" पाँचों को किया गया नमस्कार, "सव्व -पाव-प्पणासणो। “समस्त (रागादि) "पापों का अत्यन्त नाशक है, मंगलाणं "च "सव्वेसिं, "एवं "सर्व मंगलों में, पढमं 'हवई °मंगलं ।। श्रेष्ठ मंगल है। 2. पंचिंदिय (गुरुस्तुति-गुरुस्थापना) सूत्र मदर. भावार्थ - गुरुजनों की अनुपस्थिति में सामायिक-प्रतिक्रमण आदि धर्मक्रियाएँ करते समय इस सूत्र के द्वारा गुरु स्थापना की जाती है। पंचिंदिय-संवरणो, 'पाँच इन्द्रियों (चमड़ी, जीभ, नाक, आँख, कान)के विषयों को रोकने-वाले। 'तह 'नव-विह-'बंभचेर-गुत्ति- धरो। तथा नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति का पालन करने वाले 'चउविह- कसाय-मुक्को, 'चार प्रकार के कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ)से मुक्त, "इअ "अट्ठारस-गुणेहिं "संजुत्तो ।। 1 ।। "इस प्रकार "अट्ठारह गुणों से "सुसंपन्न ।।1।। पंचमहव्वय-जुत्तो, 'पाँच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) से युक्त पंचविहा-'ऽऽयार- पालण-समत्थो पाँच प्रकार के आचार के पालन में समर्थ 'पंच-समिओ 'ति-गुत्तो, 'पाँच समिति वाले एवं 'तीन गुप्ति से गुप्त 'छत्तीस-गुणो "गुरू मज्झ ।।2।। ऐसे छत्तीस गुणवाले मेरे "गुरु हैं ।। 2 ।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४२६४ नमस्कार महामंत्र ४ ज्ञानावरणीय कर्म मोहनीय कर्म आयुष्य कर्म अंतराय कर्म नाम कर्म गोत्र कर्म वेदनीय कर्म दर्शनावरणीय कर्म CD ESTRERETTY नमो अरिहंताणं नमो सिद्धा नमो आयरियाण नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्व साहूणं CSD अनतदर्शन अव्याबापसुख अनंतचारित्र अरूपपणु अनंतवीर्य अगुरुलघु ÀÀÀÀÄ AAAA Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावहियं इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि ? इच्छं, इच्छामि पडिक्कमिउं ? पाणक्कमणे - इरियावहियाए विराहणाए गमणागमणे बीयक्कमणे हरियक्कमणे ओसा-उत्तिंग पणग-दगमट्टी एगिदिया मक्कडा-संताणा संकमणे बेइंदिया जे मे जीवा विराहिया "एगिदिया , बेइंदिया 1300/- तेइंदिया- ATAR से चउरिंदिया * पंचिंदिया RA छ संघाइया पंचिंदिया अमिहया किलामिया वत्तिया, संघट्टिया उद्दविया ठाणाओ ठाणं संकामिया जीवियाओ ववरोविया लेसिया परियाविया तस्स मिच्छामि दुक्कड़ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cer 3. खमासमण (पंचांग प्रणिपात) सूत्र मदर भावार्थ - परमात्मा एवं गुरुजनों को पंचांग प्रणिपात-वंदन करने के लिए इस सूत्र का प्रयोग किया जाता है। 'इच्छामि 'खमासमणो 'वंदिउं 'हे क्षमाश्रमण! मैं आपको सुख-शाता पूछकर 'जावणिज्जाए निसीहिआए, अविनय-आशातना की क्षमा मांगकर 'वंदन करना चाहता हूँ। 'मत्थएण'वंदामि ।। 'मस्तक नमा कर 'मैं वंदन करता हूँ। 4. इच्छकार सुहराई (सुखशाता पृच्छा) सूत्र पर भावार्थ - इस सूत्र के द्वारा गुरुमहाराज को सुखशाता-कुशलता पूछी जाती है एवं गोचरी का निमंत्रण दिया जाता है। 'इच्छकार! हे गुरुदेव ! 'आपकी इच्छा हो तो मैं पूर्छ ? 'सुह- राई ? (सुह-'देवसि ?) 'आपकी रात्री (दिवस) सुख पूर्वक व्यतीत हुई। 'सुख-'तप ? 'शरीर-'निराबाध? तप सुख पूर्वक चल रहा है ? 'शरीर बाधा रहित है ? "सुख- संजम-"जात्रा 'निर्वहो छो जी ? संयम यात्रा का निर्वाह "सुख पूर्वक हो रहा है ? 19 स्वामि !"शाता छे जी ? हे स्वामिन्! "आपको सब प्रकार की शाता है ? भात-पाणीनो लाभ देजो जी। HP 5. 'अब्भुडिओ' सूत्र (गुरु खामणा सूत्र) पर भावार्थ - इस सूत्र में अपने द्वारा गुरु महाराज का जो अविनय हुआ हो, वह प्रगट करके क्षमा माँगी जाती है। 'इच्छाकारेण संदिसह 'भगवन् ! 'हे भगवन्! आपकी इच्छा से मुझे आदेश दे। अब्भुट्ठिओमि अभिंतर मैं रात्री ('दिन) के भीतर किए हुए अपराधों की क्षमा याचने 'राइअं('देवसिअं) 'खामेउं के लिए उपस्थित हुआ हूँ। (यहाँ गुरु 'खामेह' कहें ) मैं आपके आदेश को स्वीकार करता हूँ। "खामेमि "राइयं (''देवसिअं)।।1।। रात्रिक ('देवसिक) अपराधों को "खमाता हूँ।।1।। 'जंकिंचि अपत्तिअं परपत्तिअं, 'जो कुछ (आपको) अप्रीतिकर, अत्यन्त अप्रीतिकर 'भत्ते, पाणे, विणए, 'वेयावच्चे, आहार में, पानी में, विनय में, वैयावच्च (सेवा) में "इच्छं, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलावे,संलावे, 'एक बार बात में, अनेक बार बात में "उच्चासणे, "समासणे, (गुरु से) "ऊँचे आसन पर बैठने से, "समान आसन पर बैठने से, "अंतर-भासाए, "उवरि-भासाए ।।2।। (गुरु की बात में) "बीच में बोलने पर, "अधिक बोलने में।।2।। 'जंकिंचि मज्झविणय-'परिहीणं 'जो कुछ मेरा विनय रहित 'सुहुमं वा बायरं वा सूक्ष्म या स्थूल (अपराध) हो, 'तुब्भे जाणह अहं न "जाणामि; 'आप जानते है, मैं नहीं जानता, "तस्स"मिच्छामि दुक्कड़।।3।। "तत्सम्बंधी मेरा "दुष्कृत मिथ्या हो ।।3।। A . 6. इरियावहियं (प्रतिक्रमण) सूत्र पर भावार्थ - यह छोटा प्रतिक्रमण-पश्चाताप सूत्र है । इसके द्वारा चलने-फिरने से जो विराधना हिंसा होती है, उसकी क्षमापना की जाती है। 'इच्छाकारेण संदिसह 'भगवन् ! 'हे भगवंत ! आपकी इच्छा से आदेश दे , 'इरियावहियं पडिक्कमामि ? 'मैं गमनागमन में हुई विराधना का प्रतिक्रमण करूँ ? (यहाँ गुरु कहे 'पडिक्कमेह') "इच्छं, "इच्छामि पडिक्कमिउं ।। 1 ।। "इच्छं अर्थात् मैं आपका आदेश स्वीकार करता हूँ ।।1।। 'इरियावहियाए विराहणाए ।।2।। 'ईर्यापथिकी की विराधना से वापस लौटना चाहता हूँ ।।2।। 'गमणागमणे ।।3।। 'गमनागमन में (आने-जाने में)।।3।। 'पाण-क्कमणे, बीय-क्कमणे, 'छोटे प्राणी को दबाने से, धान्यादि सचित्त बीज को दबाने से हरिय-'क्कमणे, ओसा- उत्तिंग, वनस्पति को 'दबाने से, ओस की बूंदे , °चिंटी के बिल "पणग-'दग-मट्टी "पाँच वर्णों की फूलन निगोद आदि, "कीचड़ (पानी व मिट्टी) "मक्कडा-"संताणा-"संकमणे।।4 ।। "मकड़ी के "जाले को “दबाने से ।।4 ।। 1"जे "मे "जीवा "विराहिया ।।5।। "मुझसे "जो "जीव "दु:खित हुए हो ।। ।। 'एगिदिया, बेइंदिया, 'एक इन्द्रिय वाले (पृथ्वी आदि), दो इन्द्रिय वाले (शंख आदि) तेइंदिया, 'चउरिंदिया 'तीन इन्द्रिय वाले (चिंटी आदि) चार इन्द्रिय वाले (मक्खी आदि) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचिंदिया ।।6।। 'पाँच इन्द्रिय वाले मनुष्य आदि की विराधना।।6।। निम्न प्रकार से की हो :'अभिहया, वत्तिया, 'अभिघात किया हो (हाथ-पैर से ठुकराएँ हो) धूल से ढके हो लेसिया, भूमि आदि पर घिसा हो, कुचले या कुछ दबाये हो, 'संघाइया, संघट्टिया, 'परस्पर शरीर द्वारा टकराये हो, शरीर द्वारा स्पर्श किया हो, 'परियाविया, 'किलामिया, "संताप-पीड़ा दी हो, 'खेद पहुँचाया हो, (अङ्ग-भङ्ग किया हो।) उद्दविया, 'मृत्यु जैसा दु:ख दिया हो, (भयभीत किया हो) 'ठाणाओ "ठाणं "संकामिया, एक स्थान से दूसरे स्थान पर 'हटाये या फिराये हो, "जीवियाओ "ववरोविया, "प्राण से रहित किये हो "तस्स "मिच्छामि दुक्कडं ।।7।। "उन सबका "मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।7।। दस प्रकार की विराधना से निम्नलिखित रोगोत्पत्ति की संभावना मुझे इस प्रकार लगती है। निमल वेगानविकी अभिहया लात मारना घुटने से सम्बंधित रोग। वत्तिया . धूल से ढंकना श्वास तथा घुटण सम्बंधित रोग। लेसिया भूमि के साथ रगड़ना कुष्ठ आदि चमड़ी के रोग। संघाइया इकट्ठा करना धक्का-मुक्की तथा भीड़ में आना जाना पड़े। संघट्टिया स्पर्श से दु:ख देना चर्म रोग, मलेरिया, बुखार आदि। परियाविआ थकाकर बेहोश करना टी.बी.। किलामिआ कष्ट देना एड्स, केन्सर। उद्दविया भयभीत करना मानसिक बिमारी, टेन्शन आदि। ठाणाओ ठाणं संकामिआ स्थानांतर करना जगह सम्बंधित प्रोब्लम् रहती है। एडमिशन नहीं मिलता है। जीवियाओ ववरोविआ | प्राण से रहित करना । आकस्मिक मरण होता है। 7. तस्स उत्तरी सूत्र भावार्थ - इसमें इरियावहियं सूत्र का ही अनुसंधान है। चित्तविशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग करने का निश्चय इस सूत्र के द्वारा किया जाता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तस्स जिस जीव विराधना का प्रतिक्रमण किया 'उसका अनुसंधान है। 'उत्तरी-करणेणं, 'विशेष -आलोचना और निन्दा के द्वारा 'पायच्छित्त-करणेणं, 'प्रायश्चित द्वारा, 'विसोहि-करणेणं, 'निर्मलता द्वारा, 'विसल्ली -करणेणं, "चित्त को शल्य रहित करने द्वारा, 'पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए, 'पापकर्मों का उच्छेद करने के लिए "ठामि काउस्सग्गं। मैं कायोत्सर्ग में "रहता हूँ। VEDA 8. अनत्य सूत्र बराबर भावार्थ - इस सूत्र में कायोत्सर्ग के आगारों की गणना की गई है एवं कायोत्सर्ग का समय, स्वरुप और प्रतिज्ञा प्रदर्शित की है। 'अन्नत्थ, अधो लिखित अपवाद (छूट) पूर्वक ऊससिएणं, नीससिएणं श्वास लेने से, श्वास छोड़ने से, 'खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं ‘खाँसी आने से, छींक आने से, जम्हाई (बगासी) आने से, 'उड्डएणं, वाय-निसग्गेणं, "भमलीए । 'डकार आने से, अधोवायु छूटने से, चक्कर आने से, "पित्त-"मुच्छाए ।।1।। पित्त-विकार से "मूर्छा आने से ।।1।। 'सुहुमेहिं अंग-संचालेहिं 'सूक्ष्म अंग संचार होने से, *सुहुमेहिं खेल-संचालेहिं 'सूक्ष्म कफ या वायु का संचार होने से, . 'सुहुमेहि दिट्ठि- संचालेहिं ।।2।। 'सूक्ष्म 'दृष्टि- संचार होने से ।।2।। 'एवमाइएहिं आगारेहिं, अभग्गो 'इत्यादि अपवाद के (सिवा), भंग न हो 'अविराहिओ 'हुन्ज मे काउस्सग्गो।।3।। खण्डित न हो ऐसा मेरा कायोत्सर्ग 'हो ।।3।। 'जाव अरिहंताणं भगवंताणं . 'जहाँ तक नमो अरिहंताणं बोल कर अरिहंत भगवंतों को 'नमुक्कारेणं न पारेमि,।।4।। 'नमस्कार करने द्वारा (कायोत्सर्ग) न पारूँ 'ताव "कायं ठाणेणं 'मोणेणं 'तब तक शरीर को एक स्थान में स्थिर कर, 'वाणी से मौन झाणेणं अप्पाणं "वोसिरामि ।।5।। रहकर एवं ध्यान द्वारा अपनी पाप पर्याय वाली Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "काया का सर्वथा "त्याग करता हूँ। 9. लोगस्स (चतुर्विंशति-स्तव) सूत्र पर भावार्थ -इस सूत्र के द्वारा चौबीस तीर्थंकर भगवंतों की स्तवना एवं उनकी महिमा कही गई है। यह सूत्र मंत्र-तंत्र एवं यंत्र की आराधना से गर्भित है। 'लोगस्स उज्जोअगरे, 'चौद राजलोक (विश्व) के प्रकाशक, धम्म-तित्थ-यरे 'जिणे; धर्मतीर्थ (शासन) के स्थापक, रागद्वेष के विजेता, अरिहंते कित्तइस्सं, 'अष्टप्रातिहार्यादि से युक्त ऐसे 'चउवीसं पि'केवली ।।1।। 'चौबीसों 'केवली भगवंतों का कीर्तन करता हूँ ।।1।। 'उस मजिअं च वंदे, 'श्री ऋषभदेव श्री अजितनाथ को मैं वंदन करता हूँ। 'संभव मभिणंदणं च सुमइं च; 'श्री सम्भवनाथ श्री अभिनन्दन स्वामी श्री सुमतिनाथ 'पउमप्पहं सुपासं, 'श्री पद्मप्रभ स्वामी, श्री सुपार्श्वनाथ, "जिणं च चंद-प्पहं "वंदे, 112 ।। एवं श्री चन्द्रप्रभ जिन को ''मैं वंदन करता हूँ ।। 2 ।। 'सुविहिं च पुप्फदंतं, 'श्री सुविधिनाथ यानि श्री पुष्पदंत स्वामी , 'सीयल-'सिजंस-'वासुपुजं च; 'श्री शीतलनाथ, श्री श्रेयांसनाथ, श्री वासुपूज्य स्वामी, विमल-'मणंतं च "जिणं, श्री विमलनाथ एवं श्री अनन्तनाथ, धम्मं संतिं च 'वंदामि. ।।3।। श्री धर्मनाथ एवं श्री शान्तिनाथ ° जिन को "मैं वंदन करता हूँ।।3।। कुंथु अरं च मल्लिं 'श्री कुंथुनाथ, श्री अरनाथ, श्री मल्लिनाथ, 'वंदे 'मुणिसुव्वयं नमिजिणं च; 'श्री मुनिसुव्रत स्वामी तथा श्री नमिनाथ को मैं वंदन करता हूँ। "वंदामि 'रिठ्ठ-नेमिं 'श्री नेमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ तथा 'पासं तह वद्धमाणं च ।।4।। "श्री वर्धमान स्वामी को मैं वंदन करता हूँ।।4 ।। 'एवं मए अभिथुआ, 'इस प्रकार मुझसे स्तुति किए गए (जिनकी स्तवना की गई है), "विहुय-'रय-'मला 'कर्मरज-'रागादिमल को दूर किया है जिन्होंने, 'पहीण-'जर- मरणा, एवं (जन्म) 'जरा (बुढ़ापा) मरण से मुक्त "चउ-वीसं पि"जिण-वरा, चौबीस भी 'जिनेश्वर Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तित्थ-यरा "मे "पसीयंतु ।।5।। "तीर्थंकर प्रभु "मुझ पर "प्रसन्न हो ।।5।। 'कित्तिय-वंदिय-'महिया, 'लोक में जो श्रेष्ठ 'सिद्ध है वे, एवं 'जे ए 'लोगस्स उत्तमा सिद्धा; 'कीर्तन-वंदन-'पूजन किये गए ऐसे तीर्थंकर, "आरूग्ग- बोहि-लाभं, भाव-आरोग्य (मोक्ष) के लिए (कर्मक्षय के लिए) बोधिलाभ "समाहिवर"मुत्तमं "दिंतु.।।6।। एवं "उत्तम ''भावसमाधि "दें।।6।। 'चंदेसु निम्मलयरा, 'चंद्र से अधिक निर्मल, 'आइच्चेसु अहियं पयासयरा; सूर्य से अधिक प्रकाश करने वाले 'सागर-वर 'गंभीरा, स्वयंभूरमण समुद्र से अधिक 'गंभीर 'सिद्धा "सिद्धिं मम 'दिसंतु. ।।7।। सिद्ध भगवंत मुझे "सिद्ध पद "प्रदान करें।।।7।। . . 10. करेमि भंते (सामायिक) सूत्र बदर भावार्थ - यह सामायिक का प्रतिज्ञा सूत्र है । इसके द्वारा पाप व्यापार का पच्चक्खाण किया जाता है। 'करेमि 'भंते ! सामाइयं, 'हे भगवंत ! मैं सामायिक करता हूँ। 'सावजं जोगं पच्चक्खामि, 'पापवाली प्रवृत्ति का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करता हूँ (अतः) 'जाव नियमं पज्जुवासामि, 'जब तक मैं (दो घड़ी के) नियम का सेवन करूँ, (तब तक) "दुविहं,"तिविहेणं,"मणेणं,"वायाए "द्विविध, "त्रिविध से "मनसे, "वचन से, "काएणं "न करेमि "न कारवेमि; "काया से सावद्य प्रवृत्ति "न करूँगा, "न कराऊँगा। "तस्स"भंते ! "पडिक्कमामि, "हे भगवंत ! (अब तक किये) "पाप का "प्रतिक्रमण करता हूँ। २°निंदामि, "गरिहामि; स्वयं पाप की निंदा करता हूँ, "गुरु समक्ष गर्दा करता हूँ। 2 अप्पाणं "वोसिरामि. (ऐसी पाप वाली) आत्मा का त्याग करता हूँ। VER 11. सामाइय-वय-जुतो (सामायिक-पारण) सूत्र पर भावार्थ - इस सूत्र में सामायिक की महिमा दर्शाई है। चारित्र धर्म की आराधना के लिए बार-बार सामायिक करनी चाहिए। 'सामाइय-वय-'जुत्तो 'जाव, 'सामायिक व्रत से युक्त जीव 'जब तक 'मणे होइ नियम-'संजुत्तो, मन में नियम से 'युक्त होता है। (052 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिन्नइ असुहं कम्म, तब तक वह अशुभ कर्म का "उच्छेद करता है। "सामाइय"जत्तिया "वारा ।।1।। "सामायिक "जितनी "बार होती है उतनी बार (अशुभ कर्म का नाश होता है।) ।।1।। 'सामाइयंमि उ कए, 'सामायिक करने पर 'समणो 'इव सावओ हवइ जम्हा 'श्रावक साधु के समान होता है "एएण'कारणेणं, इस कारण से "बहुसो सामाइयं "कुज्जा ।।2।। अनेक बार सामायिक "करनी चाहिए ।।2।। सामायिक विधि से लिया, विधि से पूर्ण किया, विधि करने में जो कोई अविधि हुई हो उन सबका मनवचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं। दश मन के, दश वचन के, बार काया के ए बत्रीस दोष में जो कोई दोष लगा हो उन सबका मनवचन-काया से मिच्छामि दुक्कड़म्। नवकारसी का पच्चक्वाण मर उग्गए सूरे, नमुक्कारसहिअं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ चउव्विहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं . सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ।। Mer चाउविहार-तिविहार का पच्चक्खाण हम दिवसचरिमं पच्चक्खाइ चउव्विहंपि आहारं..... तिविहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइमं, साइमं अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ । (0530 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. नदीयों में 11. 12 56 किसमें कौन श्रेष्ठ है ? अरिहंत गौतम स्वामी 6. 7. 8. 9. 10. देवों में गुरु में धर्म में क्षमा में मंत्रों में यंत्रों में तीर्थों में सूत्रों में पर्वतों में ज्योतिष चक्र में पर्वों में : : : जैन धर्म : महावीर स्वामी नवकार महामंत्र सिद्धचक्र यंत्र गुस्सा अहंकार लालच व्यसन माया ईर्ष्या शंका मोह लोभ चिंता : शंत्रुजय तीर्थ (पालीताणा) : कल्पसूत्र : मेरु पर्वत : गंगा नदी : चंद्र कौन क्या खाता है ? पर्युषण महापर्व : अक्कल को खाता है। : मन को खाता है। : प्रमाणिकता को खाती है। : जीवन को खाता है। : मित्रता को खाती है। * : प्रगति को खाती है। : प्रेम को खाती है। : मोक्ष को खाता है। : सभी सद्गुणों को खाता है। : आयुष्य को खाती है। 054 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन इतिहास MAn0 हंस और केशव देव बना बंदर अष्टापद तीर्थ जन्म महोत्सव शासन स्थापना (मुझे पढ़कर तुम भी मेरे पथ पर चलना) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखी होने के दस रास्ते : (1) व्यवहारिक बनो । (2) बहुत ही कम बोलो । ( 3 ) सोचो, फिर कुछ बोलो । (4)पहले लिखो ! बाद में दो । (5) काम में सदैव व्यस्त रहो । (6)सबको सम्मान देकर बुलाओ । (7) अपनी गलतियों को तुरंत स्वीकारो । (8) सबकी राय लेकर ही निर्णय लो । (9) स्वहित अथवा परहित के लिए कभी, ना कहना भी सीखो। (10) बिना जरुरत कभी खरीदी ना करो । दु:खी होने के दस रास्ते : (1) बिना मांगे किसी को सलाह देना । (2) बिना कारण ही झूठ बोल देना । ( 3 ) किसी का भी विश्वास न करना । (4) किसी के लिए कुछ भी न करना । (5) लेन-देन का ठीक से हिसाब न रखना । ( 6 ) हमेशा स्वयं के लिए ही सोचना । (7) भूतकाल के सुखों को याद करना | (8) कोई भी काम समय से न करना । (9) स्वयं की बातों को ही सत्य बताना । (10) रोज देरी से सोना, देरी से उठना । SUPER STOCK superstock.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर-गौतम चरित्र महावीर स्वामी का जन्म - कालचक्र का दुषम-सुषम नामक चौथा आरा बहुत बीत जाने के बाद चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को मध्यरात्रि के समय क्षत्रियकुण्ड ग्राम में माता त्रिशला की कुक्षि से तीन ज्ञान सहित प्रभु महावीर का जन्म प्रभु का जन्मोत्सव मनाने के लिए सर्व प्रथम छप्पन दिक्कुमारिकाओं ने आकर सूतिका कर्म किया फिर सौधर्म देवलोक के इन्द्र पधारें और प्रभु को मेरू पर्वत के पांडुक वन में ले गए। वहाँ सब इन्द्रइन्द्राणियों व देवों ने मिलकर प्रभु का जन्माभिषेक किया। पुत्र जन्म के बाद प्रियंवदा दासी ने सिद्धार्थ राजा को पुत्र जन्म की बधाई दी। यह सुनकर सिद्धार्थ राजा ने हर्षित होकर मुकुट के सिवाय शरीर पर धारण किए हुए सर्व आभूषण दासी को दे दिए एवं उसके दासत्व को हमेशा के लिए दूर कर दिया। साथ ही मुक्त हृदय से नगर में महोत्सव मनाया। कैदियों को बंधन मुक्त किया और नागरिकों का कर माफ कर दिया। नामकरण - जन्म के बाद बारह दिन के पश्चात् प्रभु के नामकरण का उत्सव रखा गया। प्रभु का नामकरण किसी पंडित के द्वारा संपन्न न होकर त्रिशला रानी तथा राजा सिद्धार्थ के विचार-विमर्श से संपन्न हुआ। सिद्धार्थ राजा ने स्वजन-संबंधियों से कहा- "हे देवानुप्रियों ! जिस दिन से यह पुत्र गर्भ में आया है उस दिन से हमारे राज्य भंडार में धन-धान्य, सोना-चाँदी, मणि-माणेक आदि की अपार अभिवृद्धि हुई है। इसलिए हम चाहते हैं कि पुत्र का नाम 'वर्धमान' रखा जाये।" उपस्थित सभी लोगों ने सिद्धार्थ राजा एवं त्रिशला रानी के प्रस्ताव का समर्थन किया और 'वर्धमान' के जयघोष के साथ नामकरण-संस्कार संपन्न हुआ। महावीर प्रभु के और भी अनेक नाम उपलब्ध होते हैं, यथा .1. माता-पिता के द्वारा प्रदत्त नाम 2. देवों द्वारा प्रदत्त नाम 3. पितृवंश के कारण प्राप्त नाम 4. काश्यप गोत्र के कारण 5. देवों के आदरणीय होने के कारण 6. माता त्रिशला विदेह कुल की होने के कारण 7. सहज स्वाभाविक गुणों के कारण प्रभु की आमलकी क्रीड़ा और देव पर विजय - 055 वर्धमान महावीर ज्ञातपुत्र काश्यप देवार्य विदेह पुत्र श्रमण Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु खेलते-कूदते जब आठ वर्ष के हुए, तब अपनी उम्र के राजकुमारों के साथ उस देश में प्रसिद्ध आमलकी क्रीड़ा करने के लिए नगर के बाहर एक पीपल के वृक्ष के नीचे पहुँचे। फिर वे सब भाग-दौड़ का खेल खेलने लगे। दो-दो लड़के एक साथ दौड़ते। उनमें से जो पीपल के पेड़ को पहले छ लेता, वह जीत जाता और पीछे रहने वाला हार जाता। हारने वाला जीतने वाले को अपने कंधे पर बैठाकर जिस स्थान से दौड़ लगी थी, उस स्थान पर ले जाता। इस प्रकार का खेल भगवान अपनी उम्र के लड़कों के साथ खेल रहे थे। उस समय सभा में बैठे हुए सौधर्मेन्द्र ने अवधिज्ञान से भगवान का धैर्य-सत्त्व जानकर कहा कि, “वर्तमान समय में श्री वर्धमान प्रभु के जैसा अन्य कोई सत्त्वशाली नहीं है।" तब इन्द्र महाराज के वचन पर विश्वास न करते हुए परीक्षा करने के लिए एक मिथ्यात्वी देव वहाँ से उठकर जहाँ भगवान खेल रहे थे, वहाँ जा पहुँचा। देव ने पीपल की नीचली डालियों में सर्वत्र फूत्कार करने वाले सर्प का रूप बनाया। फिर वह भगवान के सामने फणा फैला कर उन्हें डराने लगा। जिससे बच्चें डरकर भाग गये पर भगवान ने उस सर्प को अपने हाथ से उठाकर दूर फेंक दिया। इससे बच्चें पुन: आकर खेलने लगे। फिर वह देव बालक का रूप बनाकर भगवान के साथ खेलने लगा। तब भगवान ने अत्यन्त वेग से दौड़ कर तुरन्त पीपल के पेड़ को छू लिया। इससे वह देवकृत बालक हार गया और श्री वर्धमान जीत गये। तब उस देवरूप बालक ने अपने कंधे पर भगवान को बिठाया। फिर उन्हें डराने के लिए उसने सात ताड़वृक्ष जितना ऊँचा रूप बनाया। उसे देखकर अन्य सब बालक पुन: डर कर भाग गये। भगवान ने अपनी मुट्ठी से देव की पीठ पर वज्रप्रहार किया। इससे वह देव चीखता हुआ जमीन पर गिर गया। फिर अत्यन्त लज्जित होकर अपना रूप प्रकट कर देव ने कहा कि "हे प्रभो ! इन्द्र महाराज ने जैसी आपकी प्रशंसा की थी, आप वैसे ही धैर्यवान एवं महाबलवान हो। आप वीर नहीं वीरों के भी वीर महावीर हो।" तब से प्रभु का नाम महावीर प्रचलित हुआ। . पाठशाला में - एक दिन शुभ मुहूर्त में माता त्रिशला और सिद्धार्थ राजा प्रभु को हाथी पर बैठाकर पढ़ाने के लिए ठाठ-बाठ से पाठशाला ले गये। इस अवसर पर इन्द्र का आसन कंपायमान हुआ। इन्द्र ने सोचा, “प्रभु तो तीन ज्ञान सहित है, अध्यापक इन्हें क्या पढ़ायेंगे।" यह सोचकर इन्द्र एक ब्राह्मण का रूप बनाकर अध्यापक के पास पहुँचे। व्याकरण संबंधी अनेक शंकाएँ प्रस्तुत की। अध्यापक उनका समाधान नहीं दे सके। तब इन्द्र ने वे ही प्रश्न भगवान को पूछे। भगवान ने नि:शंक होकर तत्काल उन प्रश्नों के उत्तर दे दिए। अध्यापक मन में सोचने लगे कि “इस छोटे बालक ने मेरे सब सन्देह दूर कर दिये।" तब इन्द्र ने अपना रूप बदलकर (056) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठशाला में वर्धमान SEANIHERE देव द्वारा बालक वर्धमान के धैर्य व साहस की परीक्षा भगवान महावीर द्वारा वर्षीदान र Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले द्वारा रस्सी से भगवान को उपसर्ग, इन्द्र द्वारा बचाव। इन्द्र के सेवा के प्रस्ताव काश्रमण महावीर द्वारा अस्वीकार भगवान महावीर को चंडकौशिक नाग का उपसर्ग। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का परिचय दिया। अध्यापक भगवान के पैर में गिर कर बोले “हे प्रभो! आप ज्ञान समुद्र हो। आप मेरे गुरु हो।' फिर भगवान ने अध्यापक को खूब दान दिया। प्रभु के माता-पिता भी बहुत प्रसन्न हुए और धूम-धाम से प्रभु को घर ले आए। प्रभु का विवाह भगवान ने बाल्यावस्था पार कर जब यौवनवय में प्रवेश किया तब माता-पिता ने शुभ मुहूर्त निकलवाकर बड़े ठाठ-बाठ से यशोदा के साथ प्रभु का विवाह किया। प्रभु जलकमलवत् निर्लेप भाव से संसार सुख भोग रहे थे। यशोदा रानी के साथ विषय सुख भोगते हुए भगवान को प्रियदर्शना नामक पुत्री हुई। भगवान की बहन के पुत्र जमाली के साथ उसका विवाह हुआ। इस प्रकार गृहस्थ जीवन जीते हुए भगवान अट्ठाईस वर्ष के हो गये। प्रभु की दीक्षा. भगवान जब अट्ठाईस साल के हुए तब उनके माता-पिता का देवलोक गमन हो गया। उस समय उन्होंने अपने बड़े भाई नन्दीवर्द्धन से दीक्षाग्रहण के लिए आज्ञा मांगते हुए भाई से कहा कि “माता-पिता के जीवित रहने तक घर में रहने की मेरी प्रतिज्ञा थी; वह अब पूर्ण हो गयी है। इसलिए अब मुझे दीक्षा लेने की आज्ञा दीजिए।" तब नन्दीवर्द्धन ने कहा कि “हे भाई! तुम जले पर नमक क्यों छिड़कते हो ? एक तरफ माता-पिता के वियोग का दुःख और उस पर दूसरी तरफ तुम्हारा वियोग। अभी तो माता-पिता का शोक भी नहीं मिटा है। इसलिए इस समय मैं तुम्हें दीक्षाग्रहण की अनुमति नहीं दे सकता।' तब भगवान ने कहा कि “हे भाई! मैं दो साल घर में रहूँगा, पर सब आहार-पानी प्रासुक लूँगा और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करूँगा।" फिर प्रभु की दीक्षा का समय होते ही नव लोकांतिक देवों ने आकर प्रभु से विनंती की। “जय जय नंदा! जय जय भद्दा! जय जय खत्तिवर वसहा! हे परमतारक प्रभु! आप की जय हो! विजय हो! हे क्षत्रियों में श्रेष्ठ ऋषभ समान प्रभु आप की जय हो! हे तीन लोक के नाथ! आप संयम धर्म स्वीकारो! कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करो। विश्व के सर्व जीवों के लिए हितकारी ऐसे धर्म तीर्थ की स्थापना करो।" देवों की विनंती से प्रभु ने वर्षीदान देना प्रारंभ किया। भगवान के वर्षीदान की विशेषता 1. “हे भव्यात्माओं ! आओ पधारो, प्रभु के हाथ से वर्षीदान को ग्रहण कर अपने मनोवांछित फल को प्राप्त करो" इस प्रकार की घोषणा प्रतिदिन देवी-देवता करते हैं। 2.प्रभु प्रतिदिन दो प्रहर यानि कि प्रात: 6 से 12 बजे तक 1 करोड़ 8 लाख सुवर्ण मुद्रा दान में देते हैं। 3. प्रभु के हाथ से वर्षीदान लेने वाले भव्य जीव ही होते हैं। जीव के भाग्यानुसार इन्द्र, प्रभु के हाथ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में वर्षीदान कम आया हो तो बढ़ा देते हैं और अधिक आया हो तो कम कर देते हैं। 4. दूर-दूर के गाँव से पुण्यात्माओं को प्रभु के वर्षीदान के लिए देवता ले आते हैं और पुन: उनके स्थान पर छोड़ देते हैं। 5. प्रभु के हाथ से दान मिलने पर प्रौढ़ व्यक्ति भी युवावस्था के समान शोभनीय बन जाता है। यावत् जब वे घर जाते हैं तब उनकी पत्नी भी उन्हें नहीं पहचान पाती है। ___6. प्रभु के अतिशय से दान लेने वाले जीवों में संतोष गुण प्रगट होता है एवं छ: महीने के पुराने रोग भी दूर हो जाते हैं। तथा 12 वर्ष तक नये रोग उत्पन्न नहीं होते। इस तरह 1 वर्ष तक जीवों के दुःख दारिद्र का नाश करते हुए मगसर वद दशम के दिन चन्द्रप्रभा नाम की पालखी में बैठकर भव्य वरघोड़े के साथ दीक्षा लेने के लिए प्रभु ज्ञातखंड उद्यान में पधारें। वहाँ इन्द्र रचित सिंहासन पर प्रभु ने स्वयं सर्व अलंकार उतारे। फिर पँचमुष्टि लोच किया। उस समय इन्द्र महाराज ने प्रभु के मस्तक पर वज्र फेरा । दीक्षा के बाद प्रभु के केश, रोम, नख, दाढ़ी-मूंछ आदि नहीं बढ़ते। यह प्रभु का अतिशय जानना। फिर 'नमो सिद्धाणं' सिद्धों को नमस्कार कर, संकल्प की भाषा में प्रभु बोले - “करेमि सामाइयं सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि ...'' अर्थात् आज से मेरे लिए सभी पाप कर्म अकरणीय है। तथा केवलज्ञान होने तक देव, मनुष्य, तिर्यंच की ओर से जो भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे उनको समता भाव से मैं सहन करूँगा।" ऐसा दृढ़ संकल्प कर पारिवारिक व अन्य सभी जनों से विदा लेकर भगवान ने वहाँ से विहार कर दिया। (1) ग्वाले काउपसर्ग कुमार ग्राम के बाहर भगवान ध्यान में लीन थे, तभी एक ग्वाला वहाँ आया और अपने बैलों को प्रभु को सौंपकर गाँव में चला गया। थोड़ी देर बाद पुन: लौटकर आया तो देखा उसके बैल वहाँ नहीं थे। तब उसने भगवान से पूछा-बाबा ! मेरे बैल यहाँ चर रहे थे। मैं आपको सौंपकर गया था, वे कहाँ हैं ? भगवान मौन रहें । तब ग्वाला बैलों को ढूँढ़ने के लिए चल पड़ा। पूरी रात ढूँढ़ता रहा पर बैल नहीं मिलें। संयोगवश वे बैल रात्रि में भगवान के पास आकर बैठ गए । ग्वाले ने जब प्रात: वहाँ पर बैलों को बैठे हुए देखा तो क्रुद्ध हो उठा और प्रभु पर कोड़े बरसाने लगा। तभी इन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा और वहाँ आकर मूर्ख ग्वाले को समझाया-“जिन्हें तुम मार रहे हो, वे हमारे तीर्थंकर भगवान हैं।" भगवान से इन्द्र ने प्रार्थना की कि - "हे भगवन् ! आपको छद्मस्थ अवस्था में बहुत उपसर्ग आयेंगे। आप मुझे अपनी सेवा में रहने की आज्ञा दे।" तब भगवान ने कहा-"न भूतो न भविष्यति' ऐसा न कभी हुआ है और न होगा। तीर्थंकर कभी दूसरों के बल पर साधना नहीं करते। वे अपने सामर्थ्य से ही कर्मों का क्षय करते हैं।' यह सुनने पर भी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणान्तिक उपसर्ग दूर करने के लिए सिद्धार्थ नामक देव को भगवान के पास रखकर इन्द्र अपने स्थान पर चले गये। (2)प्रभु की समता दीक्षा के अवसर पर पारिवारिक जनों ने उनका अभिषेक किया था। दिव्य गोशीर्ष चंदन और सुगंधित चूर्ण से उनके शरीर को सुवासित किया था। इससे उनके शरीर से प्रस्फुटित सुगंध से आकर्षित हो भौरे कमलकोशों को छोड़कर उनके शरीर पर मंडराने लगे। वे भगवान के शरीर पर बैठे, उन्हें पराग नहीं मिला। वे उड़कर चले गए, परिमल से आकृष्ट होकर फिर आए और पराग न मिलने पर रुष्ट हो भगवान को काटने लगे। प्रभु महावीर ने उन्हें समता से सहन किया। भगवान कुमारग्राम में विचरण कर रहे थे। एक दिन कुछ युवक सुगंध से आकृष्ट हो भगवान के पास आए और प्रार्थना की- राजकुमार ! आपने जिस गंधचूर्ण का प्रयोग किया है, उसके निर्माण की विधि हमें भी बताईए। भगवान ने इसका उत्तर नहीं दिया। वे क्रुद्ध हो गालियाँ देने लग गए। ... भगवान के सौन्दर्य से आकर्षित हो एक बार रात के समय तीन सुन्दर स्त्रियाँ वहाँ आयी। भगवान से रति-प्रणय की विविध चेष्टाएँ की। अपना समग्र न्यौछावर करने को तैयार हो गई, पर प्रभु महावीर पर उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ। (उ)पैरों पर खीर पकाई भगवान प्राय: ध्यान में लीन रहते थे। एक बार जंगल में वे ध्यान कर रहे थे। वहाँ एक थका और भूखा पथिक आया। खाना बनाने के लिए इधर-उधर चूल्हा ढूँढ रहा था, पर उसे एक भी पत्थर नहीं मिला। तभी उसे भगवान दिखाई दिये। जिनके कुछ अँगुल की दूरी पर फैले हुए पैर चूल्हे के आकार में प्रतीत हो रहे थे। पथिक ने पैरों के बीच आग प्रज्ज्वलित की और खीर पकाई। भगवान के पैर झुलस गए, किन्तु उनकी समाधि में कोई फर्क नहीं पड़ा, वे ज्यों के त्यों खड़े रहे। अहो ! धन्य है प्रभु की पूर्णिमा के चन्द्र सम समभाव सौम्यता को ... (4)चंडकौशिक सर्प का उपसर्ग और उसे प्रतिबोध एक बार उत्तरवाचाल सन्निवेश में जाते समय भगवान मार्ग में वर्द्धमान गाँव पहुँचे। वहाँ से सुवर्णवालुका और रौप्यवालुका ये दो नदियाँ पार कर आगे बढ़े। आगे दो मार्ग थे। एक वक्रमार्ग और दूसरा सरल मार्ग। लोगों ने उन्हें बताया कि सरल मार्ग में सर्प का भय है, इसलिए आप उस रास्ते न जाये। पर भगवान उस साँप को प्रतिबोध देने के लिए वक्रमार्ग छोड़कर सरल मार्ग में आगे बढ़े। उस मार्ग में कनकखल वन में एक तापस का आश्रम था। वहाँ एक महाबलवान बहुत डंकिला चंडकौशिक साँप रहता था। (059 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह वहाँ किसी को रहने नहीं देता; जिस किसी को देखता, उसे जलाकर भस्म कर देता। उस साँप के बिल के पास भगवान काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे। यह देखकर साँप ने क्रोध से प्रभु को डंक मारा, तब प्रभु के पैर से दूध के समान खून निकला। यह देख कर साँप ने सोचा कि मैं जिसके सामने देखता हूँ, वह जलकर भस्म हो जाता है। इसे तो डंक मारा है, फिर भी सफेद खून निकला इसलिए यह कोई महापुरुष लगता है। यह सोचकर उसने भगवान के मुख की ओर देखा । तब भगवान ने मधुर वचन में कहा “बुज्झबुज्झ चंडकौशिक ” यह सुनकर साँप को लगा कि ऐसा रूप मैंने कहीं देखा है। इतने में उसे मूर्च्छा आ गई और जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने अपना पिछला भव देखा। फिर प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर कहा कि “हे करुणासागर! मुझ पर करुणा कर आप यहाँ पधारे ; अब कृपा कर दुर्गति रूप कुएँ से मेरा उद्धार कीजिये।" फिर 15 दिन का अनशन कर, चींटियों का उपसर्ग सहन करके वह सर्प मरकर 8 वें देवलोक में गया। प्रभु भी सर्प की समाधि के लिए 15 दिन तक वहीं रुके। (5) प्रभु को कटपूतना देवी का उपसर्ग : - त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में भगवान की एक अपमानिता रानी थी। वह स्त्री अनेक भवभ्रमण कर इस भव में कटपूतना नामक व्यन्तरी बनी थी। भगवान को देखकर उसे द्वेष उत्पन्न हुआ। उसने तापसी का रूप बनाकर अपनी जटा में पानी भरकर भगवान के शरीर पर छाँटा । सर्दी की ऋतु तो थी ही और उसमें व्यन्तरी ने मेघवृष्टि कर ठंडी हवा चलायी। व्यन्तरी के उपसर्ग में प्रभु अडिग रहें। ऐसे धैर्यवान प्रभु को जानकर अपना अपराध खमाकर वह व्यन्तरी अपने स्थान पर चली गयी। (6) संगम द्वारा परीक्षा एक बार इन्द्र ने अपनी देव पर्षदा में भगवान महावीर के साधना की प्रशंसा की । इन्द्र ने कहा- "उन्हें सम्पूर्ण तीन लोक की देव शक्ति मिलकर भी विचलित नहीं कर सकती"। सभी देवों ने इस बात का समर्थन किया। प्रथम देवलोक के एक सामानिक देव संगम ने भी यह बात सुनी। उसे इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह बोला-“मैं उसे विचलित कर सकता हूँ” और वह भगवान को विचलित करने हेतु वहाँ से चल पड़ा। भगवान अपनी ध्यान-साधना में लीन थे। संगम देव ने उन्हें विचलित करने हेतु एक रात्रि में बीस मरणान्तिक कष्ट दिये। कभी प्रलयकारी धूलिपात किया तो कभी वज्रमुखी चींटियाँ बनाकर शरीर को काँटा। कभी बिच्छू बनकर तो कभी भीमकाय सर्प बनकर डंक मारा। कभी पैरों एवं दांतों से भगवान को कुचला तो कभी राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला का रूप बनाकर रूदन किया। भगवान महावीर हर कष्ट को समता से सहन कर रहे थे। संगम देव के प्रति आक्रोश के भाव उनके 060 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर को कटपूतना द्वारा उपसर्ग। चदनबाला द्वारा भगवान महावीर का पारणा। संगम देव द्वारा एक ही रात्री में भगवान महावीर को 20 भीषण उपसर्ग। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर को अनार्यदेश में आदिवासियों द्वारा विविध उपसर्ग । भगवान महावीर की कार्य में काले होना तथा उनका उपचार Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में भी नहीं आये। संगम भगवान को कष्ट देते-देते थक गया, किन्तु उन्हें विचलित नहीं कर सका । आखिर हारकर वह जाने लगा। तब प्रभु ने सोचा कि जहाँ सारी दुनिया मेरे निमित्त से कर्मों को तोड़ रही है वहाँ यह मुझे निमित्त बनाकर कर्मों से भारी बन रहा है। इन भावों से प्रभु के हृदय की करुणा आँखों के आँसू बनकर बरसने लगी, धन्य है ! कारुण्य सागर प्रभु को ! जो अपकारी के प्रति भी तारकता धारण करते हैं। (7) प्रभु का अनार्य देश में विहार - भगवान ने अपना नौंवा चातुर्मास अनार्य देश में व्यतीत किया। लोगों ने बहुत समझाया-वहाँ के लोग हिंसक, क्रूर और माँसाहारी होते हैं। वे नर-माँस खाते हैं। परिचय न बताने पर पिटाई करते हैं, शिकारी कुत्ते पीछे छोड़ देते हैं। अत: आप वहाँ न जाये । भगवान रुके नहीं, विहार कर आदिवासियों के बीच पहुँच गये। एक बार वे गाँव में जा रहे थे। ग्रामवासी लोगों ने कहा - "हे नग्न ! तुम किसलिए हमारे गाँव में जा रहे हो, वापस चले जाओ।” ठहरने के लिए किसी ने स्थान नहीं दिया, प्रभु वहाँ से वापस चले आये और सघन वृक्षों के नीचे विश्राम किया। धन्य है ! प्रभु की शरद ऋतु के जल समान निर्मल मनोभावों से आत्मानंद में मग्नता को । • • एक बार प्रभु पूर्व दिशा की ओर मुँह कर खड़े-खड़े सूर्य का आतप ले रहे थे। कुछ लोग सामने आकर खड़े हो गए, पर भगवान ने उनकी ओर नहीं देखा तो वे चिढ़ गये और उन पर भूँककर आगे चले गये। भगवान शांत रहे। बच्चें उनकी आंखों में धूल फेंकते, पत्थर फेंकते, गाली देते पर भगवान के मन में उनके प्रति भी प्रेम प्रवाहित रहता। (8) चंदनबाला के हाथ से पारणा-' उसकी कथा इस प्रकार है : : चंपानगरी के दधिवाहन राजा की धारिणी रानी की वसुमती पुत्री थी। एक बार कौशंबी के शतानीक राजा ने राज्य विरोध के कारण चंपानगरी को घेर लिया। युद्ध में दधिवाहन राजा राज्य छोड़कर भाग गए। शतानीक राजा ने चंपापुरी को लूटा। एक सैनिक ने धारिणी रानी एवं वसुमति को पकड़ लिया। उसने धारिणी रानी को अपनी स्त्री बनने को कहा। तब धारिणी रानी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जीभ खींचकर अपने प्राण त्याग दिये। धारिणी रानी के मरने से सैनिक डर गया और उसने वसुमती से कहा कि “ मैं तुझसे शादी नहीं करूँगा। तुम मुझसे मत डरो। " सैनिक उसे अपने घर ले गया। तब सैनिक की पत्नी ने उसे बेचकर रूपये लाने को कहा। इससे सैनिक उसे कौशंबी नगरी के बाज़ार में बेचने के लिए ले गया। वहाँ एक वेश्या उसे खरीदने आयी लेकिन महामंत्र के स्मरण से कुछ बंदर वहाँ आकर वेश्या को काटने लगे जिससे वेश्या भाग गई। इस प्रकार वेश्या से वसुमती की रक्षा हो गई। फिर धनावह सेठ उसे खरीदकर अपने घर ले गए। वसुमती 061 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के चन्दन जैसे स्वभाव को देखकर सेठ ने उसका नाम चन्दनबाला रखा। चंदना का रूप देख सेठ की पत्नी मूला को शंका होने लगी कि सेठ स्वयं इसके साथ विवाह कर लेंगे और यह मेरी सौत बन जायेगी। एक दिन सेठ जब बाहर गाँव गये थे तब मौका देखकर मूला ने चन्दनबाला के सिर का मुंडन कर, उसके हाथ और पैरों में बेड़ियाँ डालकर उसे तहखाने में बंद कर दिया और खुद पियर चली गई। तीन दिन चंदना ने भूखेप्यासे महामंत्र के स्मरण में बिताए। सेठ जब घर आए तब चंदना दिखाई नहीं दी तब पडोसी ने मूला की करतूते सेठ को बताई। सेठ ने तहखाना खोलकर चंदना को बाहर निकाला और एक सूपडे में उड़द के बाकुले देकर, उसकी बेडियाँ तुडवाने के लिए लुहार को बुलाने गया। चंदनबाला ने मन में विचार किया कि-यदि कोई अतिथि आए तो उसे भोजन देकर फिर खाऊँ और इस तरफ भगवान ने कुछ कर्म शेष रहे जानकर कौशंबी नगरी में अपनी इच्छा से निम्न अभिग्रह लिये थे। (1) जिसने सूपड़े के कोने में उड़द के बाकुले रखे हो; (2) एक पैर घर की दहलीज़ के भीतर और एक पैर बाहर हो; (3) राजपुत्री हो और उसे दासत्व प्राप्त हुआ हो, बाज़ार में बेची गई हो; (4) सिर मुंडित हो; (5) उसके हाथों एवं पैरों में बेड़ियाँ लगी हो, नवकार मंत्र का स्मरण कर रही हो; (6) अट्ठम तप सहित रुदन करती बैठी हो। भिक्षा काल व्यतीत हो गया हो तो ही पारणा करना; . ऐसा अभिग्रह धारण कर श्री वीर भगवान गोचरी के लिए नित्य भ्रमण करते पांच महिने और 25 दिन बीत गये। पर कहीं भी ऐसा योग नहीं बना। राजा के मंत्री प्रमुख लोगों ने अनेक उपाय किये, पर अभिग्रह न फला। प्रभु फिरते-फिरते चंदनबाला के घर आंगन में पधारें। उन्हें देख हर्षित होकर चंदना बाकुला वहोराने लगी। लेकिन अपने अभिग्रह में आँख में आँसू को न देखकर प्रभु आहार ग्रहण किए बिना ही लौटने लगे। यह देख चंदना अत्यंत दु:खी होकर रुदन करने लगी। तब प्रभु ने उसे रुदन करते देख अपना अभिग्रह संपूर्ण हुआ जानकर चंदनबाला के हाथ से पारणा किया। उसी समय आकाश में देव दुंदुभि बजी एवं पंच दिव्य प्रकट हुए। चंदनबाला के मस्तक पर सुंदर केश आ गए और लोहे की बेडियों के स्थान पर सुंदर दिव्य आभूषण बन गये। इस तरह प्रभु वीर के पाँच मास और पच्चीस दिन के तप का पारणा चंदनबाला के हाथों हुआ। प्रभु के केवलज्ञान के पश्चात् चंदनबाला उनकी प्रथम साध्वी बनी। (१) गोपालक कृतवर्णकीलोपसर्ग : प्रभु ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में सीसा गरम कर के डलवाया था, वह कर्म Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ उनके उदय में आया। वह शय्यापालक अनेक भवभ्रमण कर अब गोपालक हुआ था। उसने भगवान को अपने बैल सौंपे और स्वयं गाँव में गया। वहाँ से लौटने पर उसे अपने बैल दिखाई नहीं दिये। फिर रात भर घूम-घूम कर उसने अपने बैलों को ढूंढा। सुबह जब भगवान के पास आया, तब उसे वहाँ अपने बैल दिखाई दिये। __उस समय पूर्व भव के वैर के कारण उसके मन में द्वेष उत्पन्न हुआ। और उसने भगवान के कानों में खीले ठोंके इससे भगवान को महावेदना हुई। भगवान सिद्धार्थ वणिक के घर गोचरी गये। वहाँ खरक वैद्य ने भगवान को सशल्य देखा। व्यथा मिटाने के लिए सेठ और वैद्य दोनों प्रभु के पीछे-पीछे गये। फिर वैद्य ने कान में रही हुई कील सँडासे से पकड़कर रेशम की डोरियों से दोनों तरफ दो वृक्षों की डालों से बाँधकर दोनों डालियाँ झुकाकर एक ही समय में एक साथ उन्हें छोड़ा। इससे दोनों कानों के खीले तुरंत एक साथ निकल गए। पर उस समय प्रभु को इतनी तीव्र वेदना हुई कि जिससे प्रभु जोर से चीख पड़े। उस चीख से पर्वत फट गया। जो वर्तमान में बामणवाड़ा तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। भगवान जब भी जहाँ-जहाँ बैठे, गोदुहासन में बैठे, पर किसी भी दिन धरती पर नहीं बैठे। इन साढ़े बारह वर्षों में प्रभु ने मात्र दो घड़ी शूलपाणि यक्ष के मंदिर में नींद ली। शेष सब काल निद्रारहित बीता। (10) प्रभुको केवलज्ञान: प्रभु ने साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में कुल 11 वर्ष 6 महिने 15 दिन चउविहार उपवास तथा 349 पारणे एकासणे से किये। पारणे में श्री प्रभु ने पानी नहीं वापरा। काया को वोसिरा कर समभाव से उपसर्गों को सहन करते-करते साढ़े बारह वर्ष बीत गये। ग्रीष्म ऋतु का वैशाख महिना आया। शुक्ला दशमी का दिन था। भगवान चूंभिकाग्राम नगर के बाहर ऋजुवालिका नदी के किनारे गोदोहिका आसन में बैठे थे। ध्यान की क्षपक श्रेणी का आरोहण करते-करते अनावरण हो गये। चार घाति कर्मों के बंधन पूर्णतः टूट गये। वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवलज्ञानी बन गये। ___ केवली बनते ही चौसठ इन्द्रों व अनगिनत देवी-देवताओं ने भगवान का 'केवलज्ञान महोत्सव' मनाया। देवों ने समवसरण की रचना की। इस समवसरण में केवल देवी-देवता थे। प्रभु ने क्षण भर देशना दी। पर किसी ने सामायिकादि व्रत ग्रहण नहीं किए, क्योंकि देवों में यह प्राप्त करने की योग्यता नहीं होती। अतः प्रभु महावीर तीर्थ की स्थापना नहीं कर सके। तत्पश्चात् प्रभु महावीर स्वामी वहाँ पर लाभ का अभाव जानकर रात्रि में ही विहार कर बारह योजन दूर अपापा नगरी के महसेन नामक वन में आए। नोट : तीर्थंकर का व्यवहार कल्पातीत होने से एवं उन्हें केवलज्ञान होने से वे रात्रि में विहार करे तो भी कोई दोष नहीं है, परन्तु प्रभु महावीर का उदाहरण लेकर अन्य साधु-साध्वी इस प्रकार विहार नहीं कर सकते। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वामी का समवसरण में पदार्पण मगध देश में गोबर नामक गाँव में वसुभूति नामक एक गौतम गौत्री ब्राह्मण रहता था। उसे पृथ्वी नामक स्त्री से इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन पुत्र हुए। अपापा नगरी में सोमिल नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण ने यज्ञ कर्म में विचक्षण ऐसे तीन गौतम गौत्री ब्राह्मणों और उस समय के ब्राह्मणों में महाज्ञानी माने जाते अन्य आठ द्विजों को भी यज्ञ करने बुलाया था। सबसे बड़े इन्द्रभूति, गौतम गौत्री होने से गौतम नाम से भी पहचाने जाते थे। यज्ञ चल रहा था, उस समय वीर प्रभु का केवलज्ञान महोत्सव करने एवं वंदना की इच्छा से आते देवताओं को देखकर गौतम ने अन्य ब्राह्मणों को कहा- 'इस यज्ञ का प्रभाव देखो! हमारे मंत्रों से आमंत्रित देवता प्रत्यक्ष यहाँ यज्ञ में आ रहे हैं।' परंतु उस समय यज्ञ का वाड़ा छोड़कर देवताओं को समवसरण में जाते देखकर लोग कहने लगे 'हे नगरजनों! सर्वज्ञ प्रभु उद्यान में पधारे हैं। उनको वंदन करने के लिये ये देवता हर्ष से जा रहे हैं।' 'सर्वज्ञ' ऐसे शब्द सुनते ही मानो किसी ने वज्रपात किया हो उस प्रकार इन्द्रभूति कोप कर बोले, 'अरे! धिक्कार! धिक्कार! मरुदेश के मनुष्य जिस प्रकार आम्र छोड़कर करीर के पास जाते है वैसे ये देव मुझे छोड़कर उस पाखंडी के पास जा रहे हैं। क्या मेरे से अधिक कोई अन्य सर्वज्ञ है ? शेर के सामने अन्य कोई पराक्रमी होता ही नहीं। कदापि मनुष्य तो मूर्ख होने से उनके पास जाए तो भले जाए परन्तु ये देवता क्यों जाते हैं ? इससे उस पाखंडी का दंभ कुछ महान लगता है।' ‘परंतु जैसा वह सर्वज्ञ होगा वैसे ही ये देवता लगते हैं, क्योंकि जैसा यज्ञ होता है वैसी ही बलि दी जाती है। अब इन देवों और मनुष्यों के समक्ष मैं उसकी सर्वज्ञता के गर्व को चकनाचूर कर दूंगा। इस.प्रकार अहंकार से बोलता हुआ गौतम पाँच सौ शिष्यों के साथ समवसरण में सुर-नरों से घिरे हुए श्री वीर प्रभु जहाँ बिराजमान थे वहाँ आ पहुँचा। प्रभु की समृद्धि और चमकता तेज देखकर आश्चर्य पाकर इन्द्रभूति बोल उठा, 'यह क्या?' इतने में तो 'हे गौतम इन्द्रभूति! सुख पूर्वक आए' जगद्गुरु ने अमृत जैसी मधुर वाणी में कहा। यह सुनकर गौतम सोचने लगा कि 'क्या यह मेरे गोत्र और नाम को भी जानता है ? हाँ जानता ही होगा ना, मुझ जैसे जगप्रसिद्ध मनुष्य को कौन नहीं जानेगा? परंतु यदि ये मेरे हृदय में रहे हुए संशय को बताये और उसे अपनी ज्ञान संपत्ति से छेद डाले तो ये सच्चे सर्वज्ञ हैं, ऐसा मैं मान लूँ।' । इस प्रकार हृदय में विचार करते ही ऐसे संशयधारी इन्द्रभूति को प्रभु ने कहा, 'हे विप्र! जीव है कि नहीं? ऐसा तेरे हृदय में संशय है ना, परंतु हे गौतम! जीव है, वह चित्त, चैतन्य विज्ञान और संज्ञा आदि लक्षणों से जाना जा सकता है। यदि जीव न हो तो पुण्य-पाप का पात्र कौन? और तुझे यह यज्ञ -दान आदि करने का निमित्त भी क्या ?' इस प्रकार प्रभु के अतिशय वाले वचन सुनकर गौतम ने मिथ्यात्व के साथ संदेह Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी छोड़ दिये और प्रभु के चरणों में नमस्कार करके बोले- 'हे स्वामी! ऊँचे वृक्ष का नाप लेते वामन पुरुष की भाँति मैं दुर्बुद्धि आपकी परीक्षा लेने यहाँ आया था। हे नाथ! मैं दोषयुक्त हूँ, फिर भी आपने मुझे भली प्रकार से प्रतिबोध दिया है। तो अब संसार से विरक्त बने हुए मुझे दीक्षा दीजिए।' प्रभु ने अपने प्रथम गणधर बनेंगे ऐसा जानकर उनको पाँच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा दी। प्रभु ने पाँचसौ शिष्यों के साथ इन्द्रभूति को देवताओं द्वारा अर्पण किए हुए धर्म के उपकरण प्रदान किये। इन्द्रभूति की तरह अग्निभूति आदि अन्य दस द्विजों ने भी बारी-बारी से आकर अपना संशय प्रभु महावीर से दूर किया, तथा अपने शिष्यों के साथ दीक्षा ग्रहण की। शासन स्थापना इस प्रकार क्रमश: 11 ब्राह्मणों ने प्रभु के पास दीक्षा ली। एकादश नूतन दीक्षित मुनि प्रभु को प्रदक्षिणा लगाकर पूछते है “भयवं किं तत्तं ?" प्रभु कहते. है "उप्पन्नेई वा” अर्थात् जगत में सब पदार्थ उत्पन्न होते हैं। यह सुनकर मुनियों को संशय होता है कि पदार्थ यदि उत्पन्न ही होते रहे तो पूरा जगत भर जायेगा। अत: पुन: प्रदक्षिणा लगाकर प्रभु से पूछते है “भयवं किं तत्तं?" प्रभु कहते है “विगमेई वा" अर्थात् जगत के सब पदार्थ नाश होते हैं। यह सुनकर उन्हें पुन: संदेह हुआ कि यदि सब नाश हो जायेंगे तो बचेगा क्या? तब पुनः तीसरी प्रदक्षिणा लगाकर प्रभु से पूछते है “भयवं किं तत्तं?" प्रभु कहते है “धुवेई वा" अर्थात् जगत के सभी पदार्थ स्थिर है। इस प्रकार प्रभु ने सभी मुनियों को त्रिपदी प्रदान की। इससे उन्हें स्याद्वाद गर्भित सर्व पदार्थों का ज्ञान हुआ। .. तभी इन्द्र महाराजा सुगंधित वासक्षेप से भरे थाल को लेकर उपस्थित हुए।प्रभु ने सभी के मस्तक पर वासक्षेप कर सबको गणधर पद पर स्थापित किया। त्रिपदी दान एवं वासक्षेप के प्रभाव से सभी गणधरों को उसी समय कोष्टक लब्धि प्रगट हुई। जिसके कारण एक अंतर्मुहूर्त में 11 गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की। पुन: प्रभु ने वासक्षेप कर उनकी द्वादशांगी की रचना को सही प्रमाणित किया। उसी समय वहाँ उपस्थित चंदनबाला आदि ने प्रभु से प्रव्रज्या ग्रहण कर साध्वी पद पाया। आनंदकामदेव आदि एवं सुलसा आदि भव्यात्माओं ने अपने आप को संयम ग्रहण करने में असमर्थ समझकर प्रभु से सम्यक्त्व सहित बारह व्रत ग्रहण किए। प्रभु ने उन्हें भी वासक्षेप कर श्रावक-श्राविका का बिरुद दिया। इस प्रकार देश विरति धर्म की स्थापना की। वहाँ मातंग यक्ष एवं सिद्धायिका देवी ने भी प्रभु से शासन सेवा की मांग की। प्रभु ने उन्हें अपने शासन रक्षक देव-देवी के रूप में अधिष्ठित किया। तत्पश्चात् इन्द्राणियों ने आनंद- विभोर हो प्रभु के पोखणे लिए। इस प्रकार वैशाख सुद 11 के दिन प्रभु ने चतुर्विध संघ रूपी शासन की स्थापना की। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार वीर प्रभु विहार करते करते चम्पानगरी पधारें। वहाँ शाल नामक राजा तथा महाशाल नामक युवराज प्रभु को वन्दन करने आयें। प्रभु की देशना सुनकर दोनों ने प्रतिबोध पाया। उन्होंने अपने भानजे गांगली का राज्याभिषेक किया और दोनों ने वीर प्रभु के पास दीक्षा लेकर वहाँ से विहार किया। कुछ समय बाद पुनः प्रभु की आज्ञा लेकर गौतम शाल और महाशाल साधु के साथ चम्पानगरी गयें। वहाँ गांगली राजा ने भक्ति से गौतम गणधर को वंदन किया । वहाँ देवताओं के रचे सुवर्ण कमल पर बैठकर चतुर्ज्ञानी गौतम स्वामी ने धर्मदेशना दी। वह सुनकर गांगली राजा ने प्रतिबोध पाया और अपने पुत्र को राज्य सौंपकर अपने माता-पिता सहित गौतम स्वामी के पास दीक्षा ली। ये तीन नये मुनि और शाल, महाशाल ये पाँच जन गुरु गौतम स्वामी के पीछे-पीछे प्रभु महावीर को वंदन करने जा रहे थे। मार्ग में शुभ भावना से उन पाँचों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। सर्वज्ञ प्रभु महावीर स्वामी जहाँ बिराजमान थे वहाँ आकर प्रभु को प्रदक्षिणा दी। तीर्थंकर को नमन कर वे पाँचों केवली की पर्षदा की ओर चले। तब गौतम ने कहा, 'केवली की पर्षदा में मत जाओ' इस पर प्रभु बोले, गौतम! केवली की आशातना मत करो।' तत्काल गौतम ने मिथ्या दुष्कृत देकर उन पाँचों से क्षमापना की। इसके बाद गौतम स्वामीजी खेद पाकर सोचने लगे कि क्या मुझे केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होगा ? क्या मैं इस भव में सिद्ध नहीं बनूँगा? ऐसा सोचते-सोचते प्रभु ने देशना में एक बार कहा हुआ याद आया कि 'जो अष्टापद पर अपनी लब्धि से जाकर वहाँ स्थित जिनेश्वर को वन्दन करके एक रात्रि वहीं रहे, वह उसी भव में सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। ‘ऐसा याद आते ही गौतम स्वामी ने तत्काल अष्टापद पर स्थित जिनबिंबों के दर्शन करने जाने की इच्छा प्रभु के सामने व्यक्त की। वहाँ भविष्य में तापसों को प्रतिबोध होने वाला है। यह जानकर प्रभु ने गौतम स्वामीजी को अष्टापद तीर्थ पर तीर्थंकरों की वंदना के लिए जाने की आज्ञा दी। इससे गौतम बड़े हर्षित हुए और चारणलब्धि से वायु समान वेग से क्षण भर में अष्टापद के समीप आ पहुँचे। इसी अरसे में कौडिन्य, दत्त और सेवाल आदि पन्द्रहसौ तपस्वी अष्टापद को मोक्ष का कारण जानकर उस गिरि पर चढ़ने आये थे। उनमें से पाँचसौ तपस्वी उपवास तप करके आर्द्र कंदादि का पारणा करने पर भी अष्टापद की प्रथम सीढ़ी तक ही पहुँच पाये थे । दूसरे पाँचसौ तापस छ? तप करके सूके कंदादि का पारणा करके दूसरी सीढ़ी तक पहुंचे थे। तीसरे पाँच सौ तापस अट्ठम का तप करके सूकी काई का पारणा करके तीसरी सीढ़ी तक पहुँचे थे। वहाँ से ऊँचे चढ़ने के लिए वे अशक्त थे।उन तीनों के समूह प्रथम, द्वितीय और तृतीय सीढ़ी पहुँच पाए थे। इतने में सुवर्ण समान कांतिवाले और पुष्ट आकृति वाले गौतम को आते हुए उन्होंने देखा। उनको देखकर वे आपस में बात करने लगे कि हम इतने कृश हो चुके हैं फिर भी यहाँ से आगे चढ़ नहीं सकते हैं, तो यह स्थूल शरीर वाला मुनि कैसे चढ़ सकेगा ? इस तरह वे बातचीत कर रहे थे कि 065 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वामी सूर्य किरण का आलंबन लेकर उस महागिरि पर चढ़ गये और पल भर में देव की भाँति वहाँ से अदृश्य हो गये। तत्पश्चात् वे परस्पर कहने लगे - ‘इस महर्षि के पास कोई महाशक्ति है, यदि वे यहाँ वापस आयेंगे तो हम उनके शिष्य बनेंगे।' ऐसा निश्चय करके वे तापस एक ध्यान से उनके लौटने की राह देखने लगे। अष्टापद पर्वत पर चौबीस तीर्थंकरों के अनुपम बिंबों को देखकर गौतम स्वामी ने भाव से वंदन किया और 'जगचिन्तामणि' की रचना की। तत्पश्चात् चैत्य में से निकलकर गौतम गणधर एक बड़े अशोकवृक्ष के नीचे बैठे। वहाँ अनेक सुर-असुर और विद्याधरों ने उनको वंदन किया। गौतम गणधर ने उनके योग्य देशना दी। इस देशना में गौतम स्वामी ने कहे हुए पुंडरीक-कंडरीक का अध्ययन समीप में बैठे तिर्यग् जुंभक देव ने एकनिष्ठा से श्रवण किया और उसने समकित प्राप्त किया। ___ इस प्रकार देशना देकर शेष रात्रि वहीं व्यतीत करके गौतम स्वामी प्रात: काल में उस पर्वत पर से उतरने लगे। राह देख रहे तापस उनको नज़र आयें। तापसों ने उनके समीप आकर, हाथ जोड़कर कहा- 'हे तपोनिधि महात्मा ! हम आपके शिष्य बनना चाहते हैं, आप हमारे गुरु बनो।' और हमें भी अष्टापद की यात्रा कराओ।' तब गौतम स्वामी ने सभी को अष्टापद तीर्थ की यात्रा कराकर वहीं दीक्षा दी। देवताओं ने तुरंत ही उनको साधु वेश दिया। तत्पश्चात् वे गौतम स्वामी के पीछे-पीछे प्रभु महावीर के पास जाने के लिए चलने लगे। ___मार्ग में कोई गाँव आने पर भिक्षा का समय हुआ तो गौतम गणधर ने पूछा - 'आपको पारणा करने के लिये कौन सी इष्ट वस्तु लाऊँ।' उन्होंने कहा - 'खीर लाना।' गौतम स्वामी अपने उदर का पोषण हो सके उतनी खीर एक पात्र में ले आये। तत्पश्चात् इन्द्रभूति यानि गौतम स्वामी कहने लगे - 'हे महर्षियों! सब बैठ जाओ और खीर से पारणा करों। 'तब सबको मन में ऐसा लगा कि 'इतनी खीर से क्या होगा ? लेकिन हमें तो हमारे गुरु की आज्ञा माननी ही चाहिये। ऐसा मानकर सब एक साथ बैठ गये। तत्पश्चात् इन्द्रभूति ने "अक्षीण महानस लब्धि' द्वारा उन सब को पारणा करवाया। जब तापस पारणा करने बैठे तब, 'हमारे पूरे भाग्ययोग से श्री वीर परमात्मा जगद्गुरु हमें धर्मगुरु के रूप में प्राप्त हुए हैं पिता तुल्य बोध करने वाले गौतम प्रभु हमें मिले है, इसलिए हम पुण्यवान है।' इस प्रकार की भावना करने से शुष्क काई भक्षी पाँचसौ तापसों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। दत्त आदि अन्य पाँचसौ तापसों को दूर से प्रभु के प्रातिहार्यों को देखकर उज्जवल केवलज्ञान प्राप्त हुआ। और कौडीन्य आदि शेष पाँचसौ तापसों को दूर से भगवंत के दर्शन होते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वे वीर भगवान को वन्दन कर केवली की सभा में जाने लगे, तब गौतम स्वामी ने कहा कि हे शिष्यों! वह तो केवली की सभा है। इसलिए वहाँ नहीं बैठना चाहिये। तब श्री वीर प्रभु Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोले कि हे गौतम! केवलियों की आशातना मत करो। ये पन्द्रहसौ केवली हो गये हैं। गौतम ने तुरंत ही मिथ्या दुष्कृत देकर उनसे क्षमायाचना की। और सोचने लगे कि इन महात्माओं को धन्य है कि जो मुझसे दीक्षित हुए परंतु इन्हें क्षण भर में केवलज्ञान हो गया। इस प्रकार गौतम स्वामी को चिंतित देखकर प्रभु वीर ने कहा कि “हे गौतम! तुम चिन्ता मत करो। अन्त में हम दोनों एक समान होंगे।" प्रभु का निर्वाण एक दिन प्रभु ने अपना मोक्ष का समय नज़दीक आया हुआ जानकर जिस प्रकार अंत समय आने पर पिता अपनी माल मिलकत आदि के सारे रहस्य अपने पुत्र को बता देता है, उसी प्रकार प्रभु ने भी अंत समय आने पर लगातार 16 प्रहर तक देशना देनी प्रारंभ की और उसी बीच - 'अहो! गौतम को मेरे पर अत्यन्त स्नेह है और वहीं उनको केवलज्ञान प्राप्ति में रुकावट बन रहा है।' यह जानने वाले प्रभु वीर ने गौतम स्वामी को बुलाकर कहा- 'गौतम! यहाँ से नज़दीक के दूसरे गाँव में देवशर्मा नामक ब्राह्मण है। उसे प्रतिबोध देने जाओ।' यह सुनकर' जैसी आपकी आज्ञा' ऐसा कहकर गौतम स्वामी प्रभु को वन्दन करके वहाँ से निकल पड़े। यहाँ कार्तिक मास की अमावस्या की पिछली रात्रि को चन्द्र स्वाति नक्षत्र में आते ही जिन्होंने छट्ठ का तप किया है वे वीरप्रभु अंतिम प्रधान नामक अध्ययन कहने लगे। उस समय आसन कम्प से प्रभु का मोक्ष समय जानकर सुर और असुर के इन्द्र परिवार सहित वहाँ आये। शक्रेन्द्र ने प्रभु को हाथ जोड़कर संभ्रम के साथ इस प्रकार कहा, 'नाथ ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए है, मोक्ष इस समय स्वाति नक्षत्र में होगा। परंतु आपकी जन्मराशि पर से भस्मग्रह संक्रांत होने वाला है, जो आपके संतानों (साधु-साध्वी) को दो हज़ार वर्ष तक बाधा उत्पन्न करेगा, इसलिये वह भस्म ग्रह आपके जन्म नक्षत्र से संक्रमित हो तब तक आप राह देखे, अर्थात् प्रसन्न होकर पल भर के लिए आप अपना आयुष्य बढ़ा लो जिससे दुष्टग्रह का उपशम हो जावे।' प्रभु बोले, 'हे शक्रेन्द्र ! आयुष्य बढ़ाने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है।' ऐसा कहकर समुच्छ्रितक्रिया नामक चौथे शुक्ल ध्यान को धारण किया और यथा समय ऋजु गति से ऊर्ध्वगमन करके मोक्ष प्राप्त किया। इस तरफ गौतमस्वामी ने देवशर्मा को खूब समझाया, पर पत्नी पर आसक्ति होने से देवशर्मा प्रतिबोध नहीं पा सका। जब गौतम स्वामी लौट रहे थे, तब देवशर्मा लौटाने के लिए दरवाज़े पर आए। वहाँ बारसाख के साथ उनका मस्तक टकराया एवं वहीं पर देवशर्मा ने प्राण त्याग दिए। करुणार्द्र गौतमस्वामी ने ज्ञान के उपयोग से देखा तो पता चला कि पत्नी के मोह से संसार त्याग नहीं करने वाला देवशर्मा पत्नी के सिर की जूं बना है। 068 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण के घर से वापिस लौट रहे थे, तब मार्ग में देवताओं की वार्ता से प्रभु के निर्वाण के समाचार सुने और एकदम चौंक पड़े उन्हें बड़ा दुःख हुआ । प्रभु के गुण याद करके विलाप करने लगे- 'वीर! ओ वीर !' अब मैं किसे प्रश्न पूछूंगा ? मुझे कौन उत्तर देगा ? अहो प्रभु ! आपने यह क्या किया? आपके निर्वाण समय पर मुझे क्यों दूर किया ? क्या आपको ऐसा लगा कि यह मुझसे केवलज्ञान की माँग करेगा? बालक बनकर क्या मैं आपका पीछा करता ? परंतु हाँ प्रभु! अब मैं समझा। अब तक मैंने भ्रांत होकर निरागी और निर्मोही ऐसे आप में राग और ममता रखी। ये राग और द्वेष ही संसार भ्रमण हेतु है। उनका त्याग करवाने के लिए ही आपने मेरा त्याग किया होगा। ममता रहित प्रभु पर ममता रखने की भूल मैंने की, क्योंकि मुनियों को तो ममत्व रखना युक्त नहीं हैं। इस प्रकार शुभध्यान परायण होते ही गौतम गणधर क्षपक श्रेणी पर चढ़े और तत्काल घाति कर्म का क्षय होते ही उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इस प्रकार प्रभु का निर्वाण होते ही शोकमग्न देवताओं एवं राजाओं ने मिलकर उद्विग्न चित्त से प्रभु का अग्नि संस्कार किया। जब प्रभु का पार्थिव देह विलय हो गया तब मेघकुमार देव ने जल वर्षा कर चिता शांत की। फिर सौधर्मेन्द्र तथा इशानेन्द्र ने प्रभु की ऊपरी दादाएँ तथा चमरेन्द्र एवं बलीन्द्र ने नीचली दाढ़ाएँ बहुमान पूर्वक स्वस्थान में पूजने के लिए ग्रहण की। अन्य देव-देवियों एवं मनुष्यों ने हड्डी, राख आदि जो भी हाथ आया ग्रहण किया, अंत में राख भी खत्म हो जाने पर लोगों ने वहाँ की मिट्टी लेना शुरु कर दिया। जिससे इतना बड़ा खड्डा हो गया जो आज पावापुरी में जल मन्दिर के रूप में मौजूद है। तत्पश्चात् शोक मग्न राजाओं ने मिलकर भाव उद्योत के अभाव में रत्नों के दीप जलाए तब से कार्तिक अमावस्या के दिन दीपावली पर्व विख्यात हुआ, जो आज दिन तक चला आ रहा है। दीपावली के दिन 1 उपवास करने पर 1 करोड़ उपवास का लाभ मिलता है। प्रभु के निर्वाण के बाद खूब जीवोत्पत्ति होने से संयम दूराराध्य जानकर कई साधु-साध्वी भगवंतों ने अनशन स्वीकार किया। गौतमस्वामीजी ने बारह वर्ष केवलज्ञान पर्याय के साथ बानवें वर्ष की उम्र में राजगृही नगरी में एक माह का अनशन करके सब कर्मों का नाश करते हुए अक्षय सुखवाले मोक्षपद को प्राप्त किया। मात्र पढ़ने के लिए मत पढ़ना नहीं बोले हुए शब्द तुम्हारे गुलाम है: बोले हुए शब्द के तुम गुलाम हो । 069 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि भोजन महापाप हंस और केशव की कथा बात बहुत पुरानी है। कुंडिनपुर नाम की एक नगरी थी। उस नगरी में यशोधर वणिक और उसकी रम्भा नाम की रूपवती पत्नी थी। उनके दो पुत्र थे। एक हंस और दूसरा केशव। यौवन में दोनों भाई एक दिन क्रीड़ा करने गये। कुछ भाग्योदय से उन्हें उसी उद्यान में एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ मुनिवर के दर्शन हुए। दोनों भाई वंदना करके अणगार के पास बैठ गये। मुनिराज ने भी दोनों को योग्य समझकर रात्रि भोजन के त्याग के विषय में उपदेश दिया। मुनिराज का उपदेश सुनने के बाद दोनों कुमारों ने रात्रि भोजन के त्याग की प्रतिज्ञा ग्रहण कर ली। शाम को दोनों ने घर आकर माता से कहा - "माँ ... हमें भोजन परोस दो। आज से हम रात्रि में भोजन नहीं करेंगे।" यह बात सुनते ही उनके पिता अत्यन्त क्रोधित हो गये। उसने अपनी पत्नी से कहा - "हमारे कुल में आज तक रात में खाने का रिवाज है। यदि यह रात्रि भोजन न करे तो इन दोनों को दिन में भी भोजन मत देना।" इस प्रकार सात दिन व्यतीत हो गये। दोनों भाईयों के साथ उनकी माता और बहन ने भी भोजन नहीं किया। सातवें दिन पिता ने क्रोधित होकर कहा - "यदि तुम्हें मेरी आज्ञा का पालन नहीं करना हो तो घर से निकल जाओ।" उसी समय केशव घर से निकल गया। चलते-चलते वह जंगल में गया। वहाँ (रास्ते में) एक यक्ष का मंदिर आया। यक्ष ने अनेक प्रकार से उसकी परीक्षा की फिर भी वह चलित नहीं हुआ और यक्ष से कहा- “तुम्हें जो करना हो वह करो, किन्तु मैं रात्रि भोजन नहीं करूँगा।” “कार्यं साधयामि देहं वा पातयामि' यक्ष केशव को प्रतिज्ञा में दृढ़ देखकर प्रसन्न हुआ। उसने पुष्प वृष्टि की और उसे दो प्रकार के आशिष दिये। 1. तुम्हारे चरणों को छुआ हुआ जल दूसरों का रोग मिटायेगा। 2. तुम जो इच्छा करोंगे वह पूर्ण होगी और आज से सातवें दिन तुम राजा बनोगे। साकेतपुर के राजा धनंजय को कोई पुत्र नहीं था। उन्हें चारित्र ग्रहण करने की इच्छा थी। यक्ष केशव को इसी नगर के बाहर रखकर चला गया और उसी रात्री में यक्ष ने राजा को स्वप्न में केशव को राजा बनाने का संकेत दिया। केशव का राज्याभिषेक करके धनंजय राजा ने चारित्र ग्रहण किया। ___ धर्मी राजा आने से प्रजा भी धर्माराधना करने लगी। एक दिन केशव झरोखे में बैठा था, तब उसे अपने पिता यशोधर के दर्शन हुए। पिता के पास जाकर केशव ने कहा - "पिताजी! आप तो करोड़पति थे, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपकी ऐसी अवस्था कैसे हुई।'' पिता ने कहा – “पुत्र! तेरे जाने से धन भी चला गया और तेरा भाई भी मरण शैय्या पर है। तुम्हारे घर से जाने के बाद मेरे डर से हंस रात में खाने बैठा और भयंकर सर्प के विष से बेहोश सा हो गया है। एक दिन एक ज्योतिषी ने कहा, विषहरण सिद्ध योगी ही यह ज़हर नाश करने में समर्थ बनेगा। ऐसे योगी की खोज में आज मैं इधर आया हूँ। आज उसका अन्तिम दिन है।" यह सुनते ही केशव नमस्कार मंत्र और यक्षराज का स्मरण करके एक ही मिनिट में कुंडिनपुर पहुंच गया। वहाँ अपने भैया हंस के ऊपर पानी छिटककर, उसे रोग से मुक्त किया। उसी दिन नगर के अनेक भाविकजनों ने रात्रि भोजन का त्याग किया (व्रत ग्रहण किया)। राजा केशव जैन धर्म की प्रभावना करते हुए, बारह व्रतो एवं विशाल राज्य ऋद्धि का पालन करते हुए स्वर्ग में गये। आगे मोक्ष प्राप्त करेंगे। धन्य जीवन, धन्य व्रत, धन्य मृत्यु। प्रिय वाचकों, रात्रि भोजन से नुकसान और त्याग से लाभ इत्यादि समझ कर अवश्य रात्रि भोजन का त्याग करें। MO समरो मंत्र भलो नवकार 1. देव बना बंदर पहले देवलोक में हेमप्रभ नामक एक देव था। एक दिन उसने आने वाले भव में उसे धर्म की प्राप्ति होगी या नहीं इस विषय में केवलज्ञानी मुनि को पूछा। परोपकारी मुनि भगवंत ने कहा- “तुम निमित्त वासी हो, आने वाले भव में तुम इसी जंगल में बंदर के रूप में जन्म लोगे। वहाँ शिला लेख पर नवकारमंत्र को देखते ही तुम्हें धर्म बुद्धि प्राप्त होगी।'' मुनि के वचन सुनकर आने वाले भव में उसे जल्दी धर्मबुद्धि जगे इस हेतु उसने उसी जंगल में एक शिला पर नवकार मंत्र लिख दिया। देवायुष्य पूर्ण कर वह देव मरकर बंदर बना। एक दिन जंगल में भटकते-भटकते उसकी नज़र नवकार लिखी शिला पर पड़ी। पूर्व जन्म के संस्कारों से शिला को बार-बार देखने से उसे जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। बंदर के भव में शुभ आराधना कर अंत में अनशन कर पुनः उसने देवगति प्राप्त की। उस देव ने बंदर के भव वाले उसी स्थान पर एक सुंदर जिनमंदिर बनाकर नवकार मंत्र की स्मृति कायम रखी। 2. पोपट बना राजकुमार अयोध्या नगरी में सोमवर्म नामक राजा राज्य करते थे। उनके पुत्र का नाम नंदन था। एक बार राजकुमार नंदन को एक साधक ने स्वयं की साधना में उत्तरसाधक बनने की विनंती की। दयालु राजकुमार ने उसको सहमति दे दी। सहमति मिलते ही साधक योग्य सामग्री इकट्ठी कर श्मशान में जाकर साधना में बैठा। राजकुमार मन में नवकार मंत्र के स्मरण पूर्वक उत्तरसाधक के रूप में उसके पास खड़ा था। थोड़ी देर में वहाँ अग्नि ज्वाला फेंकता हुआ एक राक्षस साधक को मारने आया। परंतु उत्तर साधक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के महामंत्र की अमोघशक्ति के कारण वह कुछ नहीं कर सका। अंत में राक्षस ने प्रसन्न होकर साधक का कार्य सिद्ध कर दिया। एक दिन राजकुमार ने नगरी में आए हुए अवधिज्ञानी चंदन मुनि को अपने पूर्व भव के बारे में पूछा। तब ज्ञानी मुनिश्री ने कहा " हे राजकुमार पूर्व भव में तुम पोपट थे। उस समय मैंने ही तुम्हें नवकार मंत्र सुनाया था। उसके प्रभाव से ही तुम राजकुमार बने हो । भविष्य में इसी मंत्र की आराधना से तुम मोक्ष को प्राप्त करोगे।" मुनि भगवंत के उत्तर से राजकुमार विशेष श्रद्धा से नवकार मंत्र की आराधना करने लगे। 3. हुंडीक चोर द्वारा नवकार की महिमा मथुरा में शत्रुदमन नाम के राजा राज्य करते थे । एक दिन राजा ने राजमहल में चोरी करते पकड़े हुए चोर को फाँसी की सजा सुनाई। जब हुँडीक को फाँसी की सजा दी जा रही थी तब जिनधर्मानुरागी जिनदत्त सेठ वहाँ से गुजर रहे थे। सेठ को हुँडीक पर दया आ गई। उसका समाधिमरण हो इस हेतु सेठ ने हुँडीक को नवकार महामंत्र के जाप में मन को स्थिर रखने की सलाह दी। परिणाम स्वरूप उसकी मृत्युं सुधर गई। वह वहाँ से व्यंतर देवलोक में उत्पन्न हुआ। इस तरफ राजा ने सेठ को चोर के साथ बात करने के इल्जाम में राजद्रोही घोषित कर उन्हें पूरे नगर में अपमानित कर गधे पर बिठाकर घूमाने की आज्ञा दी। उसी समय हाथ में एक बड़ी शिला लिए हुए एक यक्ष ने राजा की आज्ञा का पालन करते हुए सेवकों से कहा - "सेठ का सम्मान करो, अपमान नहीं, अन्यथा इस शिला से संपूर्ण नगर का नाश कर दूंगा।" इस बात की सूचना राजा को मिलते ही उन्होंने सेठ से माफी माँग कर उनका सम्मान किया। जब राजा ने देव से उसका परिचय पूछा तब देव ने हुँडीक चोर के भव में सेठ द्वारा नवकार मंत्र की साधना सिखाने की बात बताई। नवकार मंत्र की महिमा बढ़ाकर वह अदृश्य हो गया। चुने हुए मोती खोजी, खपी, खाखी :- यह तीन साधुओ के लक्षण है। खोजी : मुझमें कोई दोष न आ जाए। खपी : स्वाध्याय, आयंबिल, जाप का खप । खाखी : निस्पृहता अर्थात् हो तो भी ठीक न हो तो भी ठीक । 072 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ राजलोक कुर्बलोक फिलिपिक alesNeNeelaadladladkekaalaNANAadarsana Gaaaaaaaaaaaaaa Gaoantaraaaaaaaaaaaastest GR Malalalala allaalesaleakedaaNERIANANAND అని వారు ముంబం.ac.పరమ మరింత चर-रिचर यतिक दीपसमा नरक DescotoostostsetoothiestioGautDataaootbabas जानपनि EINE a लेश्या toes धीखो पर बंधी डी.जैसा पट्टी जैसा तत्त्वज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म आयुष्य कर्म द्वारपाल जैसा चित्रकार जैसा दर्शनावरणीय कर्म नामकमा शहद में लिपटी तलवार जैसा कुम्हार के घड़े जैसा FAE InseKIA वेदनीय कर्म शराब जैसा राज्य के खंजाची जैसा अतराय मोहनीय कर्म Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी जुबानी मेरी कहानी. क्या आप जानते हो मेरी आंखे किसने फोड़ी... ? नहीं... तो आओ मेरे साथ और देखो कि कितना जुल्म किया जाता है मेरे साथ। मात्र आपके शौक के लिए मुझे अंधा कर दिया जाता है। वह भी इतनी बेरहमी से..... मुझ जैसे अबोल जानवर का सिर एक शिकंजे में जकड़ दिया जाता है। धातु के एक क्लीप से मेरी आंखे खुली रख दी जाती है। फिर सिर धोने के शेम्पू की एक-एक बूंद मेरी आंख में टपकायी जाती है। शेम्पू के कारण मेरी आंखों में भयानक जलन होने लगती है। और उससे मेरे मुंह से चीत्कार निकलनी शुरु हो जाती है। उस भयानक पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए मैं उस शिकंजे से छुटने की कोशिश करता हूँ लेकिन मैं उस शिकंजे में इस प्रकार जकड़ा हुआ रहता हूँ कि मेरी कमर टूट जाती है लेकिन मैं अपने आप को छुड़ाने में असमर्थ पाता हूँ । मेरी आंखों से अविरत आंसू बहते रहते है लेकिन कोई भी मेरे आंसू पोंछने में समर्थ नहीं होते और आखिर में मैं अंधा हो जाता हूँ और अंधा होने के कारण मैं शीघ्र ही मर जाता हूँ। हे मानव ! तू मात्र अपने इतने छोटे से शौक के लिए मेरी जान क्यों लेता है ? माना अब तक तू नहीं जानता था लेकिन अब जानने के बाद तो मेरी हिंसा से बने इस शेम्पू का त्याग करोगे ना ? खरगोश कितना प्यारा, कितना स्नेहिल और भोला जीव है और मानव तू इतना क्रूर...! CLINIC ALL CLEAR me ACTIVSPORT SoAc ... Clinic ALL CLEAR Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव का विकास क्रम र जीव के विकास क्रम को समझने से पहले जीव की संसार स्थिति, संसार-परिभ्रमण कौन-सा जीव मोक्ष में जाने योग्य है, कौन-सा जीव अयोग्य है तथा जीव के विकास में साधक एवं बाधक तत्त्व कौन-से है.... इन सब बातों को जान लेना अति आवश्यक है। .) जीव की संसार स्थिति . जीव अनादि है- विश्व में जितने भी जीव है, वे सभी सिद्ध भगवंत बनने के रॉ-मेटीरियल है। अनादिकाल से जीव इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है। जीव कभी नया पैदा नहीं होता है। जीव एवं कर्म कासंबंध भी अनादि है-जैसे सोने की खान में सोना एवं मिट्टी का संबंध अनादि है। जगत भी अनादि है- कर्म अनादि होने से कर्म कृत संसार भी अनादि है। अर्थात् जो भटकता है, वह जीव अनादि है। जिसके कारण भटकता है, वह कर्म संबंध अनादि है। जहाँ भटकता है, वह स्थान (संसार) भी अनादि है। .) सर्व जीव की दो राशि . (1) अव्यवहार राशि- जीव का अनादि निवास स्थान निगोद है। निगोद अर्थात् सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय। इनके एक शरीर में अनंत आत्माएँ होती है। वे सब एक साथ श्वास लेते हैं एवं एक साथ आहार ग्रहण करते हैं। अपने एक पलकारे जितने समय में ये जीव 18 बार जन्म एवं 17 बार मरण को प्राप्त होते हैं। इस सूक्ष्म निगोद का एक ऐसा विभाग भी है कि जहाँ से आज दिन तक जीव एक बार भी बाहर निकलकर बादर अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है। अनादि काल से वहीं पर है । ऐसा जीव अव्यवहार राशि का जीव कहलाता हैं। (2) व्यवहार राशि- जब एक जीव सिद्ध होता है तब एक जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आता है। व्यवहार राशि में आने के बाद जीव का 84 लाख योनि में परिभ्रमण एवं पृथ्वी आदि के रुप में व्यवहार शुरु होता है। O) जीव की तीन क्वॉलिटी . (1) अभव्य जीव- जिस आत्मा में स्वभाव से मोक्ष पाने की योग्यता नहीं होती, ऐसे जीव को अभव्य जीव कहते है। जैसे किसी स्त्री को पति का योग मिलने पर भी पुत्र की प्राप्ति नहीं होती, वैसे ही अभव्य (073 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को धर्म सामग्री प्राप्त होने पर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । (2) जाति भब्य - कितने जीव ऐसे भी होते है कि वे जाति से तो भव्य होते हैं। लेकिन इन्हें अव्यवहार राशि से बाहर आने का मौका ही नहीं मिलता। ऐसे जीव को जाति भव्य जीव कहते हैं। जैसे पति का योग न मिलने के कारण पुत्र को जन्म नहीं दे सकने वाली कुंवारी कन्या की तरह जाति भव्य जीवों में मोक्ष में जाने की योग्यता होने पर भी मोक्ष में जाने की सामग्री (मनुष्य-भव, सद्गुरु का योग, प्रभु वचन पर श्रद्धा आदि) का योग नहीं होने के कारण इन्हें कभी मोक्ष नहीं मिलता। ( 3 ) भव्य जीव- मोक्ष में जाने की योग्यता वाला जीव भव्य कहलाता है । * जैसे किसी स्त्री को पति का योग मिलने पर पुत्र की प्राप्ति होती है वैसे धर्म सामग्री के योग से भव्य जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है । * जितने भी जीव मोक्ष में गये हैं, जाते हैं एवं जायेंगे वे सभी भव्य ही हैं । * जिसे मैं भव्य हूँ या अभव्य हूँ, ऐसी शंका हो जाए वह जीव भव्य होता है । * शत्रुंजय की यात्रा करने वाला जीव भी भव्य ही होता है । भव्य जीव की मोक्ष यात्रा जीव इस संसार में अनादि काल से अनंत पुद्गल परावर्तन काल (अनंत उत्सर्पिणी+अवसर्पिणी) पूर्ण कर चुका हैं। जीव का संसार में भटकने का काल तीन प्रकार का हैं : (I) अचरमावर्त काल (II) चरमावर्त काल (III) अर्ध चरमावर्त काल (I) अक्षरमावर्त जीव के लक्षण (1) इस काल के जीव को संसार ही पसंद आता है। (2) मोक्ष बिल्कुल पसंद नहीं आता है। (3) देव-गुरु- धर्म से बिल्कुल लगाव नहीं होता । इस काल में राग-द्वेष की तीव्रता (सहजमल) के कारण जीव सतत गाढ़ कर्मों को उपार्जित कर संसार में भटकता है । जीव का यह संसार दु:खरुप, दुःख फलक एवं दुःख की ही परम्परा वाला होता है । 1 (II) चरमावर्त जीव के लक्षण (1) इस जीव को संसार भी पसंद आता है । (2) मोक्ष भी पसंद आता है । ( 3 ) देव-गुरु- धर्म भी पसंद आते हैं। 074 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब जीव चरमावर्त में प्रवेश करता है, तब सहजमल कुछ कम होता है। उसके कारण जीव को धर्म में कुछ रुचि पैदा होती है। फिर भी सहजमल की उपस्थिति में जीव का मोक्ष नहीं हो पाता । (III) अर्ध चरमावर्त जीव के लक्षण (1) इस काल में जीव को संसार बिल्कुल पसंद नहीं आता । (2) मोक्ष में जाने की उत्कृष्ट इच्छा होती है (3) देव-गुरु- धर्म बहुत अच्छे लगते हैं । इस काल में जीव का पुरुषार्थ इतना प्रबल हो जाता है कि अर्ध पुद्गल परावर्तन में वह मोक्ष में जाने योग्य बन जाता है । अर्धपुद्गल परावर्तन काल में जीव का विकास किसी व्यक्ति ने एक तुंबी पर मिट्टी एवं तेल का लेप लगाकर उसे 3 दिन तक धूप में सुकाया । सूक जाने पर पुन: इसी प्रकार लेप लगाकर धूप में सुकाया । इस प्रकार आठ बार तुंबी पर लेप किया। फिर उस तुंबी को एक गहरे तालाब में डाल दी। गजब हो गया..... . तैरने का स्वभाव होने पर भी वह तुंबी तालाब के पानी में डूब गई। बाद में थोड़े दिन में मिट्टी के निकल जाने पर तुंबी अपने मूलभूत तैरने के स्वभाव में आ गई । यह बात आत्मा पर भी घटती है। अपनी आत्मा और समस्त जीव तुंबी के समान हैं। अपनी आत्मा में राग-द्वेष भाव रुप तेल की स्निग्धता (सहजमल) हैं। इसके कारण आत्मा में आठ कर्म रुपी रज- कण चिपकते हैं। अर्धचरमावर्त काल में आत्मा अपने प्रबल पुरुषार्थ से कर्म मल को दूर कर देती है। तब वह लेप रहित होकर तुंबी के समान ऊर्ध्वगमन (मोक्षगमन) करती है। लेकिन आत्मा का विकास प्रारंभ होने पर भी हमेशा के लिए विकास ही होता रहे ऐसा कोई नियम नहीं है। परन्तु कभी-कभी विकास के बदले आत्मा का पतन भी हो सकता है। आत्मा के विकास एवं पतन को साँप-सीढ़ि के खेल की उपमा दी जा सकती हैं। अत: अधोगति के अंतिम तल से निकली हुई आत्मा पुन: उसी तल पर जा सकती है। अर्थात् अर्धचरमावर्त काल में भी अपनी आत्मा वापिस निगोद में जा सकती है । इसलिए आत्मा को अपने दुश्मन से सदैव सावधान रहना चाहिए । आत्मा के दो खतरनाक दुश्मन है - (1) कर्म (2) कुसंस्कार 1. कर्म - आत्मा का सबसे खतरनाक शत्रु कर्म है। जड़ ऐसे कर्म की ताकत तो देखों कि इसने अनंत शक्तिशाली जीव को अपनी ताकत से संसार में जकड़ रखा है। अनंत आनंदमय आत्मा को इस कर्म 075 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने दर-दर का भिखारी बना दिया है। इसी कर्म ने संसार में रहने वाले जीवों को पूर्ण सुखी नहीं होने दिया । कर्मों के कारण ही संसार में समान, सतत और संपूर्ण सुख नहीं है। (1) संसार में समान सुख नहीं है - जिस प्रकार सभी आम का स्वाद एक समान नहीं होता। हाथ की पांचों अंगुलियाँ समान नहीं होती। वैसे ही संसारी जीवों का सुख भी समान नहीं होता। क्योंकि सभी कर्म का बंध एवं उदय अलग-अलग होता है। शायद एक डिज़ाईन वाला मकान मिल सकता है, कपड़ा मिल सकता, बर्तन मिल सकते हैं। क्यों कि उनके पीछे कर्म नहीं है। लेकिन एक समान सुख वाले जीव कभी भी नहीं मिल सकते। अत: अपने से अधिक सुख किसी को मिला हो तो उससे ईर्ष्या नहीं करनी और दूसरों से अपना सुख अधिक हो तो अहंकार एवं दूसरों का तिरस्कार नहीं करना। क्योंकि ये सब अपनेअपने पुण्य-पाप का खेल है। यदि अपने पात्र में पानी कम आया हो तो सागर को दोष दिए बिना अपने पात्र को ही बदलना पड़ता है । उसी प्रकार सुख कम हो तो पुण्य कार्य बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए । ईर्ष्या करने से कुछ हाथ लगने वाला नहीं है । (2) संसार में सतत सुख नहीं है- सभी संसारी जीवों की आने वाली घड़ी दुःख से भरी हुई है। यानि आने वाली घड़ी के लिए सुख की आशा रख सकते है, लेकिन सुख की आस्था नहीं रख सकते । इसलिए आने वाले कल की जो चिंता करते है वे 'संसारी', आने वाले भव की जो चिंता करते है वे 'धर्मी' 50,000 वर्ष बाद के सूर्योदय का समय निश्चित करना सरल है। लेकिन इस दुनिया के किसी भी व्यक्ति की मृत्यु का समय निश्चित करना वैज्ञानिकों के लिए भी मुशकिल है । हमें जो मिला है वह थोड़े समय के लिए एवं थोड़ा मिला हुआ है। थोड़े समय के लिए मिला इसलिए आसक्ति करने जैसी नहीं है और थोड़ा मिला इसलिए अहंकार करने जैसा नहीं है। एक दिन सब छोड़ना पड़ेगा । " जिसे छोड़कर जाना पड़े वह संसारी, जो सब त्याग कर जाए वह साधक " (3) संसार में संपूर्ण सुख नहीं है- अपने पास एकाध सुख की मोनोपॉली हो सकती है। संपूर्ण सुख की मोनोपॉली तो हो ही नहीं सकती । "मैं सारी दुनिया ढूढ़ फिरा, सुखिया मिला न कोई, जिसके आगे मैं गया, वह पहले से पड़ी रोई । मैंने मेरा एक दु:ख कहा, उसने कहे बीस, मैं मेरा एक दुःख सह न सका, कहा रखूँ दूसरे बीस ॥" 076 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अर्थात् दुनिया में किसी के पास संपूर्ण सुख नहीं है । यदि निन्यानवें सुख है तो भी एकाध दुःख ऐसा आ जाता है कि वह निन्यानवें सुख को भूला देता है। अर्थात् संसार का सुख अधूरा है । इस प्रकार कर्म ने पूरी दुनिया को हिला दिया है । अब यदि हम उदित कर्म को समभाव पूर्वक सहन कर खपा देंगे तो मोक्ष हम से सात कदम भी दूर नहीं होगा । मात्र मोक्ष में ही समान, सतत और संपूर्ण सुख है। इसलिए जीव को मोक्ष के लिए ही मेहनत करनी चाहिए। मोक्ष के लिए धर्मप्राप्ति जरुरी है । एवं धर्मप्राप्ति के लिए तथाभव्यत्व का परिपाक होना आवश्यक हैं । शास्त्रकारों ने तथाभव्यत्व के परिपाक के तीन उपाय बताए हैं। 1 के भाव (1) दुष्कृत निंदा - किये हुए पापों का मिच्छामि दुक्कडम् देना । मन में पाप के प्रति घृणा तथा पश्चाताप के भाव पैदा करना । (2) सुकृत अनुमोदना - किए हुए अच्छे कार्यों की अनुमोदना करना । 1 (3) चतुः शरण गमन- अरिहंत शरण, सिद्ध शरण, साधु शरण एवं धर्म की शरण स्वीकारना । . 2. कुसंस्कार- आत्मा का दूसरा दुश्मन है कुसंस्कार । कुसंस्कार ही जीव को पाप कर्म की ओर धकेलता है। जैसे सामायिक करने की इच्छा हुई उसी समय कुसंस्कार जीव को T.V. देखने की प्रेरणा करता है। ये कुविचार कुसंस्कारों को मजबूत करते हैं। जैसे पानी रेफ्रिजरेटर में रह गया तो बरफ में ट्रांसफर हो जाता हैं । वैसे ही कुविचार मन में रह गया तो उसका ट्रांसफर कुसंस्कार में हो जाता है। आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर छूट जाता है, लेकिन जिंदगी भर की हुई मानसिक कुवृत्तियाँ मौत के बाद भी अगले भव में कुसंस्कार के रूप में साथ आती है। अनादिकाल के कुसंस्कार एक ऐसी जेल है जो कर्मों के बंध के द्वारा जीव को हमेशा संसार में जकड़े रखती है। इसलिए खराब रोग, खराब शत्रु की तरह कुसंस्कार को तुरंत ही निकाल देना चाहिए। इन कुसंस्कारों को निकालने के लिए आत्म विकास का लक्ष्य बनाना चाहिए। जिस तरह बीज की ताकत धरती पर निर्भर है उसी तरह आत्म-विकास की ताकत श्रेष्ठ वातावरण पर निर्भर है। इसलिए हमेशा कुनिमित्तों से दूर रहकर धर्ममय वातावरण में रहे । धर्ममय वातावरण में रहने से क्रमश: इस प्रकार आत्म विकास होता है। 1. अच्छे वातावरण में अच्छे कार्य करने पर जीव को सद्गति मिलती है। 2. सद्गति से सन्मति मिलती है। 3. सन्मति से सत्संगति मिलती है। 4. सत्संगति के अनुसार मन की वृत्ति बनती है। CO77 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. वृत्ति से परिणति बनती है। जब पाप करने का मौका आता है तब अंदर से पाप नहीं करने की आवाज़ और पाप होने के बाद पाप का प्रायश्चित करने की आवाज़ उठती है। उसी का नाम परिणति है। 6. परिणति से अनुभूति होती है। शुभ परिणति के बाद आत्मा के स्वाभाविक गुण का आस्वाद लेना अनुभूति है। इस प्रकार कर्म एवं कुसंस्कार के नाश से जीव की सांसारिक कहानी खत्म हो जाने से उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। कर्म है राजा, कुसंस्कार है रानी । दोनों मर गए, खत्म कहानी ॥ विश्व दर्शन - चौदह राजलोक भगवान मोक्ष में गये हैं, रात्रिभोजन करने से नरक में जाना पड़ता है, दान- जिनपूजा आदि करने से स्वर्ग में जाते हैं, इत्यादि बातें गुरुदेव के मुख से सुनकर मन में विचार आता है कि यह नरक कहाँ है ? देवलोक कहाँ है ? मोक्ष कहाँ है? कैसे है ? वहाँ कौन जाता है ? आज के वर्ल्ड मेप में आफ्रिका, अमेरिका कहाँ है ? वह बताया गया है लेकिन नरक, देवलोक, मोक्ष, भरतक्षेत्र, महाविदेह क्षेत्र, मेरु पर्वत आदि कहाँ है उसके बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं है। तो क्या यह देवलोक नरक आदि कुछ भी नहीं हैं ? जी नहीं ! आज के वैज्ञानिकों के पास समग्र सृष्टि का ज्ञान नहीं होने से उन्होंने इसका वर्णन नहीं किया है। जैसे कि कोलंबस ने अमेरिका देश को ढूँढ निकाला। तो इसके पहले क्या अमेरिका नहीं था? आज भी कई नये-नये द्वीप मिलते जा रहे हैं तो क्या ये द्वीप पहले नहीं थे ? आज के वैज्ञानिक संशोधन कर रहे हैं लेकिन अभी तक संपूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके। विज्ञान अपूर्ण है, जबकि प्रभु सर्वज्ञ है, तीन लोक का और तीन काल का ज्ञान उन्हें हैं। उन्होंने अपने केवलज्ञान के प्रकाश में समग्र विश्व का जैसा स्वरुप देखा वैसा हमें बताया हैं। जैसे 14 राजलोक, नरक, देवलोक, सिद्धशीला आदि कई बातें हैं जो 45 आगम में बताई गई हैं। चौदह राजलोक: अब हम यहाँ संपूर्ण विश्व का स्वरुप संक्षिप्त में देखेंगे। चित्र में बताई हुई आकृति कमर पर दो हाथ रखकर दो पैर चौड़े करने से व्यक्ति का जैसा आकार बनता है वैसा आकार चौदह राजलोक का है। इस आकृति को शास्त्रीय भाषा में वैशाखी संस्थान कहा जाता है। इसमें मोक्ष, स्वर्ग, नरक, मनुष्य लोक समाए हुए हैं। आप जिस प्रकार मीटर, सेंटी मीटर, फुट, किलो मीटर, माईल आदि माप से किसी वस्तु को मापते 078 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वैसे ही इस विश्व का माप 'राज' से मापा जाता है। 'राज' से मापने पर यह विश्व चौदह राज प्रमाण है। इसलिए इस विश्व को चौदह राजलोक भी कहा जाता है। त्रस नाड़ी राजलोक का माप- यदि कोई बहुत शक्तिशाली देव लोहे का बहुत भारी गोला लेकर ऊपर से अपनी पूरी शक्ति लगाकर नीचे डाले, तब वह गोला नीचे गिरतेगिरते 6 महिने में जितना अंतर काटे, उससे भी असंख्य गुणा बड़ा एक राजलोक है। ऐसे 14 राजलोक की ऊँचाई वाला विश्व है। इस चौदह राजलोक के मध्य में एक राज चौड़ी एवं 14 राज लंबी एक त्रस नाड़ी है । इस त्रस नाड़ी में त्रस एवं स्थावर जीव रहते हैं। त्रस नाड़ी के बाहर मात्र सूक्ष्म एवं स्थावर एकेन्द्रिय जीव ही रहते हैं, यह चौदह राजलोक तीन लोक में विभक्त है। ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और ति लोक। चौदह राजलोक के बराबर मध्यभाग में ति लोक हैं। उसके ऊपर ऊर्ध्वलोक तथा नीचे अधोलोक हैं । अब हम एक-एक लोक को विस्तार से देखेंगे। तीन लोक . 1. तिच्छालोक- त्रस नाड़ी के मध्यभाग में समभूतला है, समभूतला से नीचे 900 योजन व ऊपर 900 योजन इस प्रकार कुल 1800 योजन ऊँचाई वाला एवं 1 राज की चौड़ाई वाला ति लोक है । समभूतला के मध्यभाग में गोस्तनाकार (गाय के स्तन के आकार) में.8 प्रदेश 4-4 ऊपर नीचे रहे हुए हैं । यह प्रदेश रुचक प्रदेश कहलाते है। ये प्रदेश अति विशुद्ध है । इसके नीचले भाग के 900 योजन में व्यंतर-वाणव्यंतर देवों के वास है। तथा ऊपर के 900 योजन में ज्योतिष देव रहे हुए है। तथा मध्य भाग में असंख्य द्वीप समुद्र है । जहाँ मनुष्य एवं तिर्यंच रहते हैं। अधोलोक 2. अधोलोक- अधोलोक में सात नरक, भवनपति तथा परमाधामी देवों के आवास हैं। 14 राजलोक के अंत में सातवी नरक की प्रतर (A) 7 राज चौड़ी है। फिर एक-एक नरक ऊपर की ओर जाते-जाते चौड़ाई घटती जाती है। इस प्रकार नीचे से 7 राज ऊपर जाने पर 1 राज की चौड़ाई वाली प्रतर आती है। यह समभूतला (B) कहलाती है। यह रत्नप्रभा पृथ्वी (पहली नरक) की छत है। समभूतला से नीचे 900 योजन छोड़कर शेष अधोलोक हैं । अर्थात् अधोलोक 7 राज का है । प्रत्येक नरक 1 राज ऊँची है चौड़ाई में सातवी नरक 7 राज की है। शेष छ: नरक क्रमश: 1-1 राज घटती जाती है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 3.ऊलोक- समभूतला से ऊपर 900 योजन छोड़कर शेष ऊर्ध्वलोक है। अर्थात् , ऊर्ध्वलोक 7 राज प्रमाण है। जैसे जैसे समभूतला (A) से ऊपर जाते है वैसे-वैसे चौड़ाई बढ़ती जाती है । पाँचवे देवलोक (B) तक पहुँचते चौड़ाई 5 राज की हो जाती है। उसके बाद चौड़ाई घटती-घटती लोकाग्र भाग (C) में 1 राज की हो जाती है । उर्ध्वलोक में 12 देवलोक, 3 किल्बिषिक, 9 लोकांतिक, 9 ग्रैवेयक, 5 अनुत्तर एवं सिद्धशीला है। योजन की जानकारी- 12 अंगुल=1 वेंत, 2 वेंत (24 अंगुल)=1 हाथ, 4 हाथ (8 वेंत)=1 धनुष, 2000 धनुष (8000 हाथ)=1 गाउ, 4 गाउ (8000 धनुष)=1 योजन, 1गाउ=3 कि.मी., 1 योजन=12 कि.मी.। .) अधोलोक . ति लोक के नीचे अधोलोक में 7 नरक हैं। वहाँ संख्याता एवं असंख्याता योजन जितने बड़े नारकी जीवों के रहने के स्थान है। उन्हें नरकावास कहते हैं। ये नरकावास कुल 84 लाख हैं। पापी जीव मरकर नरक में जाते हैं। वहाँ परमाधामियों द्वारा भयंकर दुःख उन जीवों को दिया जाता है। नरकवासी के दु:खों का वर्णन करता हुआ नरक वासी का एक पत्र यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। ) नरकवासी का पत्र । हे ति लोक के मानवियों! ओ भाईओं! यह पत्र मैं नरक से लिख रहा हूँ, तुम तो कुशल होंगे ही। मेरी अकुशलता के समाचार लिख रहा हूँ। तुम सोच रहे होंगे कि अचानक एक नरकवासी यहाँ के मानवों को क्यों पत्र लिख रहा है। तो सुनो भाईओं! मैंने पूर्वभव में मौज-शौक ऐशो-आराम करके अनंत पाप को इकट्ठा किया, जिसके फलस्वरुप मेरी आत्मा को नरक में आना पड़ा। यहाँ के कल्पांत दुःख दर्द को देखकर मुझे आप लोगों की चिंता होने लगी कि आप कहीं थोड़े सुख के लिए अपनी आत्मा को नरक के इस भयंकर दुःख में न डाल दे। इस आशय से मैं यह पत्र लिख रहा हूँ। इसे पढ़कर यदि कोई जीव पाप करने से अटक जाएगा तो मैं समझूगा कि मेरा पत्र लिखना सार्थक हुआ। भाई! आप लोगों से अलग होकर सबसे पहले मैं नरक में रही हुई कुम्भी (बड़े पेट एवं छोटे मुँह वाला घड़े जैसा पात्र) में पैदा हुआ। कुंभी में उत्पन्न होते ही अंतर्मुहूर्त (48 मिनट) में मेरा शरीर कुम्भी से भी बड़ा होकर बाहर गिरने लगा। यह देखकर तुरंत परमाधामी (एक प्रकार के राक्षस देव) दौड़कर आए। भयंकर अंधकार था। फिर भी वे जोर-जोर से चिल्ला रहे थे “पकड़ो-पकड़ो"। कुंभी का मुख छोटा होने से C080 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वी देव-देवी को मानना और उसका फल बुद्धि का दरूपयोग करने वाले और उसका फल 150 तुवर RE महाआरंभ का कार्य करवाने वाला और उसका फल ज्यादा बताकर कम देनेवाले और उसका फल Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | बडे वृक्षों को काटने या कटाने वाला और उसका फल सौतेले बच्चे को मारने डांटने वाली माता और उसका फल माता-पिता के सामने बोलने वाले और उसका फल चोरी कर्म करना और उसका फल Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 धर्म द्रव्य का भक्षण करने वाला और उसका फल कठोर वचन द्वारा अपनी पत्रवधु को प्रताडित करने वाली और उसका फल । रात्रिभोजन करनेवाने और उसका फल पति के साथ कटोरता का व्यवहार और उसका फल Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Virala मदिरापान करनेवाले और उसका फल सास-ससुर के साथ झगडा करने वाली और उसका फल 1000000000000 40000000000 400440040 U0940 हरे भरे वृक्षों की डाली तोडने वाल्न और उसका फल्न होली खेलने वाला और उसका फल Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठा नामा बताकर दसरो को ठगनेवाला और उसका फल | बिना छाने हुए पानी का उपयोग करना और उसका फल पानमन्वयक सिगरेट - गुटका - तम्बाकू खाने वाले और उसका फल जू - मांकड़ आदि को मारने वाली महिला और उसका फल Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUDA कंदमून का भोजन करने वाले और उसका फल जिंदा व अबला नारी को जलाने वाले और उसका फल દવામનું પ Cucis ज्यादा भार लादकर बैल को दःखी करना और उसका फल गर्भपात करना या करवाने में सहायक बनना और उसका फल । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा शरीर बाहर नहीं आ सकता था। तभी एक राक्षस चिमटा लेकर आया और चिमटे से पकड़कर मुझे बाहर खींचा। आप ही सोचो मुझे कितना दर्द हुआ होगा? अभी तो मैं इस दर्द से उभरा भी नहीं था उतने में एक राक्षस ने आकर मुझे ऐसी उलाहना देते हुए कहा “हे दुष्ट ! तुझे रात्रि भोजन करने में बहुत मजा आता था। ले उसकी सजा।" ऐसा कहकर गरम-गरम लावा मेरे मुँह में डाल दिया। फिर पुनः कहा “हे पापी ! तुझे कंदमूल खाने में खूब स्वाद आता था, पावभाजी-सेंडवीच बहुत टेस्टी लगते थे। ले, खा यह सेन्डवीच।" ऐसा कहकर गरम-गरम पत्थर के टुकड़े मेरे मुँह में डाल दिये। उसने मुझे याद कराया। “हे दुष्ट ! माँ-बाप की सेवा करने के बदले पत्नी के बहकावे में आकर उनके साथ मारपीट करता था। ले, चख अब उसका मजा।" और फिर भीम जैसी गदा लेकर मुझे मारने लगा। भाई ! उस शस्त्र के एक ही प्रहार से किसी भी मनुष्य की मौत हो जाये। परन्तु यहाँ तो मुझे ऐसे प्रहार बार-बार झेलने पड़ रहे है। इससे मुझे बेहद पीड़ा हो रही है। यहाँ शरीर पारे जैसा होता है। काटो तो टुकड़ेटुकड़े हो जाता है तथा उन टुकड़ों को पुन: जोड़ो तो इकट्ठा हो जाता है अर्थात् पुनः जीवित हो जाता है। तुम्हें मालूम है यहाँ की गर्मी कैसी है ? नहीं ना! हाँ, तुम्हें तो मालूम भी कैसे होगा? तो सुनो अपने देश की टाटा फेक्टरी मालूम है ? जहाँ लोहा पिघलाया जाता है। नरक की इस गर्मी की तुलना में उस भट्टे की गर्मी तो मुझे गुलाबी सर्दी जैसी प्रतीत होती है। शायद तुम सोचोंगे कि यहाँ की गर्मी यदि ऐसी है तो यहाँ सर्दी कैसी होगी? तो सुनो! जो कोई मुझे हिमालय के एवरेस्ट पर खुले शरीर रख दे तो मैं आराम से वहाँ सो जाऊँ। यानि वो सर्दी यहाँ की सर्दी के सामने तो कुछ भी नहीं। सच बात तो यह है कि यहाँ खून को जमा दे ऐसी सर्दी होती है। काँप गए ना तुम? यह सब तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ ताकि तुम स्वयं को नरक की उन तकलीफों से बचाने के लिए वहाँ धरती पर भूल से भी कोई गलत कार्य न करो। मेरे शरीर की कोई आकृति नहीं है। बस मिट्टी के पिण्ड जैसा मनुष्य हूँ, जिसे करोड़ों रोग लग गये है। यहाँ नरक के जीव को पाँच करोड़ अड़सठ लाख नव्वाणु हजार पाँच सौ चौरासी रोग होते हैं। तुम ही सोचो इतनी बिमारियों से भरा जीवन कैसा होगा? वहाँ की वैतरणी नदी जैसी यहाँ खून की नदी बहती है तथा पेड़ ऐसे हैं जिन्हें छूने से शरीर से खून बहने लगता है। यानि ये वृक्ष काँटेदार करवत जैसे हैं। तुझे डर तो लग रहा होगा पर यह सब तुझे बताना जरुरी हैं। एक बात और हमारी आधुनिक युग की स्त्रियाँ जो गर्भपात करवाने से नहीं झिझकती, उन्हें यहाँ सबसे बड़ी सज़ा मिलती हैं। उनका यहाँ पेट फाड़ा जाता है। मुंह में गर्म शीशा डाला जाता है। इसके उपरांत भवोभव तक वे नि:संतान रहने की सज़ा पाते है। इस काम की अनुमोदना करने वाले भी यही सज़ा पाते हैं। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "द्विदल (यानि कठोल के साथ कच्चा, दूध, दही आदि जिनमें बेइन्द्रिय जीव पैदा हो गये हैं वैसा) खाते समय बेन्द्रिय (दो इन्द्रिय वाले) जीवों की हत्या की, फिर भी तेरे दिल में दया नहीं आई।" ऐसा कहते हए असंख्य राक्षस मुझ पर टूट पड़ते हैं। मैं रो पड़ता फिर भी मेरी आवाज सुनने वाला वहाँ कोई नहीं। यहाँ आइस्क्रीम, ठण्डे पेय, शराब, तम्बाकू आदि के नशे की क्या सजा मिलती है, मालूम हैं ? यहाँ ऐसा करने वाले के मुँह में पिघला हुआ शीशा डाल दिया जाता है। पर-स्त्री को सताना तथा परस्त्री के साथ मैथुन करने वाले को लोहे की गरम लाल पुतली के साथ आलिंगन कराया जाता है। ऐसे में हमारी कैसी हालत होती होगी, उसका अनुमान लगाकर तो देखना। मेरे दोस्त! बाजार में बिना सुकाये हुए अचार, अभक्ष्य, बासी आदि खाने का दण्ड भी सुन लो। ऐसा काम करने वाली आत्माओं के मुँह में खून व माँस डालकर खिलाते हैं। बिना छाना हुआ पानी पीने वाले को यहाँ दुर्गन्ध भरा व कीड़ों से भरा पानी पीने को दिया जाता है। तुम्हीं सोचो। कितनी भी प्यास लगी हो फिर भी ऐसा पानी कैसे पीया जा सकता है ? शिकार के शौकीन निरपराध पशुओं को तीर से भेदने वाले, माँसाहार करने वाले, कत्लखाना चलाने वाले, मुर्गी पालन करने वाले तथा मुर्गी के अण्डों से पैसा कमाने वाले यहाँ क्या सजा पाते हैं ? क्या तुम जानना चाहते हो ? तो सुनो, उन जीवों को यहाँ बार-बार काटा जाता है। काट-काटकर फिर जोड़ा जाता है। भाई, तुम्हें लगता है कि इतना तो बहुत हो गया परन्तु नहीं अभी तो बहुत कहना बाकि है। देव, गुरु जैनधर्म की निन्दा की, दूसरे धर्म के देवों को अच्छा कहा, ऐसा याद दिलाकर ये हमारी जीभ पर तेज धार वाले हथियार घुसा देते हैं। ___गुंडे के हाथ में फंसे हुए अकेले व्यक्ति की तरह यहाँ परमाधामियों के बीच बचाने वाला कोई नहीं होता। यहाँ जीव कितना भी पश्चाताप करें तो भी धर्म अथवा धर्मगुरु का आलम्बन नहीं मिल पाता। इतनी असह्य वेदना होने पर भी शरीर प्राण नहीं छोड़ता। मजबूरी है, क्योंकि यहाँ का आयुष्य पूरा किये बिना कोई मर भी नहीं सकता। जब तक आयुष्य पूर्ण न हो तब तक वेदना भोगनी ही पड़ती है। भैया ! यहाँ का आयुष्य कम से कम 10,000 वर्ष से लेकर असंख्य वर्षों का होता है। यहाँ दिन-रात भी नहीं होते जिससे रात्रि में आराम कर सके। चौबीसों घंटे परमाधामी कृत वेदना चालु रहती है। उसमें भी बार-बार के छेदन-भेदन की वेदना में यदि कोई चिल्लाए तो परमाधामियों को और ज्यादा मज़ा आता है इससे ये और अधिक दुःख देते हैं। नरक की वेदना से बचाने में कोई देव भी समर्थ नहीं है। यह सब लिखने का अवसर भी मिलना हमें मुश्किल है पर आज प्रभु का जन्म कल्याणक है। इसलिए नरक में थोड़ा प्रकाश हुआ है और हमें भी थोड़ा आराम मिला हैं। अत: यह पत्र तुम्हें लिख पाया हूँ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ना यह सब असम्भव था। मेरा पत्र पढ़कर तुम कोई गलत कार्य मत करना। वर्ना बाद में मेरी तरह पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा। यहाँ के दुःखों से मुक्त बनकर मुझे भी शीघ्र ही परमात्मा की शरण मिले, ऐसी आप मेरे लिए प्रार्थना करना। अरे बाप रे, परमाधामी आ रहे हैं। बस यही समाप्त करता हूँ।" - तुम्हारा ही एक अभागा भाई इस प्रकार नरक में वेदना का कोई पार नहीं और कोई सहानुभूति बताने वाला भी नहीं। यहाँ तो मात्र परमाधामी कृत वेदना की एक झलक बताई है। बाकि वहाँ की अपार वेदना का वर्णन न तो कोई कर सकता है और न ही कोई सुन सकता है। कहानी - दो भाई थे। दोनों भाईयों के बीच अतिशय प्रेम था। बड़ा भाई सुंदर आराधना कर देवलोक में गया। छोटा भाई मौज-शौक से 18 पापस्थानक का सेवन कर नरक में गया। देवलोक में गए हुए भाई ने अवधिज्ञान से अपने भाई को नरक में अत्यंत वेदना को सहन करते हुए देखा। यह देख उसे दया आ गई। उसका भ्रातृ प्रेम उसे नरक में खींच ले गया। नरक में जाकर देव ने उसे अपना परिचय दिया। छोटे भाई ने नरक की वेदना से छुटकारा पाने के लिए अपने भाई से देवलोक में साथ ले जाने की विनंती की। देव ने अत्यंत प्रेम से उसे हाथ में उठाया। हाथ में उठाते ही उसका शरीर पारे की तरह गिरने लगा। बहुत कोशिश करने पर भी देव उसे नरक की वेदना से उबार न सका। अंत में निरुपाय बन देव रोते-बिलखते भाई को नरक में ही छोड़कर चला गया। NRO नव तत्त्व जीव को संसार से पार उतरने में नवतत्त्व का ज्ञान अति आवश्यक एवं उपयोगी है । नवतत्त्वों के नाम एवं व्याख्या 1.जीव- जो चेतनामय एवं ज्ञानादि गुणों वाला है। कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है। विभाव अवस्था में राग-द्वेष आदि करता है वह जीव है। विविध अवस्थाओं की अपेक्षा से जीव के 14 भेद हैं। 2.अजीव- जगत में छ: द्रव्य हैं। उसमें से एक जीवद्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अजीव है। वे इस प्रकार है - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल। धर्मास्तिकाय - गति करने में सहायक है। अधर्मास्तिकाय - स्थिति में सहायक है। आकाशास्तिकाय - अवगाहना देता है। पुद्गलास्तिकाय - जो भी दिखाई देता है वह प्राय: पुद्गल द्रव्य ही है। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इसके लक्षण है। 083) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जो नये को पुराना करता है। 3. पुण्य - जीव जब शुभ क्रियाएँ करता है, तब वह अच्छे कर्मों का बंध करता है। उसे पुण्य कहते है। इसके उदय से जीव को सुख सुविधाएँ एवं धर्म करने की सामग्री मिलती है । काल 4. पाप - अशुभ क्रियाओं से एवं पाप की क्रिया से जीव बुरे कर्मों का बंध करता है । उसे पाप कहते है। इसके उदय से जीव को संसार में बहुत दुःख सहन करना पड़ता है । विपरीत परिस्थितियों का निर्माण होता है। में 5. आश्रव - मन, वचन एवं काया के शुभ एवं अशुभ योग आश्रव कहलाते हैं। इससे आत्मा कर्म आते हैं । जैसे हिंसा - झूठ - चोरी - अब्रह्म सेवन एवं परिग्रह ये पाँच बड़े आश्रव हैं । 6. संवर - ऐसी धर्म की प्रवृत्ति एवं आत्मा के निर्मल अध्यवसाय (परिणाम) की धारा, जिससे कर्मों का आना बंध हो जाता हैं। जैसे पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन, 12 भावनाओं का भावन, 22 परिषहों को सहना आदि । - 7. निर्जरा - जिससे बांधे हुए पुराने कर्म भी नाश हो जाते हैं। जैसे 12 प्रकार के बाह्य अभ्यंतर तप । 8. बंध - कर्मों का आत्मा के साथ एकमेक हो जाना बंध है। इसके चार भेद है - 1. प्रकृति बंध 2. स्थिति बंध 3. रस बंध 4. प्रदेश बंध 9. मोक्ष - सर्व कर्मों के बंधनों से छुटकारा पाना ही मोक्ष है । प्र.: नवतत्त्वों को समझकर क्या करना चाहिए? उ.: नवतत्त्वों को समझकर उसमें से छोड़ने योग्य को छोड़ना, ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना एवं जानने योग्य को जानना । वे इस प्रकार हैं - हेय=छोड़ने योग्य तत्त्व=पाप, आश्रव, बंध तथा पापानुबंधी पुण्य ये सब छोड़ने जैसे है। इनसे अपनी आत्मा मलिन बनती है। उपादेय = ग्रहण करने योग्य तत्त्व = = पुण्यानुबंधी पुण्य, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष ये जीवन में अपनाने जैसे तत्त्व है। इससे आत्मा धर्म द्वारा मोक्ष को पाती है। ज्ञेय=जानने योग्य तत्त्व - जीव, अजीव, ये दोनों जानने योग्य है। इससे जीव का महत्त्व समझ में आता है एवं अजीव का ममत्व टूटता है। नाँव के दृष्टांत से नवतत्त्व की समझ समुद्र में एक नाँव है। वह एक जड़ वस्तु है। उसे अजीव कहा जाता है। अजीव वस्तु को चलाने के 084 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए उस नाँव में जीव यानि मनुष्य बैठा है। अनुकूल पवन - जो जीव को सुख की दिशा में ले जाता है, वह पुण्य है। प्रतिकूल पवन - जो जीव को दुःख की दिशा में ले जाता है, वह पाप है। नाँव में छेद पड़ जाए और उस नाँव में पानी भरने लगे तो उसे आश्रव कहा जाता है। जीव उस छेद को किसी वस्तु से बंध कर दे उसे संवर कहा जाता है। छेद को बंध करने के बाद जीव नाँव के अंदर रहे हुए पानी को बाहर निकालता है उसे निर्जरा कहते है । बाद में नाँव का जो लकड़ा भीगा हुआ होता है उसे बंध कहा जाता है। जीव उस नाँव को सुकाने के लिए समुद्र के तट पर आकर उस नाँव को बांधकर अपने घर लौटता है । उसे मोक्ष कहा जाता है। पुण्य-पाप के 4 प्रकार 1. पुण्यानुबंधी पुण्य- जिस पुण्य के उदय में जीव को अच्छी सामग्री के साथ अच्छी बुद्धि मिलती है एवं जीव उस पुण्य का सदुपयोग कर पुनः पुण्य का उपार्जन करे, वह पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है । जैसे धन्ना - शालिभद्र का पुण्य । 2. पापानुबंधी पुण्य- पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय होने पर सामग्री तो बहुत अच्छी मिलती है। लेकिन उसका दुरुपयोग कर पुनः पाप का बंध करे, वह पापानुबंधी पुण्य कहलाता है। जैसे बह्मदत्त चक्रवर्ती ने पुण्य से प्राप्त सत्ता का उपयोग ब्राह्मणों की आँखें फोड़ने में किया एवं उससे पाप बांधकर नरक में गया। उ. पुण्यानुबंधी पाप- पाप के उदय को समभाव से सहन करने पर नया पुण्य उपार्जित होता है। वह पुण्यानुबंधी पाप कहलाता है। जैसे अंजना सती को पाप के उदय से पति का वियोग हुआ परन्तु उस दुःख में स्वयं दुःखी न बन कर आराधना में लीन रही उससे पुण्य बंध हुआ । अर्थात् पाप के उदय में स्वच्छ बुद्धि से समभाव में रहना । 4. पापानुबंधी पाप- पाप के उदय में आर्तध्यान कर पुनः पाप कर्म को बांधना। वह पापानुबंधी पाप कहलाता है। जैसे भील - कसाई - मच्छीमार आदि पाप के उदय से इस भव में दुःखी होते हैं । और पुनः पाप बांधकर नरक में दुःख पाते हैं। (नोट - नवतत्त्व का विस्तृत विवेचन इसी कोर्स में आगे यथास्थान दिया जायेगा । ) जरा सोचो आँख में गिरी हुई मिट्टी, पैर में लगा हुआ काँटा, यह जितने खटकते है उतना हृदय में रहा हुआ पाप खटक जाये तो पाप अटक जाता है। याद रखें जो खटकता है वो अटकता है। 085 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म कर्म की व्याख्या : मिथ्यात्वादि हेतुओं द्वारा जीव जो काम करता है। वह कर्म कहलाता है। कर्मबंध के पाँच हेतु (1) मिथ्यात्व : श्री अरिहंत परमात्मा द्वारा बताये हुए सत्य तत्त्व (सुदेव, सुगुरु, सुधर्म) को छोड़कर अन्य तत्त्व को मानना । (2) अविरति : हिंसादि पापों का अत्याग यानि कि सर्वविरति, देशविरति, व्रत, पच्चक्खाण आदि ग्रहण पालन न करना । : क्रोध, मान, माया, लोभ का सेवन करना । : मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा करना। : मन, वचन और काया की प्रवृत्ति करना । भेद कौन से गुण को रोकता है 2 | आत्मा के ज्ञान गुण को रोकता है। आत्मा के दर्शन गुण को रोकता है।' आत्मा के अव्याबाध सुख को रोकता है। 28 सम्यग्दर्शन और चारित्र गुण को रोकता है। | आत्मा की अक्षयस्थिति को रोकता है। 103 | आत्मा के अरुपी गुण को रोकता है। 4 6. नाम 7. गोत्र 2 8. अंतराय आत्मा के अगुरु-लघु गुण को रोकता है। 5 आत्मा के अनंतवीर्य गुण को रोकता है। कहानी द्वारा कर्म के नाम एक आदमी था, ज्ञानचन्द्र ( ज्ञानावरणीय कर्म) । वह प्रतिदिन दर्शन करने जाता था (दर्शनावरणीय कर्म)। एक दिन रास्ते में उसके पेट में वेदना हुई ( वेदनीय कर्म) । वहाँ डॉ. मोहनदास आए (मोहनीय कर्म) उन्होंने कहा तुम्हारी आयु कम है (आयुष्य कर्म)। भगवान का नाम लो (नामकर्म) उच्च गोत्र मिलेगा (गोत्र कर्म)। सब अंतराय टूट जायेंगे (अंतराय कर्म) । प्र.: फटाके फोड़ने से आठ कर्म बंध कैसे ? 3.: 1. पेपर जलने से - ज्ञानावरणीय कर्म (3) कषाय (4) प्रमाद (5) योग कर्म के नाम 1. ज्ञानावरणीय 5 2. दर्शनावरणीय 9 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयुष्य 086 बंध का कारण | ज्ञान, ज्ञानी की आशातना करने से । | दर्शन के उपकरण की आशातना से। जीवों को दुःख देने से। उन्मार्ग देशना, साधु की निंदा, राग-द्वेष करने से । कषाय करने से। शुभ - अशुभ कार्य करने से। पर - निंदा, स्व-प्रशंसा करने से। दान, शीलादि में अंतराय करने से। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. सूक्ष्म जीवों के अंगोपांग नाश होने से- दर्शनावरणीय कर्म 3. जीवों को वेदना होने से- वेदनीय कर्म 4. फटाके फोड़ने में आनंद आने से - मोहनीय कर्म 5. फोड़ते समय आयुष्य बंध हो तो- आयुष्य कर्म 6. फटाके से जलकर मर जाये तो- नाम कर्म 7. निमित्त बनने से- गोत्र कर्म 8. किसी के नींद में, पढ़ाई में अंतराय (विघ्न) देने से- अंतराय कर्म प्र.: कई लोग हमेशा दर्शन-पूजन आदिधर्म करते है तो भी उनको दुःख क्यों आते है ? उ.: दो दोस्त एक बार पार्टी में गये। रमेश ने पार्टी में मिर्ची वडे बहुत खा लिए और उसको दूसरे दिन सुबह से दस्ते चालु हो गयी। 9 बजे तक तो 10 बार जाकर आ गया। सुरेश को पूछा कि ऐसा क्यों ? मैंने सुबह से कुछ खाया ही नहीं तो भी यह हालत्र और तुमने सुबह से कितना खा लिया तो भी तुझे कुछ नहीं हुआ। दोनों __डॉक्टर के पास गये। डॉक्टर को दोनों की बात बताई । डॉक्टर ने पूछा कल किसने कितना खाया? रमेश ने कहा-मैंने कल बहुत खाया। डॉक्टर समझ गये और कहा कल खाया आज उदय (बाहर) में आया। आज खाया कल आयेगा। इसी प्रकार इस भव में किया हुआ पुण्य अगले भव में काम आयेगा। पूर्व भव में किया हुआ पाप कर्म वह अब उदय में आ रहा है। उसे समता से भोगना चाहिए । (नोट: कर्मग्रन्थ का विस्तृत विवेचन इस कोर्स में आगे यथास्थान दिया जायेगा।) उपमा द्वारा प्रत्येक कर्म का फल 1. ज्ञानावरणीय कर्म - आँख पर बाँधी हुई पट्टी के जैसा। 2.दर्शनावरणीय कर्म - द्वारपाल के जैसा। 3.वेदनीय कर्म शहद से लिप्त तलवार की तीक्ष्ण धार जैसा। 4.मोहनीय कर्म । - मदिरा (शराब) के जैसा। 5. आयुष्य कर्म बेड़ी के जैसा। 6. नाम कर्म - चित्रकार के जैसा। 7.गोत्रकर्म कुंभार के जैसा। 8. अंतराय कर्म भंडारी के जैसा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या लेश्या यह जैन दर्शन में सुप्रसिद्ध पारिभाषिक शब्द है। योगवर्गणा के अंतर्गत कृष्णादि द्रव्य के संबंध से उत्पन्न होने वाले आत्मा के परिणाम विशेष को लेश्या कहते है । लेश्या हमारी चेतना की एक रश्मि है। लेश्या का अर्थ है - रंग, भावधारा, आभामण्डल। इसके छः भेद है। उसमें अशुभ कर्म की विकृति से आत्मा में कृष्ण (काला), नील (डार्क ब्लू), कापोत (कबूतर समान लाइट ब्लू) ये तीन रंग के पुद्गल द्रव्य उत्पन्न होते हैं। यह अशुभ द्रव्य लेश्या है। तथा शुभ कर्म की प्रकृति से आत्मा में तेजो (पीला), पद्म (गुलाबी), शुक्ल (सफेद) ये तीन रंग के पुद्गल द्रव्य उत्पन्न होते हैं । यह शुभ द्रव्य लेश्या है। जिस तरह स्फटिक रत्न के छिद्र में जिस रंग का धागा पिरोया जाये, रत्न उसी रंग का दृष्टिगोचर होता है। उसी प्रकार शुभ-अशुभ द्रव्य लेश्या के अनुरुप आत्मा में शुभ-अशुभ भाव उत्पन्न होते है। उसे भाव लेश्या कहते है। वर्तमान में फोटोग्राफी से मनुष्य के ओरा के रंग जाने जा सकते है। जिसके अनुसार व्यक्ति के आंतरिक शुभ-अशुभ भावों को भी जाना जा सकता है। लेश्या कर्म बंध में निमित्त होने से शुभ-अशुभ लेश्या को जानकर जीवन में से अशुभ लेश्या का त्याग किया जा सकता है। लेश्या के 6 प्रकार है- (1) कृष्ण (2) नील (3) कापोत (4) तेजो (5) पद्म (6) शुक्ल लेश्या । उपरोक्त प्रत्येक द्रव्य लेश्या स्व-नामानुसार वर्णवाली है। वर्ण के अनुसार लेश्याएँ हमारी आत्मा में भी उसी प्रकार से तीव्र, मंद, शुभाशुभ अध्यवसाय उत्पन्न करती है। छः लेश्या की व्याख्या 1.कृष्ण लेथ्या- इस लेश्या वाला जीव शत्रुतावश निर्दयी, अति क्रोधी, भयंकर मुखाकृति वाला, तीक्ष्ण कठोर, आत्म धर्म से विमुख और हत्यारा (वध कृत्य करने वाला) होता है। * इस लेश्या में जीव को दूसरों का नुकसान करने की तीव्र भावना होती है। यदि उसमें स्वयं का नुकसान भी हो जाए फिर भी परवाह नहीं करते अर्थात् स्व का नुकसान करके भी दूसरों को अवश्य नुकसान पहुँचाना। दृष्टान्त - एक दिन एक किराये के मकान में रहने वाली पद्मा बेन नल के नीचे पानी भर रही थी। उतने में घर की मालकिन शांता बेन पानी भरने आई। उसने पद्मा बेन के घड़े को हटाकर अपना घड़ा भरना शुरु कर दिया। इससे पद्मा बेन को बहुत गुस्सा आया और दोनों के बीच खूब झगड़ा हुआ । झगड़े-झगड़े में बात 088 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत आगे बढ़ गई। शांताबेन से बदला लेने के लिए पद्माबेन उसे किसी भी प्रकार से खत्म कर देना चाहती थी। पर जब कोई उपाय नहीं मिला तब गुस्से में आकर पद्मा बेन ने स्वयं के शरीर पर आग लगा दी एवं दौड़कर शांता बेन से जा लिपटी। शांता बेन ने अपने आप को बचाने की बहुत कोशिश की। परंतु पद्मा बेन ने उसे नहीं छोड़ा। यह पद्मा बेन की कृष्ण लेश्या हुई। यहाँ पद्मा बेन शांता बेन को मारने के आनंद में स्वयं के मरने की पीड़ा भूल गई। * रमेश एक विषय में फेल हुआ और महेश दो विषय में फेल हुआ। तब रमेश स्वयं के नुकसान को भूलकर महेश दो विषय में फेल हुआ, इसलिए वह खुश हुआ। इस प्रकार यह कृष्ण लेश्या हुई। 2. नील तेश्या- इस लेश्या वाला जीव मायावी, दांभिक-वृत्तिवाला, रिश्वत लेने का आग्रही, चंचल चित्त वाला, अति विषयी एवं मृषावादी होता है। * इस लेश्या में जीव स्वयं के क्षणिक लाभ के लिए दूसरों का भारी नुकसान भी कर देता है। दृष्टान्त- मकान मालिक के अति दबाव के बावजूद भी किरायेदार घर खाली नहीं कर रहा था। इतने में भूकंप आया और मकान गिर गया। जिसमें किरायेदार मर गया एवं मकान मालिक का घर भी खाली हो गया। इसमें मकान खाली कराने के स्वार्थ से किरायेदार के मर जाने पर भी नील लेश्या वश मालिक खुश हुआ। * अपनी थोड़ी सुंदरता के लिए पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा से जन्य लिप्स्टिक, शेम्पू आदि का उपयोग करना नील लेश्या हैं। * 2-5 लाख के दहेज़ के खातिर बहू को मार डालना। यह भी नील लेश्या है। * परमाधामी जीव नारकी के जीवों को दुःख देने में आनंद लेते है। वह नील लेश्या है। वैसे ही छोटे बच्चों को चिढ़ाकर, उनके रोने पर खुश होना भी नील लेश्या है अर्थात् अपनी थोड़ी खुशी के लिए छोटे बच्चों को रुलाना। 3.कापीत लेश्या- इस लेश्या वाला जीव मूर्ख, आरंभ-मग्न, किसी भी कार्य में पाप नहीं मानने वाला, लाभालाभ के प्रति उदासीन, अविचारक एवं क्रोधी होता है। * इस लेश्या में जीव सामान्य लाभ के लिए नहीं परंतु अपने बड़े नुकसान से बचने के लिए दूसरों को नुकसान पहुंचाता है। दृष्टान्त- एक सियाल पानी में गिरा। उतने में एक बकरी आई। बकरी ने पूछा - “पानी कैसा है?'' तब सियाल ने कहा- “पानी बहुत मीठा है। तू भी आ जा।" वह अंदर कूदी। तब सियाल बकरी पर चढ़कर बाहर निकल गया और बकरी से कहा कि अब तू दूसरे की राह देख। सियाल ने स्वयं के बचने रुपी बड़े लाभ के लिए बकरी को फँसा दिया। इसलिए वह कापोत लेश्या है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * इन तीन.लेश्या वाले जीवों में स्वार्थ की मात्रा इतनी अधिक होने से अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों के नुकसान की परवाह नहीं करते। ___ यदि कापोत लेश्या में तीव्रता आ जाए तो वह नील और कृष्ण भी बन सकती है। 4. तेनो लेथ्या- इस लेश्या वाला जीव दक्ष, कुशल कर्म करने वाला, सरल, दानी, शीलयुक्त, धर्म बुद्धि से युक्त एवं शांत होता है। * इस लेश्या में जीव जहाँ सहजता से दूसरों का परमार्थ (भलाई) होता हो तो उस मौके को नहीं छोड़ता। दृष्टान्त- स्वयं के लिए पानी पीने उठे हो, तो दूसरों को भी पानी पिलाने की भावना रखना। * पूजा में या प्रभावना के लिए भीड़ हो वहाँ धक्का-मुक्की करने के बजाय पहले दूसरों को जाने देना। * आयंबिल खाता में गरमा-गरम खम्मण की पुरस्कारी हो रही हो, अपनी बारी आए उस समय थाली में चार खम्मण ही हो, तब स्वयं न लेकर पास वाले को रखवा देना। * स्वयं के पास करोड़ रुपये हो तो दूसरों को लाख रुपया देकर धंधे पर लगवा देना। इस प्रकार यह तेजोलेश्या हुई। सार यह है कि स्वयं का विशेष नुकसान नहीं एवं दूसरों का हित हो जाए ऐसे कार्य में कभी पीछे नहीं रहना। वह तेजो लेश्या होती है। 5. पढ्न लेश्या - इस लेश्या वाला जीव प्राणियों के प्रति अनुकंपा प्रदर्शित करने वाला, स्थिर, सभी जीवों को दान देने वाला, अति कुशल, कुशाग्र बुद्धिवाला एवं ज्ञानी होता है। * इस लेश्या में जीव की परोपकार वृत्ति इतनी अधिक होती है कि दूसरों के लाभ हेतु अपना नुकसान भी हो जाए तो परवाह नहीं करते। दृष्टान्त: एक पिता के तीन पुत्र थे। तीनों की शादी होने के पश्चात् एक बार पिता ने विचार किया कि यदि मैं जीते जी तीनों को धन बांटकर दे दूँ तो झगड़े का मूल ही खत्म हो जायेगा। पिता के पास 1 करोड़ की संपत्ति थी। उन्होंने संपत्ति बांटने के लिए तीनों को बुलाया। तब छोटे पुत्र ने कहा-संपत्ति का बंटवारा मैं करूँगा। चाहे मैं उम्र में छोटा हूँ फिर भी संपत्ति का बंटवारा करने का अधिकार मेरा है। मुझे आप लोगों पर विश्वास नहीं। बड़े दोनों भाई मौन रहे। छोटे भाई ने कहा-जिसकी जितनी उम्र है उसे उतने लाख रुपये मिलने चाहिए। अर्थात् बड़े भाई को 42 लाख, बीच वाले भाई को 34 लाख और मुझे 24 लाख। यह बात सुनकर पिता एवं दोनों भाई आश्चर्य चकित रह गए। तब छोटे भाई ने कहा-यदि पिताजी बंटवारा करते तो सभी को 33-33 लाख रुपये देते। लेकिन मेरे से यह अन्याय कैसे सहन हो सकता है। बड़े भाई कितने वर्षों से धंधा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर रहे है। उन्हें संपत्ति अधिक ही मिलनी चाहिए। यह है पद्म लेश्या का परिणाम। * सामान्य व्यक्ति रिक्शा वाले के पास 1 रुपया भी नहीं छोड़ता, साग-भाजी वाले के पास 10 पैसा भी नहीं छोड़ता। लेकिन इस पद्म लेश्या वाले भाई ने न्याय के लिए 9 लाख रुपये छोड़ दिए। 6. शुक्ल लेथ्या - इस लेश्या वाला जीव धर्म बुद्धि से युक्त, सभी कार्यों में पाप से दूर रहने वाला, हिंसादि पापों में अरुचि रखने वाला एवं दुर्गुणों के प्रति अपक्षपाती होता है। * शुक्ल लेश्या के परिणाम वाला जीव दूसरों के हित के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है। दृष्टान्त- प्रभु महावीर ने नंदन ऋषि के भव में मात्र जीवों को तारने के उद्देश्य से 11,80,645 मासक्षमण किए। इसमें उनका कोई स्वार्थ नहीं था। यह शुक्ल लेश्या का परिणाम है। * गजसुकुमाल के ससरे ने जब सिर पर मिट्टी की पाल बांधकर उसमें अंगारे भरें। तब गजसुकुमाल ने विचार किया कि यदि मैं इस असह्य वेदना में अपने शरीर के मोह से थोड़ा भी हिल गया तो ये अंगारे ज़मीन पर गिरने से असंख्य छोटे-छोटे जीव-जंतु मर जायेंगे। अत: उनकी रक्षा के लिए मस्तक को जलने दिया, पर अहिले नहीं। यह शुक्ल लेश्या का परिणाम है। * तेजो, पद्म, शुक्ल लेश्या वाले जीव परोपकार के लिए अपने प्राण भी त्याग देते है। प्रस्तुत विषय का अधिक स्पष्टीकरण करने के लिए शास्त्र ग्रंथों में जंबूवृक्ष एवं चोर का उदाहरण दिया गया है। छ: लेस्या पर जामुनवृक्ष का दृष्टांत एक बार मार्ग-भूले छ: पथिक किसी जंगल में जा पहुँचे । तीव्र क्षुधा और तृषा से उनका बुरा हाल था। अत: इष्ट भोजन व जल की खोज में इधर-उधर भटकने लगे। अचानक उन्हें जामुन से लदा एक जामुन वृक्ष दृष्टिगोचर हुआ । लालायित होकर वे वृक्ष के पास गये और ललचायी नज़र से जामुनों की ओर देखने लगे । 66 तब उनमें से एक ने व्यग्र हो कहा - क्यों न इसे जड़मूल से उखाड़ दे। ताकि निश्चिंत होकर पेट भरकर जामुन खाने को मिलेंगे।” अर्थात् केवल जामुन के खातिर वृक्ष को ही जड़मूल से उखाड़ने की दुष्ट वृत्ति उत्पन्न होना कृष्ण लेश्या कहलाती हैं। इस तरह अपना स्वार्थ सिद्ध करने हेतु अन्य के प्राणों की परवाह किये बिना संहार करने की दुष्ट भावना रखनेवाला अत्यंत स्वार्थान्ध जीव, कृष्ण लेश्या से युक्त होता है। चित्र में प्रथम क्रमांक के पुरुष को जामुन के लिए वृक्ष को ही जड़मूल से उच्छेदन करता दिखाया है। उसका पोषाक एकदम काला है। मतलब कृष्ण लेश्या का वर्ण काला होता है। इतने में दूसरे पुरुष ने कहा- "ऐसे विशाल वृक्ष को भला उखाड़ने से क्या लाभ? साथ ही हमें 091 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ: लेश्या : जंबू वृक्ष तथा चोर का दृष्टांत तेजो लेश्या मि SSA ताडनाव .... OMWN.. नौल लेश्या . . . 4 Pancy 3 कायोत लाया कृष्ण लेश्या पदम नया जामुन के लिए नीचे गिरे हुए जाबुन भक्षण कृष्ण श्या नाललेश्वा पा मात्र पुरुष वध कापोत! लेश्या सशस्त्र पाने का वध लश्या गनिा पन ग्रहण 092 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकी कतई आवश्यकता नहीं है। इससे बेहतर यह है कि हम इसकी बड़ी-बड़ी टहनियों को तोड़कर भरपेट जामुन खाएँ।" अर्थात् क्षुद्र जामुन के लिए वृक्ष के महत्त्वपूर्ण अंग स्वरुप विशाल शाखाओं को ही धराशायी करने का कुटिल विचार यह नील लेश्या का द्योतक है। चित्र में द्वितीय क्रमांक के पुरुष को मध्यम श्याम वर्णवाला दिखाया है, जो वृक्ष की बड़ी शाखाओं को काट रहा है। इस तरह कितने ही स्वार्थान्ध जीव अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए अन्य के महत्त्वपूर्ण अंगों को नुकसान पहुंचाते हुए जरा भी नहीं हिचकिचाते। ___ इतने में तीसरे पुरुष ने कहा - "अरे भाई वृक्ष की बड़ी टहनियाँ तोड़ने से क्या लाभ ? उसके बजाय क्यों न हम जामुनों से लदी-बदी छोटी डालियाँ काट लें। हमें जामुन खाने से मतलब है, न की टहनियाँ तोड़ने से। और जामुन तो छोटी डालियों पर लगे हुए है।'' यह विचार कापोत लेश्या गर्भित है। चित्र में तृतीय क्रमांक के पुरुष को कापोत (कपोत) = कबूतर जैसा अल्प श्याम वर्णवाला दिखाया है। जो वृक्ष की छोटी-छोटी डालों को काट रहा है। इस संसार में अपनी स्वार्थ-सिद्धि हेतु अन्य जीवों को होनेवाली कम-ज्यादा हानि की जरा भी परवाह न करनेवाले कापोत लेश्या गुण-धर्म वाले कई जीव होते हैं। शास्त्र-ग्रंथों में उपरोक्त तीनों ही लेश्याओं को अशुभ माना गया है। जिस तरह उनके वर्ण अशुभ है, उसी तरह उनके रस-गंधादि स्वभाव-धर्म भी अशुभ ही हैं। ___ इतने में चौथे पुरुष ने कहा- “यह तो सब ठीक है। लेकिन हमें केवल जामुन खाने से मतलब है। वृक्ष की छोटी-छोटी शाखाएँ तोड़ने से क्या लाभ? उसके बजाय जामुन के गुच्छे ही तोड़कर हमारा काम चला सकते हैं। इससे जामुन भी जी भर कर खा लेंगे और शाखाएँ तोड़ने का सवाल भी खड़ा नहीं होगा।" यह विचार तेजो लेश्या से गर्भित है। हमारे स्वार्थ के लिए संसार में किसी अन्य जीव अथवा प्राणी को बड़ा अथवा मध्यम नुकसान न पहुँचे इसकी सावधानी बरतने वाले जीव तेजो लेश्या से युक्त होते हैं। चित्र में चौथे क्रमांक में उगते सूर्य के प्रकाश सदृश रक्त वर्णीय पुरुष दिखाया है। ___ उसमें से पाँचवें ने गंभीर स्वर में कहा - "वह तो ठीक है। किंतु हमें जामुन के गुच्छे का भी कोई प्रयोजन नहीं है। बल्कि हमारे प्रयोजन रसभरे बड़े-बड़े जामुनों से हैं। ऐसी स्थिति में ताज़े जामुन ही क्यों न चुन लें।” उक्त विचार पदमलेश्या का द्योतक है। संसार में कई जीव ऐसे होते हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए अन्य जीवों की अल्प प्रमाण में भी हानि न हो इस बात की सावधानी बरतते हुए जीवन प्रसार करते हैं। वह पद्मलेश्या का ही साक्षात् प्रतीक है। चित्र में पाँचवें क्रमांक में इसी आशय को प्रदर्शित करने के लिए कमल-पुष्प की भाँति हल्के पीले वर्णवाला पुरुष दर्शाया है, जो जामुन चुन रहा है। किंतु उन सबके मतों को सुनकर छठे पुरुष ने शांत स्वर में कहा- “जब हम भूमि पर गिरे हुए Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जामुन का आहार कर तृप्त हो सकते हैं तो अधिक फलों की आवश्यकता ही नहीं रहती। ऐसी दशा में फल, तोड़कर पाप करने से क्या लाभ?" यह विचार शुक्ल लेश्या गर्भित है। अन्य जीवों को लेश मात्र भी हानि न हो और स्वयं की स्वार्थ-सिद्धि भी सरलता से हो जाए। संसार में इस विचार के कई जीव होते हैं। ऐसे अध्यवसाय वाले जीव शुक्ल लेश्या वाले माने जाते हैं। इसी आशय को प्रकट करने के लिए छटे चित्र में श्वेत वस्त्रधारी पुरुष को भूमि पर पड़े जामुन चुनता हुआ दिखाया गया हैं। छ: लेश्याओं में से 'तेजो' 'पद्म' एवं 'शुक्ल' इन तीन लेश्याओं की गणना शुभ लेश्या के अन्तर्गत होती है। क्योंकि इनका गुणधर्म अन्य जीवों को अति, मध्यम, अल्प प्रमाण में अथवा पूर्ण हानि नहीं पहुँचे, इस बात की प्रायः सावधानी बरतना है। जब कि 'कापोत' 'नील' एवं 'कृष्ण' लेश्याओं का उल्लेख अशुभ लेश्या के अन्तर्गत होता है। इसका अध्यवसाय और गुणधर्म अन्य जीवों को अधिकाधिक कष्ट तथा नुकसान पहुँचाना है। उपरोक्त दृष्टांत से विश्व में रहे समस्त जीव-प्राणियों के शुभाशुभ अध्यवसायों की कोमलता एवं कठोरता का मूल्यांकन भली-भाँति कर सकते हैं। ) चोर के दृष्टांत से लेश्या की समग . एक दिन कई चोर मिलकर किसी नगर में डाका डालने गये। मार्ग में जाते हुए परस्पर बातें कर रहे थे। उनमें से एक दुष्टात्मा चोर ने कहा- जो कोई भी पुरुष, स्त्री, वृद्ध, बालक अथवा पशु नज़र आएँ। हमें उन्हें मौत के घाट उतारकर उनके पास रही धन-संपदा लूट लेनी चाहिए। चोर का यह अतिक्रूर कठोर अध्यवसाय निहायत कृष्ण लेश्या से गर्भित है। दूसरे चोर ने कहा- पशु और अन्य प्राणियों ने हमारा क्या बिगाड़ा है? उन्होंने कोई अपराध नहीं किया। अत: जिनसे हमारा वैर-विरोध है ऐसे मनुष्य मात्र की हत्या करनी चाहिए। अत: चोर का मध्यम क्रूर अध्यवसाय नील लेश्या से गर्भित है। तीसरे चोर ने कहा- हमें भूल कर भी स्त्री हत्या नहीं करनी चाहिए। क्योंकि यह कार्य सर्वत्र निंदनीय और वर्जित है। अत: मात्र पुरुष का हनन करना उचित रहेगा। कारण वह क्रूरात्मा होता है। तीसरे चोर का यह मंद क्रूर अध्यवसाय कापोत लेश्या गर्भित माना गया है। चौथे चोर ने कहा- अरे! सभी पुरुष एक समान नहीं होते। अत: जो शस्त्रधारी हो, उसी की हत्या करना उचित है। चौथे चोर का यह अध्यवसाय क्रूर अवश्य है। किन्तु उसमें कोमलता का अंश है। अत: यह तेजो लेश्या गर्भित है। पाँचवें चोर ने कहा- शस्त्रधारी पुरुष यदि कायरतावश मैदान छोड़कर भाग रहा हो तो उसकी (090 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्या करने से भला हमें क्या लाभ होगा? अत: जो शस्त्रधारी पुरुष हमारा सामना करें। उसी का वध करना, सभी दृष्टि से उचित हैं। यहाँ चौथे के बजाय पाँचवे चोर के अध्यवसाय में कोमलता अधिक मात्रा में है। अत: नि:संदेह यह पद्म लेश्या का द्योतक हैं। छठे चोर ने कहा- अरे वाह! यह भी कोई बात हुई ? एक तो परायें धन पर डाका डालना, चोरी करना और उसकी हत्या भी कर देना। वास्तव में यह पाप ही नहीं महापाप है। ऐसा भयंकर पाप करने से हमारी क्या दुर्गति होगी। यदि धन ही चाहिए तो छीन लेना चाहिए। हत्या करने से क्या लाभ ? छठे चोर की भावना के अध्यवसाय में अधिकाधिक प्रमाण में कोमलता के दर्शन होते हैं। यही शुक्ल लेश्या का साक्षात प्रतीक है। शास्त्रों में कहा है कि 'मृत्यु के समय जो लेश्या होती है, आत्मा उसी लेश्या की प्रधानता वाले भव में पुनर्जन्म लेती है। ___ लेश्या का अल्पबहुत्व- शुक्ल लेश्या वाले सबसे कम, पद्म लेश्या वाले उससे असंख्य गुण अधिक, तेजो लेश्या वाले उससे असंख्य गुण अधिक, कापोत लेश्या वाले उससे अनंत गुण अधिक, नील लेश्या वाले उससे विशेषाधिक, कृष्ण लेश्या वाले उससे और विशेषाधिक। इस प्रकार क्रमश: एक से एक अधिक है। लेश्या में मन, वचन, काया के योग मूल कारण है। जब तक योग का सद्भाव कायम है तब तक ही लेश्या का भी सद्भाव होता है और योग के अभाव में लेश्या का भी अभाव होता है। प्रश्नोत्तरी प्र.: हम कौन हैं? उ.: हम जाति से आर्य है और धर्म से जैन हैं। प्र.: जैन किसे कहते हैं ? उ.: जिसने राग-द्वेष को जीता है। ऐसे जिनेश्वर की आज्ञा को जो हृदय से स्वीकार करें, उसे पालन करने योग्य माने एवं यथाशक्ति जो पाले। तथा जिस आज्ञा का पालन होता है, उसका हृदय में आनंद माने और आज्ञा का भंग हो जाने पर जो मन में दुःख रखें वह जैन कहलाता है। प्र.: जिनदर्शन क्यों करना चाहिए? उ.: परमात्मा के समान बनने के लिए एवं आत्मा की शुद्धि के लिए। प्र.: प्रभुदर्शन से क्या लाभ है? Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.: मंदिर जाने की इच्छा करने पर जाने की इच्छा से उठने पर मंदिर की ओर पैर उठाने पर मार्ग में चलने पर दूर से मंदिर के दर्शन होने पर मंदिर के नज़दीक जाने पर गंभारे के पास आने पर - 1 उपवास 2 उपवास 5 उपवास - 15 उपवास 30 उपवास 5 महीनें के उपवास 1 वर्ष के उपवास 100 वर्ष के उपवास 1000 वर्ष के उपवास 1 लाख वर्ष के उपवास जितना लाभ प्राप्त होता है । प्रदक्षिणा देने अष्टप्रकारी पूजा करने पर फूल की माला चढ़ाने पर प्र.: जिनेश्वर 24 ही क्यों होते हैं ? उ.: जब सर्व ग्रह नक्षत्र उच्च स्थान पर आते है तभी तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है। पूरे अवसर्पिणी काल में ऐसा समय मात्र 24 बार ही आता है। अनंत काल से तथा लोक स्वभाव से भी भरत - ऐरावत क्षेत्र में एक अवसर्पिणी में 24 तीर्थंकर ही होते है। प्र.: सब भगवान में सबसे शांत स्वरुप किसका है और वास्तविक हितकारी कौन है ? उ.: सब भगवान के फोटो सामने रखकर देखने पर तीर्थंकर प्रभु ही सबसे शांत मुद्रा वाले दिखते हैं । जिनको देखते ही मस्तक झुक जाता है और वे ही मध्यस्थ भाव वाले होने से बिना पक्षपात के सबके लिए समान हितकारी हैं। प्र.: पंच परमेष्ठी किसे कहते हैं? उ.: परम (उच्च) स्थान पर बिराजमान ऐसे अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ये पंच परमेष्ठी हैं। प्र.: पाँच कल्याणक के नाम बताओ ? उ.: च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान एवं मोक्ष ये पाँच कल्याणक है। प्र.: चार मंगल कौन-कौन से हैं? उ.: अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं धर्म अथवा वीर प्रभु, गौतम स्वामी, स्थूलभद्रसूरिजी एवं जैन धर्म मंगल हैं। प्र.: प्रभु के पास क्या माँगना चाहिए? उ.: जयवीयराय में बतायी गई 13 वस्तुएँ माँगने लायक हैं । जैसे संसार से वैराग्य, प्रभु चरणों की सेवा, 1096) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण एवं सम्यक्त्व की प्राप्ति आदि। प्र.: श्री जिनेश्वर भगवान के दूसरे नाम क्या है? उ.: अरिहंत, तीर्थंकर, वीतराग, परमात्मा, जिनेश्वर, भगवान, देवाधिदेव आदि। प्र.: वर्तमान में कितने अरिहंत विचरण कर रहे हैं एवं कहाँ पर विचर रहे हैं? उ.: वर्तमान में सीमंधर स्वामी आदि 20 विहरमान महाविदेह क्षेत्र में विचर रहे हैं। प्र.: वर्तमान में किसका शासन चल रहा है? उ.: वर्तमान में चरम तीर्थपति चौवीसवें भगवान श्री महावीर प्रभु का शासन चल रहा है। प्र.: मंदिर में प्रवेश करतेसमयक्याबोलनाऔर भगवान तथाध्वजाकोदेखकर क्याबोलना चाहिए? उ.: मंदिर में प्रवेश करते समय तीन बार निसीहि और भगवान तथा ध्वजा को देखते ही दोनों हाथ जोड़कर 'नमो जिणाणं' बोलना चाहिए। प्र.: जैन को पहचानने का चिन्ह क्या है? उ.: जैन शब्द के ऊपर रही हुई दो मात्राएँ हमें कंदमूल त्याग और रात्रि भोजन त्याग का संदेश देती है। जो इनका त्याग करे वही सच्चे अर्थ में जैन है। तथा ललाट पर किया हुआ चंदन का तिलक श्रावक की पहचान है। प्र.: किन वस्त्रों से पूजा करनी चाहिए? उ.: शास्त्र में कहा गया है कि “पूजा के कपड़े मूल से शुद्ध होने चाहिए। यानि कि भोजन आदि जिन कपड़ों में किया हो वे भले ही धोने में आए फिर भी शुद्ध नहीं होते।" श्राद्ध विधि आदि ग्रंथों में भी पूजा वस्त्र एवं भोग्य वस्त्र अलग-अलग रखने का एवं अशुद्ध वस्त्र से पूजा नहीं करने का विधान है। प्र.: रास्ते में महाराज साहेबजी को देखकर क्या बोलना चाहिए? उ.: दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर 'मत्थएण वंदामि' बोलना चाहिए। प्र.: तत्त्व कितने हैं? वे कौन-कौन से है? उ.: तत्त्व तीन हैं :- देव, गुरु और धर्म। प्र.: धर्म किसे कहते हैं? उ.: जो जीव को दुर्गति में जाते हुए रोकता है और अच्छी गति में ले जाता है तथा परम्परा से मोक्ष देता है उसे धर्म कहते हैं। प्र.: धन का खर्च करके पुण्योपार्जन करने के लिए कितने क्षेत्र है? कौनसे? OM Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.: सात क्षेत्र है : जिन मंदिर , जिन प्रतिमा, जिन आगम, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका। प्र.: श्रावक किसे कहते हैं? उ.: जो जिनेश्वर भगवान के वचनों पर श्रद्धा रखें, विनय करें एवं दर्शन, पूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध करें तथा देव-गुरु की भक्ति आदि करें उसे श्रावक कहते हैं। प्र.: श्रावक शब्द का अर्थ क्या है? उ.: श्रा - श्रद्धा रखते हैं। व - विनय, विवेक करते हैं। क - क्रिया करते हैं। अर्थात् श्रद्धा से विनय, विवेक पूर्वक जो क्रिया करें वह श्रावक हैं। प्र.: बारह व्रतके नाम लिखो? उ.: 1. स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत। 2. स्थूल मृषावाद विरमण व्रत। 3. स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत। 4. स्थूल मैथुन विरमण व्रत। 5. स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत। 6. दिग् परिमाण व्रत। . 7. भोगोपभोग परिमाण व्रत। 8. अनर्थ दंड विरमण व्रत। 9. सामायिक व्रत। 10. देशावगासिक व्रत। 11. पौषध व्रत। 12. अतिथि संविभाग व्रत। प्र.: गरम पानी क्यों पीना चाहिए? उ.: पानी उबालते समय उसमें रहे हुए जीव एक बार तो मर जाते हैं ।लेकिन बार-बार उसमें जो असंख्य नये जीवों की उत्पत्ति होती हैं, वह एक बार पानी गरम करने के बाद नहीं होती, अर्थात् उनकी हिंसा से हम बच जाते हैं। इसलिए गरम पानी पीना चाहिए। प्र.: दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के उपकरणों के नाम लिखो? उ.: दर्शन के उपकरण : चामर, घंट, धूपदानी, दीपक, दर्पण, पंखा, केसर, चंदन, वासक्षेप, कलश, थाली, कटोरी, बाल्टी, कुंडी आदि। ज्ञान के उपकरण : पुस्तक, ठवणी, कवली, स्थापनाचार्यजी, नवकारवाली, प्रत (किताब), पेन, पेंसिल आदि। चारित्र के उपकरण : रजोहरण (ओघा), मुँहपत्ति, दांडा, डंडासन, आसन, संथारा, उत्तरपट्टा, 098 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रा, तरपणी, चोलपट्टा, लोट, पात्राबंधन, झोली, गुच्छा, पागरणी, कंचुकी, साडा, पात्र केसरीका, प्याला, मातरीया, रजस्त्राण आदि। प्र.: शिबिर यानि क्या? उ.: शि - शिक्षा बि - बीज र - रोपन (अर्थात् शिक्षण के बीज का रोपन करना।) प्र.: जिन पूजा करने से आठ कर्मों का नाश कैसे? उ.: चैत्यवंदन करने से - ज्ञानावरणीय कर्म का नाश। प्रभु दर्शन से - दर्शनावरणीय कर्म का नाश। जयणा पालने से . - अशातावेदनीय कर्म का नाश। प्रभु भक्ति करने से - मोहनीय कर्म का नाश।। शुद्ध भाव रखने से - दुर्गति के आयुष्य कर्म का नाश। प्रभु नाम स्मरण से __ - अशुभ नाम कर्म का नाश। वंदन-पूजन करने से - नीच गोत्र कर्म का नाश। शक्ति अनुसार धन खर्च करने से - अंतराय कर्म का नाश। प्र.: क्या करने से सद्गति की प्राप्ति होती है? उ.: दान देने से, राग-द्वेष न करने से, अच्छे भाव रखने से, धर्म पर श्रद्धा रखने से एवं पाप का भय रखने से सद्गति प्राप्त होती है। प्र.: जैन पर्व और अजैनके पर्व लिखो? उ.: जैन पर्व (ये पर्व मनाने चाहिए) अजैन पर्व (ये पर्व नहीं मनाने चाहिए) 1. दीपावली (उपवास करना) दीपावली (फटाके फोड़ना) 2. ज्ञान पंचमी रक्षा बंधन 3. मौन ग्यारस व्रत ग्यारस 4. पोष दशमी शील सातम (बासी खाना) 5. चौमासी चउदस होली 6. आसो-चैत्र (नवपद की ओली) नवरात्री 099 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र.: उ.: 7. महावीर जन्म कल्याणक 8. अक्षय तृतीया 9. संवत्सरी नवपद के नाम, वर्ण एवं गुण लिखो ? क्र नाम 1. अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु दर्शन 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. तप प्र.: शासन प्रभावक आचार्य के नाम लिखो ? उ.: 1. श्री भद्रबाहुस्वामीजी 3. श्री मानदेवसूरिजी 5. श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ज्ञान चारित्र बकरी इद जामुन नवमी गणेश चौथ वर्ण सफेद लाल पीला हरा काला सफेद सफेद सफेद सफेद 7. श्री अभयदेवसूरिजी 9. श्री हरसूरीश्वरजी 11. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. . प्र.: मुख्य पर्व, तिथि एवं आराधना का विषय बताओं ? 3.: पर्व 1. ज्ञान पंचमी 2. चौमासी चतुर्दशी 3. मौन एकादशी गुण 12 2. श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी 4. श्री मानतुं सूरिजी 6. श्री हरिभद्रसूरिजी 8. श्री हेमचन्द्रसूरिजी 10. उपाध्याय श्री यशोविजयजी 100 8 36 25 27 67 51 70 50 तिथि आराधना का विषय ज्ञान कार्तिक सुदि 5 कार्तिक- फाल्गुण-आषाढ़ सुदि 14 चातुर्मासिक आराधना मगसर सुदि 11 मौन पूर्वक 150 कल्याणक Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की आराधना 4. कार्तिक पूनम/चैत्री पूनमा कार्तिक एवं चैत्र सुदि 15 श्री सिद्धाचलजी यात्रा 5. नवपदजी की ओली |चैत्र एवं आसोज सुदि 7 से 15 आयंबिल पूर्वक नवपदजी की आराधना 6. अक्षय तृतीया वैशाख सुदि 3 वर्षीतप पारणा 7. श्री पर्युषण महापर्व भादरवा वदि 12 से सुदि 4 तक | पाँच कर्तव्य एवं पौषधादि धर्माराधना 8. पोष दशम | पोष वदि 9-10-11 अट्ठम करके शंखेश्वर पार्श्व प्रभु की आराधना 9. गुरु सप्तमी | पोष सुद सातम . पू. राजेन्द्रसूरि गुरुदेव की आराधना प्र.:. मुख्य तीर्थ के नाम, मूलनायकजी एवं राज्य के नाम लिखों? उ.:| तीर्थ मूलनायकजी श्री शत्रुजय ऋषभदेवजी गुजरात सम्मेतशिखर पार्श्वनाथजी बिहार गिरनार नेमिनाथजी गुजरात पावापुरी महावीर स्वामीजी तारंगा अजितनाथजी गुजरात पार्श्वनाथजी गुजरात राणकपुर आदिनाथजी राजस्थान नाकोड़ा पार्श्वनाथजी राजस्थान कुंभोजगिरि .. पार्श्वनाथजी महाराष्ट्र हस्तिनापुर ऋषभदेवजी उत्तरप्रदेश श्री मोहनखेड़ा तीर्थ ऋषभदेवजी मध्य प्रदेश हस्तिनापुर शान्तिनाथजी उत्तरप्रदेश राज्य बिहार शंखेश्वर (100 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र.: किसकी माता कौन है? उ.: (अ) सब तीर्थंकरों की माता - करुणा (ब) सब धर्म की माता - अहिंसा (स) सब श्रावक की माता - जयणा (द) सब साधु की माता - अष्ट प्रवचन माता प्र.: आठ बोल पापके एवं आठ बोलधर्म के बताओं? उ.: आठ बोल पापके आठ बोलधर्म के पाप का बाप - लोभ धर्म का बाप - अपनी पहचान पाप की माता - हिंसा धर्म की माता - दया पाप का बेटा - क्रोध धर्म का बेटा - संतोष पाप की बेटी - तृष्णा धर्म की बेटी - समता पाप की बहन - कुमति धर्म की बहन - सुबुद्धि पाप का भाई - असत्य धर्म का भाई - सत्य पाप का मूल - निर्दयता धर्म का मूल - अहिंसा पाप की पत्नी - आसक्ति धर्म की पत्नी - क्षमा प्र.: क्या ईश्वर ने यह जगत बनाया है? उ.: जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर जगत को बनाते नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा माना जाये कि ईश्वर जगत को बनाते है तो निम्न उलझने पैदा होती है। अ) ईश्वर ने जगत बनाया तो कहाँ बैठकर बनाया ? आ) ईश्वर का शरीर कहाँ से आया? इ) ईश्वर ने यह विश्व क्यों बनाया? ई) विश्व बनाया तो सबको सुखी, ज्ञानी, सुंदर, धनवान क्यों नहीं बनाया? अत: जगत को बनाने वाले ईश्वर नहीं, कर्म एवं प्रकृति हैं। ईश्वर तो जगत को बताने वाले हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार जिन मंदिर Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रभु के च्यवन कल्याणक की एक झलक हाथी देवलोक के भव का आयुष्य पूर्ण कर माता की कुक्षि में प्रभु का पधारना च्यवन कहलाता है। प्रभु के पधारने से माता को श्री तीर्थंकर नामकर्म के प्रभाव से चौदह महास्वप्नों के स्पष्ट दिव्य दर्शन होते है। स्वप्न पाठकों उसका फल इस प्रकार बताते है- “हे माता आपकी रत्नकुक्षि से - - गंधहस्ती के जैसे गुणों रूपी सुगंध के धारक वृषभ पृथ्वी का पालन करने में समर्थ सिंह विषय कषाय रूपी दुर्गुणों को जीतने में पुरुषसिंह समान लक्ष्मी केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी के धारक : फूलों की दो माला - देशविरति एवं सर्वविरति धर्म के प्ररुपक चन्द्र चन्द्र के समान शीतलता फैलाने वाले सूर्य सूर्य के समान केवलज्ञान से जगत को प्रकाशित करने वाले ध्वज विश्वमंगल की विजय पताका लहराने वाले कलश कामकुंभ के समान सर्व जीवों के मनोवांछित पूरक पद्मसरोवर पद्मसरोवर के जैसे ज्ञानानंद सरोवर में केवल कमला रूप रत्नाकर समुद्र के जैसे केवलज्ञानादि अनंतगुण रूप रत्नों के धारक देव विमान समवसरण रूप उत्तम विमान में बिराजने वाले रत्नों की राशि अनंतानंत गुण रूप रत्नों की राशि निधूम अग्नि शिखा - कर्मरूपी इंधन को ध्यान रूपी अग्नि से जलाकर सिद्धशीला में अखंड ज्योत रूप अवस्थित रहने वाले ऐसे तीर्थंकर रूप पुत्र रत्न का जन्म होगा।" परमात्मा की माता को अन्य माता के जैसी वेदना या अशुभ परिणती नहीं होती है। परमात्मा की माता को जिनबिंब को जिनबिंब भरवाने के.पौषधशाला एवं उपाश्रय बंधवाने के.पंचकल्याणक की उजवणी द्वारा प्रभु की प्रीति-भक्ति करने के दोहद उत्पन्न होते हैं। परमात्मा के प्रभाव से माता की आत्म चेतना विश्वमंगल के भाव से विभषित बन जाती है। प्रभ की माता सर्व जीवों के द:ख दारिद्र. दर्भाग्य दर करने के लिए सर्व इच्छित वस्तुओं का दान देती है। इस प्रकार परमात्मा की माता अत्यन्त हर्ष एवं अहोभाव से गर्भकाल व्यतीत करती है। P पद्मनंदी Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ABO जिन मंदिर प्र.: पूजाके कितने प्रकार हैं? एवं कौन कौन से है? उ.: पूजा के दो प्रकार हैं 1. द्रव्य पूजा : जल, चंदन आदि द्रव्यों से की जाने वाली प्रभु की पूजा। 2. भाव पूजा : स्तवन, स्तुति, चैत्यवंदन आदि से प्रभु के गुणगान करना। प्र.: प्रभु की द्रव्य पूजा करने से कच्चे पानी, फूल, फल, धूप, दीप, चंदन घिसना आदि से जो जीव विराधना होती है क्या उसमें पाप नहीं लगता? उ.: जो जीव संसार के छ: काय के कूटे में बैठा है और नश्वर शरीर के लिए सतत पाप कर रहा है, वैसा जीव आत्मा में भावोल्लास लाने के लिए प्रभु की द्रव्य पूजा करे, यह उचित है। जयणा पूर्वक प्रभु की द्रव्य पूजा करने पर उसे तनिक भी पाप नहीं लगता। प्रत्युत अनेक गुणा निर्जरा ही होती है। ललित विस्तरा ग्रंथ में कहा गया है, कि जो व्यक्ति पुष्पादि के जीवों की दया सोचकर पूजा नहीं करता एवं अपने लिये धंधादि में एवं घर में अनेक जीवों का संहार करता है उसे पूजा नहीं करने के कारण महापाप लगता है। प्र.: द्रव्य पूजा से आत्माको लाभ होता है यह कैसे समझाजासकता है? उ.: शास्त्रकारों ने यह समझाने के लिये कूप दृष्टांत दिया है। जैसे कोई व्यक्ति पानी के लिए कुआँ खोदता है। तो कुआँ खोदते समय उसकी तृषा बढ़ती है, कपड़े गंदे होते हैं एवं थकान भी लगती है। फिर भी वह कुआँ इसलिए खोदता है कि एक बार पानी की शेर मिल जाने पर हमेशा के लिए तृषा शमन, कपड़े साफ करना एवं स्नान से थकान उतारना आसान बन सकता है। उसी प्रकार द्रव्य पूजा में यद्यपि बाह्य रूप से हिंसा दिखती है। लेकिन उससे उत्पन्न होने वाले भाव से संसार के आरम्भ-समारंभ कम हो जाते हैं एवं किसी जीव को द्रव्य पूजा करते-करते दीक्षा के भाव भी आ सकते है। जिससे आजीवन छ: काय की विराधना अटक जाती है। प्र.: साधु भगवंत पूजा क्यों नहीं करते? उ.: संसार के त्यागी साधु भगवंत जल, पुष्पादि की विराधना से सर्वथा अटके हुए होते हैं। उनके भावों में सतत पवित्रता बनी रहती है। बिना द्रव्य पूजा ही शुद्ध भाव प्राप्त होने से उन्हें द्रव्य पूजा की आवश्यकता नहीं रहती है। प्र.: भगवान तो कृतार्थ है, उनको किसी चीज़ की जरूरत नहीं होती तो उनको उत्तम द्रव्य Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों चढ़ाना ? उ.: प्रभु वीतराग है, लेकिन हम रागी होने से संसार में कहीं न कहीं प्रेम कर बैठते हैं ... फिर प्रेम में बढ़ावा करने के लिए एक दूसरे को कुछ देते हैं। जब हम प्रभु को कुछ समर्पित करते हैं तो अपना प्रेम संसार की गंदी दिशा छोड़कर प्रभु के साथ बढ़ने लगता है । जिससे हमें निस्वार्थ प्रेम की सच्ची अनुभूति होती है एवं आनंद आता है। सामान्य से द्रव्य जितना उत्तम होता है, उतने ही भाव उत्तम प्रकट होते हैं। प्र.: प्रभु तो वीतरागी है तो उनसे किया गया प्रेम किस काम का ? उ.: इसका जवाब उपाध्यायजी म. सा. ने धर्मनाथ भगवान के स्तवन में दिया है निरागी सेवे कांइ होवे, इम मन मां नवि आणुं । फले अचेतन पण जिम सुरमणि, तिम तुम भक्ति प्रमाणुं ... थाशुं .. 2 चंदन शीतलता उपजावे, अग्नि ते शीत मिटावे, सेवक ना तिम दुःख गमावे प्रभु गुण प्रेम स्वभावे .... थाशुं .. 3 स्तवन की पंक्तियाँ बताती हैं कि आप मन में ऐसा मत सोचना कि भगवान तो वीतराग है तो इनकी सेवा किस काम की? जब अचेतन (जड़) चिंतामणि रत्न भी उसकी सेवा करने वाले को फल दे सकता है तो सचेतन ऐसे प्रभु की सेवा फल क्यों नहीं दे सकती ? तथा जैसे चंदन किसी को ठंडक देने का सोचता नहीं है लेकिन जो उसका उपयोग करता है उसे ठंडक मिलती है क्योंकि चंदन का स्वभाव है ठंडक देना, अग्नि का स्वभाव है ठंडी दूर करना, उसी प्रकार प्रभु का स्वभाव है सेवक का दुःख दूर करना। यह दुःख दूर करने का कार्य उनके स्वभाव से ही हो जाता है । उत्कृष्ट पुण्य बंध का कारण प्रभु ही है। अतः प्रभु की खूब सेवा करनी चाहिए। प्र.: प्रभु के दर्शन क्यों और किस भाव से करने चाहिए? उ.: प्रभु के दर्शन से अपनी अशांत आत्मा शांत भाव को प्राप्त करती है। प्रभु को देखने से हमें अपनी आत्म दशा का भान होता है। जीव मोहदशा में आत्मा को भूलकर पुद्गल से प्रेम करने लगता है। जिसमें जीव को अंत में दुःखी बनना पड़ता है। लेकिन प्रभु को देखने से ऐसा लगता है जैसे मेरी आत्मा भी ऐसी ही है और समान जातीय होने से प्रभु के साथ जीव तुलना करने लगता है। उसे लगता है कि, मैंने पुद्गल के मोह में कैसे-कैसे राग-द्वेष कर अपने आप को दुःखी किया। अब मैं भी प्रभु की कृपा से उनके प्रति प्रेम 104 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने से प्रभु जैसा बनूँ। ऐसी भावना मन में आने लगती है। प्र.: प्रभु भक्ति विधिवत् करने के लिए क्या करना चाहिए? उ.: जैन धर्म कहता है कि “विनय मूलो धम्मो” यानि धर्म का मूल विनय है। परमात्मा की असीम कृपा एवं अनंत उपकारों से आज हमें मोक्ष का मार्ग मिला है, तो उस मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ने हेतु सर्वप्रथम प्रभु की विनयपूर्वक पूजा कर हम प्रभु के आशिष को पायें, जिससे हम संसार में रहकर भी निर्विघ्न रूप से मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ सके। प्रभु पूजा को विधिवत् करने के लिए पाँच अभिगम एवं दशत्रिक का ज्ञान होना अति आवश्यक है। ) पाँच अभिगम • अभिगम का मतलब होता है ‘विनय' 1. सचित्त का त्याग- यहाँ सचित्त के उपलक्षण से खाने-पीने एवं अपने उपयोग करने की सर्व सामग्री का त्याग करके मंदिर जायें। यानि जेब में दवा, मुखवास, मावा, मसाला, सिगरेट, छींकणी, सेंट आदि पास में कुछ भी न रखें। भूल से रह गए हो तो उसका उपयोग नहीं करके पूजारी को दे दे अथवा बाहर फेंक दें। तथा बूट-चप्पल आदि भी पहनकर नहीं जा सकते हैं। 2. अचिन्त का अत्याग- जिस प्रकार मंदिर जाते समय अपने उपयोग की वस्तु का त्याग करना चाहिए, उसी प्रकार प्रभु भक्ति के लिए धूप-दीप, अक्षत, नैवेद्य, आदि सामग्री लेकर जाना चाहिए। यहाँ अचित्त के उपलक्षण से प्रभु की पूजा योग्य सर्व सामग्री समझे। देव दर्शन में खाली हाथ नहीं जाये, कुछ नहीं हो तो भंडार में पूरने के लिए रूपये तो अवश्य लेकर ही जायें। 3. उत्तरासन-मंदिर में प्रवेश करते समय पुरुष कंधे पर खेस डालकर एवं स्त्रियाँ सिर ढककर जायें। 4. अंजलि- सर्वप्रथम दूर से ध्वजा दिखने पर एवं मंदिरजी में प्रवेश करते ही प्रभु के दर्शन होने पर दो हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर 'नमो जिणाणं' कहे। यदि सामग्री हाथ में हो तो मात्र मस्तक झुकाकर ही नमो जिणाणं कहे। 5. प्रणिधान- प्रभु को देखते ही सारी दुनिया को भूलकर उनमें एकाग्र बन जायें। आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में प्रभु को बिठाएँ। O) प्रभु भक्ति की रीत दशत्रिक से प्रीत... दशत्रिक यानि तीन-तीन प्रकार वाली दश बाते, मंदिरजी में इन दश बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है। इन त्रिक के पालन से आशातना दूर होती है एवं विशिष्ट आराधना होती है। दशत्रिक क्रमश: (105) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हैं : 1. निमीहि त्रिक: 2. प्रदक्षिणा त्रिक: 3. 4. 5. 6. (1) मंदिर के मुख्य द्वार पर-संसार संबंधी पाप त्याग के लिए पहली निसीहि बोलें। (2) गंभारे में प्रवेश करते समय मंदिर संबंधी चिन्ता त्याग हेतु दूसरी निसीहि बोलें। (3) चैत्यवंदन के पूर्व-द्रव्य पूजा के त्याग हेतु तीसरी निसीहि बोलें। 7. - (1) रत्नत्रयी की प्राप्ति के लिए। (2) प्रभु से प्रीत जोड़ने के लिए। (3) मंदिर की शुद्धि का ध्यान रखने के लिए। इन तीन हेतु से प्रभु को तीन प्रदक्षिणा लगाते हैं। प्रणाम क्रिक : (1) अंजलिबद्ध प्रणाम - प्रभु को देखते ही दो हाथ जोड़कर नमो जिणाणं बोलना। (2) अर्धावनत प्रणाम - आधा शरीर झुकाकर प्रणाम करना।' (3) पंचांग प्रणिपात - खमासमणा देना पूजा त्रिक: (1) अंग पूजा (जल, चंदन, पुष्प पूजा) इससे विघ्न नाश होते हैं। (2) अग्र पूजा (धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, फल पूजा) इससे भाग्योदय होता है। (3) भाव पूजा (चैत्यवंदन) इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रमार्जना त्रिक: चैत्यवंदन के पहले भूमि की तीन बार प्रमार्जना करना । त्रिदिशिवर्जन त्रिक: प्रभु के सिवाय की तीनों दिशाओं में देखने का त्याग करना। वर्णाद त्रिक : (1) सूत्र आलम्बन - शुद्ध सूत्रों का उच्चारण करना। (2) अर्थ आलम्बन- अर्थ का चिन्तन करना। (3) प्रतिमा आलम्बन - प्रतिमा में उपयोग रखना। 106 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. मुद्रा निकः (1) योग मुद्रा - दोनों हाथ को कमल की नाल के समान एकत्रित कर पेट को स्पर्श करना एवं दोनों हाथ की अंगुलियों को एक-दूसरे के अंदर डालना। चैत्यवंदन इस मुद्रा में बोलना चाहिए। (2) जिन मुद्रा - काउस्सग्ग के समय दो पैर के बीच आगे से चार अंगुल एवं पीछे से चार अंगुल में कुछ कम जगह छोड़े तथा हाथ को लटकते हुए (सीधे) रखना। (3) मुक्तासुक्ति मुद्रा - छीप की तरह हथेली को पहोली कर ललाट पर लगाना। इस मुद्रा से जावंतिजावंत एवं जयवीयराय की दो गाथा बोली जाती हैं। 9. प्रणिधान त्रिक: मन - वचन - क प्रता रखना। 10. अवस्था त्रिक: (1) पिण्डस्थ - जन्म से लेकर दीक्षा जीवन तक की अवस्था का चिन्तन करना। ..(2) पदस्थ - समवसरणस्थ प्रभु का चिन्तन करना। (3) रूपातीत - सिद्ध अवस्था का ध्यान करना। प्र.: मंदिर में दश त्रिक का पालन किस क्रम से करना चाहिए? उ.: जो प्रथम नंबर दिए गये हैं वे दशत्रिक के मूल भेद के हैं । दूसरे नंबर पेटा भेद के है जहाँ (-) कर तीन नं. दिये है वहाँ तीनों भेद समझना।। 1.. सर्व प्रथम पहली निसीहि बोलकर प्रवेश करें।(1/1) 2. प्रभु का मुख देखते ही अंजलिबद्ध प्रणाम कर नमो जिणाणं बोलें।(3/1) 3. तत्पश्चात् तीन प्रदक्षिणा दें। (2-3) 4. उसके बाद अर्धावनत प्रणाम कर प्रभु की स्तुति बोलें।(3/2) फिर जयणा पूर्वक पूजा की सामग्री तैयार करें। 5. बाद में गंभारे में प्रवेश करते समय दूसरी निसीहि बोलें।(1/2) 6. फिर गंभारे में प्रभु की अंग पूजा करें।(4/1) 7. तत्पश्चात् बाहर आकर अग्रपूजा - क्रमश: धूप, दीप, चामर, दर्पण, पंखा, अक्षत, नैवेद्य तथा फल पूजा करें । (4/2) 8. उसके बाद तीसरी निसीहि बोलें।(1/3) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. फिर तीन बार प्रमार्जना करें।(5-3) 10. तत्पश्चात् पंचांग प्रणिपात प्रणाम करें (3/3), भाव पूजा करते समय (4/3) त्रिदिशिवर्जन त्रिक (6-3), आलम्बन त्रिक (7-3), मुद्रात्रिक (8-3) तथा प्रणिधान त्रिक (9-3) का उपयोग रखते हुए चैत्यवंदन करें । अंत में अवस्था त्रिक (10-3) का ध्यान करें। अंत में घर जाते समय हर्ष का अतिरेक प्रदर्शित करने हेतु घंट नाद करें। अंगपूजा के दौरान स्नात्रपूजा आदि पढ़ा सकते हैं। पूजा के लिए आवश्यक सात प्रकार की थुद्धि 1.अंगशुद्धिः परात में स्नान कर पानी को जीव रहित सूकी भूमि पर अथवा छत पर जयणा से परठे। 2.वस्त्रशुद्धिःशुद्ध (नये) वस्त्र पहनें। उ.मन शुद्धिःमन को प्रभु के स्मरण में लीन रखें। 4.भूमि शुद्धिः जिस स्थान पर द्रव्य एवं भाव पूजा करनी है वह भूमि हाड़, माँस, बाल, नाखून आदि से रहित शुद्ध होनी चाहिए। 5. उपकरण शुद्धिः थाली, कटोरी, डिब्बी, फूलधानी, कलश, अंगलूछणा एवं मुखकोश आदि उपकरण को धूपाएँ तथा शक्ति के अनुसार उत्तम एवं स्वउपकरण से पूजा करें। 6.द्रव्य शुद्धिः कुएँ का पानी, गाय का दूध, घी, सुगंधित उत्तम धूप, बासमती चावल, शुद्ध घी से बनाया हुआ नैवेद्य एवं उत्तम जाति के फल आदि उत्तमोत्तम द्रव्य से प्रभु पूजा करें। जितना द्रव्य उत्तम होता है उतने ही भावों में वृद्धि होने से फल भी उतना ही उत्तम मिलता है। 7.विधि शुद्धिःसभी क्रिया जयणा एवं उपयोग पूर्वक विधि अनुसार करें। स्नान करने की विधि * पूर्व दिशा की तरफ मुख रखकर थोड़े पानी से स्नान करें। हो सके वहाँ तक साबुन का उपयोग न करें, यदि करना पड़े तो चर्बी रहित साबुन से स्नान करें। * गीज़र के पानी का उपयोग न करें। यदि गरम पानी से स्नान करना हो तो पानी उतना ही गरम करें, जिससे गरम पानी में ठंडा पानी मिलाना न पड़े। * पानी 48 मिनट में सूक जाए ऐसे स्थान पर बैठकर स्नान करें अथवा परात में स्नान कर, पानी को सूकी जगह पर परठ दें। * स्नान करने के बाद उत्तर दिशा में मुख रखकर पूजा के वस्त्र पहनें। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * घर में एम. सी. (अंतराय) का पालन पूर्ण रूप से करें। पूजा के वस्त्र पहनने की विधि * दाहिना कंधा खुला रहे इस रीति से पुरुष खेस पहनें। * पुरुष धोती एवं खेस इन दो वस्त्रों का ही उपयोग करें तथा स्त्रियाँ तीन वस्त्रों का उपयोग करें। * पुरुष मुखाग्र बांधने के लिए रुमाल का उपयोग न करें । खेस से ही नासिका सहित मुखकोश बांधे। * स्त्रियाँ रुमाल से ही मुखाग्र को बाँधे। रुमाल, स्कॉफ जितना मोटा और चौरस रखें। * पूजा के वस्त्रों का उपयोग पसीना पोंछने या नाक पोंछने जैसे कार्यों में न करें। * पूजा के वस्त्रों को स्वच्छ रखें। * अन्य प्रसंगों में पूजा के वस्त्रों को न पहनें। सामायिक में पूजा के वस्त्रों का प्रयोग अयोग्य है। * पूजा के वस्त्र पहनकर कुछ खा-पी नहीं सकते। यदि भूल से भी कुछ खा-पी लिया हो तो फिर पूजा के लिए उन वस्त्रों का उपयोग न करें। * निष्कारण घर से स्कूटर या वाहनों में बैठकर, चप्पल या जूते पहनकर मन्दिर में पूजा करने नहीं जायें। * पूजा के वस्त्र उत्तम किस्म (रेशमी आदि) के हो। रेशमी कपड़े गंदगी को जल्दी नहीं पकड़ते। साथ ही भाव वर्धक होने से पूजा के लिए उत्तम गिने जाते है। इसी हेतु से अंजनशलाका के समय आचार्य भगवंत के लिए भी रेशमी वस्त्र परिधान का विधान है। * घर-गाड़ी-तिजोरी आदि की चाबियों को साथ में रखकर पूजा न करें। हाथ में घड़ी पहनकर पूजा न करें। * पूजा के वस्त्रों, छिद्र वालें, जले हुए अथवा फटे हुए न हो इसका ध्यान रखें। * प्रभु पूजा का अनमोल अवसर प्राप्त होने से अपनी आत्मा में धन्यता का अनुभव करते हुए, प्रभु के गुणों का अहोभाव से स्मरण करते हुए एवं नीचे देखकर ईर्यासमिति का पालन करते हुए मंदिर जायें। मंदिर जाते समय प्रणिधान 84 लाख योनि में घूम-घूमकर आया। परन्तु कहीं पर भी वीतराग प्रभु के दर्शन नहीं पाये। इस जन्म में मेरा कैसा अहोभाग्य है कि मुझे तीन लोक के नाथ देवाधिदेव के दर्शन मिल रहे है अत: मैं प्रभु के दर्शन शुद्ध चित्त एवं एकाग्रता पूर्वक करूँगा। "श्री तीर्थंकर गणधर प्रसादात् मम एष योग: फलतु"। अर्थात् तीर्थंकर प्रभु एवं गणधर भगवंत की कृपा से मेरे यह (मंदिर जाने रूप) योग सफल बने। ऐसी धारणा कर प्रभु दर्शन करें। ___ * मंदिर की ध्वजा दिखते ही सिर झुकाकर 'नमो जिणाणं' कहे। (109 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * मंदिर का दरवाज़ा बंध हो तो उसे जयणा पूर्वक खोलें। सीधे नल से पानी लेकर पैर न धोएँ । * * * बाल्टी में रहे, छाने हुए पानी को ग्लास से आवश्यक्तानुसार लेकर पैर धोएँ । मंदिरजी में प्रवेश करने की विधि मंदिर के मुख्य द्वार पर निसीहि बोलकर प्रवेश करें, निसीहि अर्थात् निषेध यानि कि संसार संबंधित समस्त बातों का पूरी तरह त्याग करना। * प्रभुजी पर दृष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाकर धीमी आवाज़ में " नमो जिणाणं" बोलते अंजलिबद्ध प्रणाम करें। * विद्यार्थी अपना बेग तथा अन्य व्यक्तिगत खाने-पीने की चीज़ें बाहर रखकर फिर मंदिरजी में प्रवेश करें । * जिन मंदिर में एवं गंभारे में पहले दाहिना पैर रखते हुए प्रवेश करें । * यदि मंदिर में बासी काजा न निकाला हो तो पहले बासी काजा निकालकर उसे जयणा पूर्वक परठे । अब आगे आने वाली मंदिर की प्रत्येक क्रिया में विधि एवं जयणा का विशेष उपयोग रखें एवं प्रत्येक क्रिया बहुमान पूर्वक करें । * प्रदक्षिणा देने की बिधि हाथ में पूजा की सामग्री लेकर, नीचे देखकर, जयणापूर्वक धीमी गति से प्रदक्षिणा लगायें। मधुर स्वर में प्रदक्षिणा के दोहे बोलते हुए प्रदक्षिणा दें। प्रदक्षिणा नहीं देना या एक ही प्रदक्षिणा देनी या पूजा करने के बाद प्रदक्षिणा देनी यह अविधि है । निम्न चार भावना से प्रदक्षिणा लगाएँ प्रभु को प्रदक्षिणा देने से मेरे भव भ्रमण मिट जाये। * ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप रत्नत्रयी की प्राप्ति हो । * मंगल मूर्ति के दर्शन होते ही समवसरण में स्थित चतुर्मुखी प्रभु को याद करें। * जिस प्रकार बालक को अपनी माँ से प्रेम होने के कारण वह सतत अपनी माँ के आस-पास (गोलगोल) घूमता रहता है उसी प्रकार हे प्रभु! मैं भी आपका बालक हूँ। यानि कि प्रभु के प्रति प्रीति को प्र करने के लिए प्रदक्षिणा लगायें। * इलि - भमरी न्याय से मैं भी प्रभु तुल्य बन जाऊँ । 110 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाने हुए पानी से पैर धोकर मन्दिरजी में प्रवेश करें। अंजलिबद्ध प्रणाम करते हुए पूजा के लिए स्नान परात में बैठकर करें। इस प्रकार निसीहि बोलकर मन्दिर में प्रवेश करें Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदक्षिणा के दोहे बोलते हुए प्रदक्षिणा लगाना अर्धावनत प्रणाम करते हुए मुखकोश बांधते हुए चंदन इस प्रकार बैठकर घिसे Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विशेष- प्रदक्षिणा देते समय मंदिर संबंधी शुद्धि का ध्यान रख सकते हैं। कमी लगे तो योग्य व्यवस्था या सूचना भी कर सकते हैं।) स्तुति बोलने की विधि * प्रदक्षिणा के बाद किसी को प्रभु दर्शन की अंतराय न पड़े, इस तरह पुरुष प्रभु के दाहिनी तरफ एवं स्त्री बायी तरफ खड़े रहें तथा * हाथ जोड़कर, कमर तक झुककर प्रभुजी को अर्धावनत प्रणाम करें एवं स्तुति बोले। मुख कोथ बांधने की विधि * प्रभुजी की दृष्टि न पड़े ऐसे स्थान पर खड़े रहकर अष्टपड़ वाला मुख कोश बांधे। पूजा की सामग्री तैयार करते समय निम्न बातों का ध्यान रखें * सर्वप्रथम केसर-गृह में जाकर बासी काजा निकाले। * कोठी, बाल्टी, कुण्डी, पाटला, चंदन घिसने का पत्थर आदि सभी को पूंजणी से पूंजे एवं सर्व सामग्री को धूप से धूपाएँ। * पक्षाल हेतु कुएँ का पानी छानकर भरें एवं जीवाणी की जयणा करें। पक्षाल तैयार करने की विधि * पानी में दूध पर्याप्त मात्रा में मिलायें। * पंचामृत पक्षाल-पानी, शक्कर, दही, दूध, घी को मिलाकर बनायें। * मुखकोश बाँधकर ही पक्षाल तैयार करें, किन्तु पूजारी के पास तैयार नहीं करायें। * पक्षाल भरे बर्तन को ढूंककर रखें। * पूजा हेतु केसर एवं पुष्प लेने से पूर्व थाली, कटोरी, मुखकोश, अंगलूछणा आदि उपकरण धूपाएँ लेकिन केसर एवं पुष्प के जीवों को किलामणा पहुँचने से इन्हें नहीं धूपाएँ। लंदन घिसने की विधि * चन्दन अपने हाथों से ही घिसें। * चंदन घिसते समय मुखकोश बाँधे। * पूजा एवं तिलक करने के लिए अलग-अलग चंदन का उपयोग करें। * केसर घिसते समय केसर की डिब्बी को गीले हाथ से बंद न करें। गीलेपन से केसर में उसी वर्णवाले सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते है एवं उपयोग न रहने पर केसर के साथ उन जीवों का भी कच्चर घाण निकल जाता है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलक करने की विधि * पुरुष ज्योति (0) आकार में एवं स्त्रियाँ गोल (०)तिलक करें। * प्रभुजी की दृष्टि नहीं पड़े ऐसे स्थान पर पद्मासन में बैठकर तिलक करें। * दर्पण का उपयोग तैयार होने के लिए न करें। * “मैं भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ" इस भावना से तिलक करें। गंभारे में प्रवेश करने की विधि * मुखकोश बांधकर पहले दायें पैर को गंभारे में रखते हुए दूसरी निसीहि बोलकर प्रवेश करें। गंभारे में संपूर्णतया मौन रखें। प्रभु पर रहे हुए निर्माल्य को दूर करने की विधि * सर्व प्रथम निर्माल्य (प्रभुजी के अंग पर रहे फूल-चंदन आदि) थाली में लेकर कीड़ी जैसे सूक्ष्म जीवों का निरीक्षण कर दूर करें एवं प्रभुजी को मोर पीछी से प्रमार्जना करें। * एक शुद्ध वस्त्र को पानी में भिगोकर उससे बरख, बादला, आदि दूर करें अति आवश्यक हो तो ही सावधानी पूर्वक वालाकूची का उपयोग कर चंदन आदि दूर करें। फिर निम्न विधि से अंगपूजा करें। पक्षात पूजा करने की विधि * मुखकोश नाक से नीचे न उतरे इसका ध्यान रखें। * सर्व प्रथम पंचामृत से पक्षाल करने के पश्चात् ही शुद्ध जल से पक्षाल करें। * दोनों हाथों में कलश धारण कर प्रभुजी के मस्तक (सिर शिखा) पर ही पूरा अभिषेक करें पर नवांगी पूजा की तरह पक्षाल न करें। * कलश का स्पर्श प्रभुजी को न हो एवं कलश हाथ से गिर न जायें इसका खास ध्यान रखें। * पक्षाल का जल नीचे गिरकर पैरों में न आयें इसका विशेष ध्यान रखें। * पूजा के समय प्रभुजी को अपने वस्त्रों का स्पर्श न हो, इसका विशेष ध्यान रखें। * पक्षाल का पानी पैरों में न आयें ऐसे स्थान पर परठे। जल पूजाका दोहा- “जल पूजा जुगते करो, मेल अनादि विनाश, जल पूजा फल मुज होजो, माँगुएम प्रभु पासा" अर्थ : हे प्रभु ! इस पूजा के फल से अनादिकाल से मेरी आत्मा पर लगे हुए कर्म रूप मैल का विनाश हो। * ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलक लगाने की विधि दूसरी निसीहि बोलने के बाद जीमने पैर को प्रथम रखकर गंभारे में प्रवेश करें। पंचामृत तैयार करने की विधि मोर पींछी से प्रभुजी का प्रमार्जन Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषेक करने की सही विधि कोमल हाथों से बहुमान पूर्वक अंगलूछण करें। प्रभुजी को विलेपन करते हुए। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमते जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा । * मेरु शिखरे नवरावे, ओ सुरपति मेरुशिखरे नवरावे, . जन्मकाल जिनवरजी को जाणी, पंच रूपे हरि आवे, ओ सुरपति मेरुशिखरे नवरावे । “ज्ञान कलश भरी आतमा, समता रस भरपूर, श्री जिन ने नवरावतां, कर्म थाये चक-चूर ।।" अंग चूछणे की विधि * मलमल के कपड़े के उचित प्रमाण वाले तीन अंगलूछणें रखें। * हर महीने मंदिर में अंगलूछणे बदलने की व्यवस्था करें। * मौन धारण कर अंगलूछणा करें एवं प्रतिदिन अंगलूछणे को साफ करें। * देवी-देवताओं के उपयोग में लिए गये अंगलूछणों का उपयोग प्रभुजी के लिये न करें। * पाट पोछने तथा अंग पोछने के लिये अलग-अलग कपड़े रखें एवं अलग-अलग धोकर अलग अलग सुकाए। प्रभु को विलेपन करने की विधि * बरास जैसे उत्तम द्रव्यों से विलेपन करें। * दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों का उपयोग करते हुए विलेपन करें। नवाँगी पूजा के अनुसार विलेपन करें। * प्रभुजी को नाखून का स्पर्श न हो इसका ध्यान रखें। * प्रभुजी के मुख के अलावा अन्य स्थानों जैसे हृदय, छाती, पैर, हाथ आदि पर विलेपन करें। चंदन पूजा कादोहा- “शीतल गुण जेहमा रह्यो,शीतल प्रभु मुख रंग, . . आत्मशीतल करवाभणी, पूजो अरिहाअंगा" “ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय ___ श्रीमते जिनेन्द्राय चंदनं यजामहे स्वाहा' अर्थ - हे प्रभु! अनादिकाल से मेरी आत्मा इन कषायों के धधकते संताप की अग्नि में जल रही है, अत: आपकी इस चंदन पूजा के प्रभाव से मेरे कषाय उपशांत हो। प्रभु की केसर पूजा करने की विधि * पूजा करने की अंगुली (अनामिका) के सिवाय कोई भी अंग प्रभुजी को स्पर्श न हो, इसका विशेष ध्यान रखें। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * टाइपिस्ट की तरह धड़ाधड़, फटाफट पूजा न करें। * लांछन, हथेली एवं श्रीवत्स की पूजा न करें। * प्रभुजी के नव अंग की तेरह तिलक से पूजा की जाती है। प्रत्येक तिलक के समय अँगली में केसर लेकर पूजा करना उचित है । तेरह बार अंगुली में केसर लेकर तिलक करने पर 9 अंग के 13 अंग नहीं हो जाते । अंग तो 9 ही गिने जाएँगे। अंग पूजा करते समय दोहे मन में बोलें। गंभारे के बाहर खड़े रहने वाले जोर से भी दोहे बोल सकते हैं। प्र.: फणा की पूजा कैसे करनी चाहिए? उ.: फणा की पूजा अलग से करनी योग्य नहीं है। फणा प्रभु की शोभा रूप होने से प्रभु का अंग समझकर शिखा का तिलक करते समय अनामिका से ही फणा (अग्रभाग में नहीं) पर तिलक कर सकते हैं। परंतु नव अंग की पूजा पूरी होने के बाद धरणेन्द्र देव मानकर अंगूठे से फणा की पूजा करना अनुचित है। प्र.: लंछन क्या है? उसकी पूजा करनी चाहिए या नहीं? उ.: जीवंत भगवान की दाहिनी जंघा पर रोमराजी अथवा रेखाओं से लंछन का आकार बना होता है । यह किस प्रभुजी की प्रतिमा है ? यह जानने के लिए प्रतिमा के नीचे उन प्रभु का लंछन बनाया जाता है। इसकी पूजा नहीं की जाती। (पूजा करने से लंछन अस्पष्ट हो जाता है।) प्र.: अष्ट मंगल की पाटली की पूजा कर सकते हैं या नहीं? उ.: इन्द्र महाराजा प्रभु के सन्मुख भक्ति से अष्ट मंगल का आलेखन करते है। उसके प्रतीक रूप में अष्टमंगल की पाटली प्रभु के आगे मंगल रूप में रखी जाती है। इसकी पूजा नहीं करके इसका आलेखन करना (प्रभु के सामने धरणा) चाहिए। प्र.: सिद्धचक्रजी की पूजा के बाद प्रभु की पूजा कर सकते हैं? .. उ.: सिद्धचक्रजी की पूजा के बाद प्रभु पूजा कर सकते हैं। क्योंकि नवपदजी में आचार्यजी-उपाध्यायजी एवं साधु महात्मा जो बताए गये हैं वे कोई व्यक्ति विशेष न होकर गुण रूप में हैं, अतः पूजा कर सकते हैं। प्र.: गौतम स्वामीजी आदि गणधर की प्रतिमा की पूजा करने के बाद प्रभु पूजा कर सकते उ.: गौतमस्वामी एवं पुण्डरीक गणधर आदि की प्रतिमा यदि पर्यकासन (वीतराग मुद्रा) में हो तो उनकी पूजा करने के बाद प्रभुजी की पूजा कर सकते हैं, परंतु यदि गुरु मुद्रा में हो तो उनकी पूजा प्रभु पूजा करने के बाद में ही करनी चाहिए। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOVI on VI aam 12 पूजा करने का क्रम समास मीनारे सोमहस्योगच्या केसर पूजा करते हुए Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 BOTTES पूजा करने का क्रम aapad । पOTE Saa009 पूष्प पूजा करते हुए Torror Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र.: शासन के देवी-देवता की पूजा कैसे करनी चाहिए? उ.: शासन के देवी-देवता सम्यक्त्वधारी एवं प्रभु के पूजारी होने से अपने साधर्मिक हैं, अतः अंगूठे से मस्तक पर तिलक करना चाहिए तथा जय जिनेन्द्र अथवा प्रणाम किया जाता है। परन्तु उनके सामने अक्षत आदि से पूजा करने की जरुरत नहीं है। प्र.: केसर कितनी कटोरी में लेना चाहिए? एवं उसका उपयोगकैसे करना चाहिए? उ.: केसर अलग-अलग कटोरियों में लेने की कोई विशेष जरूरत नहीं है। एक ही कटोरी से क्रमशः परमात्मा, सिद्धचक्रजी, गणधर भगवंत, गुरुभगवंत एवं अंत में शासनदेवी-देवता की पूजा कर सकते हैं। यदि मूलनायक भगवान की पक्षाल पूजा बाकी हो एवं अन्य भगवान की पूजा पहले कर लेनी हो तो बहुमानार्थ अलग से थोड़ा केसर रख सकते हैं। पहले से केसर इतना ही ले कि अंत में संघ का माल वेस्ट न हो। तथा केसर की कटोरी, थाली अपने हाथ से साफ धोकर व्यवस्थित स्थान पर रखनी चाहिए, क्योंकि प्रभु मंदिर कोई संघ अथवा पूजारी का ही नहीं, अपना भी है। हाथ एकदम साफ धोयें, ताकि उसमें केसर रह न पायें। अन्यथा केसर रह जाने पर खाते समय पेट में जाने से देव-द्रव्य भक्षण का दोष लगता है। प्रश्न : नवांगी पूजाके अर्थ दोहे पर से समझाओ? उ.: 1.चरणः “जल भरी संपुट पत्रमा, युगलिकनर पूजंत। ऋषभ चरण अंगुठड़े,दायक भवजल अंत"॥1॥ हे प्रभु! आपके अभिषेक हेतु युगलिक जब पत्र-संपुट में पानी भरकर लाये तब तक आपको इन्द्र महाराजा ने भक्ति पूर्वक वस्त्राभूषण से सज्जित कर दिया था। यह देख विनीत युगलिकों ने प्रभु के चरणों की जल से पूजा की। इसी प्रकार मैं भी आपके चरणों को पूजकर भवजल का अंत चाहता हूँ। इस भावना से मैं आपके चरण की पूजा करता हूँ। 2.जानुः “जानु बले काउस्सग्गरह्मा, विचर्या देश विदेश। खड़ा-खड़ाकेवल लघु, पूजोजानु नरेश'॥2॥ हे प्रभु! आपने इस जानु बल से काउस्सग्ग किया, देश-विदेश में विचरण किया और खड़े-खड़े ही आपने केवलज्ञान प्राप्त किया। आपकी इस जानु पूजा के प्रभाव से मेरे भी जानु में वह ताकत प्रगट हो। इस भावना से मैं आपके जानु की पूजा करता हूँ। उ.हाथ के कांडे : “लोकांतिकवचने करी, वरस्यावरसीदान। कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भविबहुमान"॥3॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे प्रभु ! लोकांतिक देवों के वचन से आपने इन हाथों से वर्षीदान दिया, आपकी इस पूजा के प्रभाव से मैं भी आपके समान वर्षीदान देकर संयम को स्वीकार करूँ। इस भावना से मैं आपके कांडे की पूजा करता 100 4.खभे (कंधा): “मान गयुदोय अंशथी,देखी वीर्य अनन्त। भुजाबले भव जलतर्या, पूजो खंध महंत"॥4॥ हे प्रभु! आपके अनंत वीर्य (शक्ति) को देखकर दोनों कंधों में से अहंकार निकल गया एवं इन भुजाओं के बल से आप भव जल तीर गयें। उसी प्रकार आपकी पूजा के प्रभाव से मेरा भी अहं चला जायें एवं मेरी भी भुजाओं में संसार को तीर जाने की ताकत प्राप्त हो। इस भावना से मैं आपके कंधे की पूजा करता हूँ। 5.शिखाः “सिद्धशीला गुण उजली, लोकांते भगवंत। वसिया तिणे कारण भवि,शिरशिखा पूजंत"॥5॥ उज्जवल स्फटिक वाली सिद्धशीला के ऊपर लोकांत भाग में आपने वास किया है, अतः मुझे भी वह स्थान प्राप्त हो। इस भावना से मैं आपके शिखा की पूजा करता हूँ। . 6.ललाटः “तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जनसेवंत। ___ त्रिभुवन तिलक समाप्रभु, भाल तिलक जयवंत"॥6॥ हे प्रभु! आप तीर्थंकर नामकर्म के उदय से तीन लोक में पूज्य बने हो तथा आप तीन लोक के तिलक समान हो। इसलिए आपके भाल में तिलक कर मैं भी अपना भाग्य अजमाना चाहता हूँ। इस भावना से मैं आपके ललाट की पूजा करता हूँ। 7.कंठः “सोल प्रहर प्रभुदेशना, कंठे विवरवर्तुल। __मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तेणे गले तिलक अमूल'॥7॥ हे प्रभु! आपने 16 प्रहर तक सतत मधुर ध्वनि से देशना दी। देव-मनुष्य ने वह देशना सुनी। आपकी कंठ पूजा के प्रभाव से मुझे भी आपकी वाणी सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो। इस भावना से मैं आपके कंठ की पूजा करता हूँ। 8.हृदयः "हृदय कमल उपशम बले, बाल्यारागने रोष। हिम दहे वनखंड ने, हृदय तिलक संतोष'॥४॥ हे प्रभु! जिस प्रकार हिम (बर्फ) वनखंड को जला देता है, उसी प्रकार आपने हृदय कमल के उपशम 3 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपी बर्फ (करा) से राग-द्वेष रूपी वनखंड को जला दिया है। आपके ऐसे हृदय की पूजा से मुझे जीवन में संतोष गुण की प्राप्ति हो। इस भावना से मैं आपके हृदय की पूजा करता हूँ। १.नाभिः “रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विसराम। नाभिकमलनी पूजना,करता अविचल ठाम"॥१॥ हे प्रभु! ज्ञान, दर्शन चारित्र से उज्जवल बनी, सकल सद्गुणों के निधान स्वरूप आपके नाभि कमल की पूजा से मुझे अविचल धाम अर्थात् मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। इस भावना से मैं आपके नाभि की पूजा करता हूँ। नव अंग का महत्त्वः “उपदेशक नव तत्त्वना, तेणे नव अंग जिणंद। __ पूजो बहुविध राग थी,कहे शुभवीर मुणिंद"॥10॥ - प्रभु ने नवतत्त्वों का उपदेश दिया। इसलिए प्रभु के नव अंग की पूजा बहुमान पूर्वक करनी चाहिए। प्रभु की पूजा से अपने अंदर नव तत्त्वों के हेयोपादेय का ज्ञान प्राप्त होता है। पुष्प पूजा करने की विधि * सुगंधित, उत्तम, अखंड तथा ताजे फूल ही प्रभुजी को चढ़ाये। जैसे :- गुलाब, चंपा, मोगरा आदि। * नीचे गिरे हुए या पाँव तले आये हुए या पिछले दिन चढ़ाये हुए पुष्प प्रभुजी को नहीं चढ़ाये। * पुष्पों की पंखुड़ियों को नहीं तोड़े अथवा टूटी हुई पंखुड़ियाँ प्रभुजी को नहीं चढ़ाये। * हाथ से गुंथी हुई पुष्पों की माला चढ़ाये (सुई-धागे से गुंथी हुई माला नहीं)। पुष्प पूजा कादोहाः “सुरभि अखंड कुसुम ग्रही, पूजो गत संताप। सुमजंतु भव्य ज परे, करिए समकित छाप॥" . . “ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्रीमते जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा।" । अर्थ : जिससे संताप नाश हो जाते है ऐसे प्रभु की मैं सुगंधित और अखंड पुष्पों द्वारा पूजा करता हूँ। जिस प्रकार पुष्प पूजा करने से उन पुष्पों को भव्यत्व का श्रेय मिलता है। उसी प्रकार मुझे भी भव्यत्व का श्रेय प्राप्त हो। प्र.: पुष्प तो वनस्पतिकाय काजीव है।उसमें हमारे जैसा ही जीव है-आत्मा है। पौधे पर से उसे चुनने पर पुष्प के जीव को अवश्य किलामणा (पीड़ा) होती है। तो फिर पूजा की प्रवृत्ति में ऐसी हिंसामय पद्धति क्यों अपनायी गयी? अहिंसा-प्रधान शासन में ऐसी हिंसा का विधान क्यों? Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ.: इस प्रश्न को गंभीरतापूर्वक सोचने पर सुंदर व तार्किक उत्तर प्राप्त होगा। प्रथम बात तो यह है कि उस पुष्प को परमात्मा के चरणों में समर्पित करने के लिए नहीं चुंटे होते तो क्या पुष्प को कोई चूंटता ही नहीं? नहीं; पुष्प तो माली की आजीविका का साधन है। अत: अपनी आजीविका को निभाने के लिए माली फूलों को अवश्य चॅटेगा ही। अब चुने हुए उन फूलों को माली दूसरों को बेचेगा ही। उसमें भी यदि किसी कामी व्यक्ति ने खरीदा तो उसे वह अपनी पत्नी या प्रेमिका को अर्पित करेगा और वह स्त्री के वेणी या बालों में गूंथा जायेगा। जिससे उस पुष्प को किलामणा ज्यादा होगी ही ....। ___मान लो कि, माली ने फूल को चुंटा नहीं और वह वृक्ष पर ही रहा, तो भी पुष्प का जीवन कितने क्षणों का ? कितना सुरक्षित ? किसी पक्षी, प्राणी या पशु की नज़र में आने पर उसकी हालत क्या होगी? फूल जानवर के जबड़े में चबा ही जायेगा? उससे क्या फूल को कम पीड़ा होगी? ना, नहीं! नहीं! इस प्रकार फूल को बेचे तो भी किलामणा होगी, चुंटे नहीं तो भी किलामणा बनी रहेगी। उसके बजाय परमात्मा के चरणों में समर्पित करने से वह पुष्प अवश्य सुरक्षित बना रहता है। जो पुष्प प्रभु की पूजा में उपयुक्त होते है, वे अवश्य भव्य होते हैं; अत: ऐसे पुष्पों को परमात्मा की प्रतिमा पर चढ़े हुए देखकर, ऐसी भावना भावित करें कि “अहो! एकेन्द्रिय का यह जीव कितना सुयोग्य है, कितना भाग्यशाली है कि उसे परमात्मा के चरणों में स्थान प्राप्त हुआ” अर्थात् पुष्प पूजा में हिंसा या पुष्प की आत्मा को किलामणा होने की बात या तर्क तो सरासर व्यर्थ है। धूप पूजा करने की विधि * धूप दानी में यदि पहले से ही धूपबत्ती प्रज्ज्वलित हो तो दूसरी धूपबत्ती न करें। (स्वयं के घर से लाई हुई अगरबत्ती प्रगट कर सकते हैं ।) * अंग पूजा पूर्ण होने के बाद मूल गंभारे के बाहर खड़े रहकर ही धूप पूजा आदि अग्रपूजा करें तथा धूप को हाथ में रखकर प्रदक्षिणा न दें। * पुरुष एवं स्त्रियाँ प्रभुजी के बायी तरफ खड़े रहकर धूप पूजा करें। धूप पूजा कादोहा:- “ध्यान घटा प्रगटावीए, वामनयन जिनधूप। __ मिच्छत दुर्गंध दूर टले, प्रगटे आत्मस्वरूप॥" “ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्रीमते जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा।' अर्थः “हे प्रभो । जिस प्रकार धूप दुर्गन्ध को हटाकर सौरभ को प्रसारित करता है और वातावरण को पवित्र Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाता है, उसी प्रकार मेरे आत्मा में रही मिथ्यात्व की दुर्गन्ध दूर हो और सम्यग्दर्शन की सुवास से मेरे आत्मा का एक-एक प्रदेश सुवासित बनें तथा धूप घटा की तरह मेरी आत्मा भी उर्ध्वगमन करें। दीपक पूना की विधि * दीपक को थाली में रखकर दोहा बोलते हुए दोनों हाथों से घड़ी के काँटों की दिशा के जैसे घूमाएँ। * घी का दीपक घर से लाये। * पुरुष एवं स्त्रियाँ परमात्मा के दायीं ओर खड़े रहकर दीपक पूजा करें। दीपक पूजा कादोहा:- “द्रव्य दीपक सुविवेकथी, करता दुःख होय फोक। भावदीपक प्रगट हुए, भासित लोकालोक॥" “ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, . श्रीमते जिनेन्द्राय दीपं यजामहे स्वाहा।' अर्थ: “हे परमात्मा। जिस प्रकार यह दीपक अंधकार का विनाश करके प्रकाश फैलाने वाला है, उसी प्रकार इस पूजा के द्वारा, मेरे अज्ञान रूपी अंधकार का नाश हो और ज्ञान का विवेकपूर्ण प्रकाश मेरे आत्म-प्रदेश पर प्रकाशित हो। जिससे सत्य को सत्य के रूप में और असत्य को असत्य के रूप में पहचान सकूँ। तथा यह दीपक शुद्ध ही नहीं, पवित्र भी है। उसी प्रकार मेरी आत्मा भी शुद्ध और पवित्र है। उससे मैं लगातार सभानसचेत बना रहूँ। दीपक को परमात्मा की दाहिनी ओर स्थापित करें। दीपक को कभी भी खुला न रखें। उसे फानस में रखें या छिद्रालु ढक्कन से ढंक दे। जिससे उसके प्रकाश से आकर्षित होकर क्षुद्र जीव जन्तु दीपक की ज्योत में गिरकर मरे नहीं। दर्पण दर्थन तथा पंखा ढालने की विधि * हृदय स्थान पर दर्पण रखकर, उसमें प्रभु के प्रतिबिंब को देखकर मानो कि अपने हृदय में परमात्मा है ऐसी भावना से स्वयं को सिद्धस्वरूपी महसूस करें। * दर्पण में प्रतिबिम्बित भगवान को सेवक भाव से पंखा ढाले। दर्पण दर्शन कादोहा:- “प्रभु दर्शन करवा भणी, दर्पण पूजा विशाल। आत्मादर्शनथी जुमे, दर्शन होय तत्काल॥" चामर नृत्य करने की विधि ___* अनादिकाल से कर्म ने इस संसार में मुझे खूब नचाया है लेकिन अब कर्मों के आगे नाचना न पड़े इन Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावों से प्रभु के समक्ष नृत्य करें। * हे राज राजेश्वर! यह चामर आपके चरणों में झुककर जैसे तुरंत ही वापस ऊपर उठता है ; उसी प्रकार आपके चरणों में झुकने वाला मैं भी अवश्य ऊर्ध्वगति को पाऊँगा। चामर पूजा कादोहा:- “बे बाजु चामर ढाले, एक आगलवज उछाले। जई मेरुधरी उत्संगे, इन्द्र चौसठ मलियारंगे॥" अक्षत पूजा की विधि * कंकर, कीड़ी तथा जीवाणु रहित दोनों तरफ धार वाले उत्तम प्रकार के अखंडित चावलों का उपयोग करें। * अक्षत पूजा करते समय इरियावहि शुरु न करें क्योंकि अक्षत-नैवेद्य एवं फल ये तीनों द्रव्य पूजा है। इरियावहि-चैत्यवंदन आदि भाव-पूजा है अत: दोनों एक साथ करना अविधि है। * सर्वप्रथम स्वस्तिक, तीन ढ़गली और फिर सिद्धशीला इस क्रम से आलेखे। * मन्दिर से निकलने के पहले अक्षत, नैवेद्य तथा पाटला योग्य स्थान पर रख दें। अक्षत पूजा का दोहा- “शुद्ध अखंड अक्षत ग्रही, नंदावर्त विशाल। . पूरी प्रभु सन्मुख रहो,टाले सकल जंजाल॥" “ॐ ह्रीं श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, ___ श्रीमते जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा।' अर्थ: हे प्रभु ! इस चार गति रूप अनंतानंत संसार भ्रमण करके अब मैं थक चुका हूँ। अब आपके प्रभाव से ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रयी की प्राप्ति कर शीघ्रातिशीघ्र में सिद्धशीला पर बिराजमान बनूँ। प्र.: स्वस्तिक चावल से ही क्यों करना चाहिए? उ.: जिस प्रकार चावल बोने से वापस नहीं उगते, उसी प्रकार हमें भी पुन: जन्म न लेना पड़े इस हेतु से चावल का स्वस्तिक करते है। नैवेद्य पूजा की विधि * श्रेष्ठ द्रव्यों द्वारा घर में बनाई गई मिठाई या खड़ी शक्कर, गुड़ आदि से नैवेद्य पूजा करें। * बाज़ार की मिठाई, पीपरमेंट, चॉकलेट जैसी अभक्ष्य वस्तुओं का उपयोग नहीं करें। * नैवेद्य स्वस्तिक पर ही चढ़ाएँ। नैवेद्य पूजाकादोहा:- “अणाहारी पद में कर्या, विगह गइ अनंत। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VVVVVNNN दीपक पूजा करते हुए धूप पूजा करते हुए दर्पण एवं पंखे से पूजा करते हए चामर (चँवर) से | पूजा करते हुए Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमार्जना करते हुए D) फल पूजा करते हुए अक्षत पूजा करते हुए नैवेद्य पूजा करते हुए Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर करी ते दीजिए,अणाहारी शिवसंत॥" "ॐ ह्रीँ श्री परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्रीमते जिनेन्द्राय नैवेद्यं यजामहे स्वाहा।" अर्थ : हे प्रभो! एक भव से दूसरे भव में जाते समय अनंती बार अणाहारी पद प्राप्त किया है, लेकिन अब जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त कर शाश्वत अणाहारी पद दीजिए। प्र.: नैवेद्य पूजाक्यों करते हैं? उ.: आहार संज्ञा एवं रस लालसा को तोड़ने के लिए प्रभु के सामने मिठाई से भरा आहार का थाल धरकर नैवेद्य पूजा करते हैं। फल पूजा करने की विधि * उत्तम तथा ऋतु के अनुसार श्रेष्ठ फल चढ़ाएँ। * श्रीफल को फल के रूप में चढ़ाया जा सकता है। * . सड़े, गले; उतरे हुए फल, बोर, जामुन , जामफल(पेरु), सीताफल जैसे तुच्छ फल चढ़ाने लायक नहीं हैं। * फलों को सिद्धशीला पर ही चढ़ाएँ। फल पूजाकादोहा:- “इंद्रादिक पूजाभणी, फल लावेधरी राग। पुरुषोत्तम पूजीकरी, माँगे शिवफल त्याग॥" .. "ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्रीमते जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा।" अर्थ : प्रभु पर भक्ति राग से, इन्द्रादि देव प्रभु की फल पूजा करने हेतु अनेक प्रकार के उत्तम फल लाते हैं और पुरुषोत्तम प्रभु की उन फलों द्वारा श्रद्धा से पूजा करके, उनसे मोक्ष की प्राप्ति रूप फल मिल सके, ऐसी त्याग धर्म की, चारित्र धर्म की माँग करते हैं अर्थात् मोक्षफल रूपी दान माँगते हैं। यहाँ द्रव्य पूजा पूर्ण हुई । अब भाव पूजा की शुरुआत प्रमार्जना त्रिक से होती हैं। तीसरी निसीहि एवं प्रमार्जना त्रिक * तीसरी निसीहि बोलकर पुरुष खेस तथा स्त्रियाँ साड़ी के पल्लू से तीन बार भूमि की प्रमार्जना कर खमासमणा दें। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिदिशिवर्नन त्रिक प्रभु जिस दिशा में बिराजमान हो उसके अलावा तीनों दिशाओं में देखने का त्याग करें। अर्थात् चैत्यवंदन करते समय ध्यान पूर्णतया भगवान में ही रहे। आस-पास में कौन क्या कर रहा है? कैसे वस्त्र पहने है ? कौन आ रहा है ? कौन जा रहा है ? आदि किसी पर भी ध्यान न दें। वर्णादि (आतम्बब) त्रिक :सूत्रालम्बन - चैत्यवंदन के सूत्रों की पद-संपदा आदि का ध्यान रखते हुए शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चार करें। अर्थालम्बन - सूत्र बोलते समय अर्थ का चिंतन करें। प्रतिमालम्बन - चैत्यवंदन करते समय प्रतिमा पर ध्यान रखें। - मुद्रा त्रिक योग मुद्रा : दोनों हाथ कोणी तक मिलाकर पेट को स्पर्श करें एवं हथेली की अँगुलियाँ परस्पर (दोनों हाथ की) एक दूसरे में रखकर हाथ जोड़ना। चैत्यवंदन, नमुत्थुणं आदि इस मुद्रा में बोले जाते हैं। ___ जिन मुद्राः दो पैरों के बीच आगे से चार अँगुल एवं पीछे चार अँगुल में कुछ कम अंतर रखकर, खड़े रहकर हाथ को सीधा लम्बाने पर यह मुद्रा होती है । दृष्टि प्रतिमा या नासाग्र पर स्थिर करें । इस मुद्रा में काउस्सग्ग करें। मुक्तासुक्ति मुद्राः छीप के आकार में दोनों हथेली जोड़कर मस्तक को लगाएँ। जावंति, जावंत एवं आधा जयवीयराय सूत्र इस मुद्रा में बोला जाता है। प्रणिधान त्रिक प्रत्येक क्रिया मन-वचन-काया की एकाग्रता पूर्वक करनी अथवा जावंति, जावंत, जयवीयराय इन तीन सूत्रों को भी प्रणिधान त्रिक कहते हैं। दैत्यवंदन में ध्यान रखने योग्य कुछ सावधानियाँ चैत्यवंदन भगवान का किया जाता है स्वस्तिक का नहीं अत: पहले स्वस्तिक आदि द्रव्य पूजा पूरी करने के बाद निसीहि द्वारा द्रव्य पूजा का त्याग कर भाव पूजा (चैत्यवंदन) की जाती है। उसी समय कोई आपका स्वस्तिक मिटा भी दे तो कोई बाधा नहीं है। चैत्यवंदन करते समय पच्चक्खाण नहीं लेना और ना ही किसी को देना, चैत्यवंदन पूर्ण होने के बाद पच्चक्खाण लें। चैत्यवंदन, काउस्सग्ग एवं पच्चक्खाण करने के बाद एक खमासमणा देकर ज़मीन पर बायाँ हाथ रखकर विधि करने में कुछ अविधि हुई हो तो उसका मिच्छामि दुक्कड़म् दें। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदिर में कीड़ी आदि जीवात उत्पन्न न हो इसलिए पूरी सावधानी रखें। विधि के बाद फल-फूल, नैवेद्य, चावल आदि अपने हाथ से ही व्यवस्थित स्थान पर रख दें यानि यहाँ-वहाँ न गिरे इसका ध्यान रखें। प्र.: चैत्यवंदन करते समय पक्षाल,आरती आदि करने जासकते हैं क्या? उ.: द्रव्य पूजा पूर्ण कर चैत्यवंदन करते समय पक्षाल या आरती आदि के लिए चैत्यवंदन छोड़कर दौड़ना उचित नहीं है । जो भी क्रिया कर रहे हो उसे मन लगाकर करनी चाहिए, अन्यथा सब क्रिया विक्षिप्त हो जाने पर पूर्ण रूप से फल की प्राप्ति नहीं होती है। एक बार द्रव्य, भाव सर्व क्रिया सम्पूर्ण कर लेने के बाद घर जाते समय यदि आरती आदि चल रही हो तो पुनः दुबारा द्रव्य क्रिया कर सकते हैं । जैसे पुनः दूसरी बार मंदिर में आए हो और लाभ मिल रहा है इस भावना से ... अवस्था त्रिक प्रभु की 1. पिण्डस्थ (छद्मस्थ) 2. केवली 3 सिद्ध अवस्था का चिंतन करें। 1.पिण्डस्थ अवस्थाः(छदस्थ अवस्था) . प्रभु के जन्म से लेकर केवल ज्ञान न हो, वहाँ तक की अवस्था छद्मस्थ अवस्था कहलाती है। प्रभु का इन्द्र द्वारा किया गया स्नात्र महोत्सव और छद्मस्थ अवस्था में भी प्रभु का कैसा सत्त्व था? आदि का चिंतन करें। जल पूजा करते समय इस अवस्था का चिंतन करें। वीर प्रभु की बाल क्रीड़ा का पराक्रम, पार्श्वकुमार का जलते नाग को नवकार सुनाना, नेमिकुमार का मित्रों के आग्रह से शंख फूंकना आदि विचार कर सकते हैं, तथा सभी अवस्था में प्रभु का उत्तम वैराग्य कैसा अद्भुत था? एवं प्रभु ने उपसर्गों में भी कैसी समता रखी? इत्यादि के द्वारा आत्मा को भावित करें। इस पर अरिहंत वंदनावली की 1 से 28 गाथा का अर्थ विचार सकते हैं तथा चंदन पूजा के दोहे बोलते समय प्रभु के सत्त्व आदि का चिंतन करें। 2. पदस्थ अवस्थाः (केवली अवस्था) इस अवस्था का ध्यान करते समय अपनी सुषुप्त आत्मा जो कर्मों के आवरण में रही हुई है। उसकी वीतरागता का चिंतन करें। यही प्रभु दर्शन का सर्वश्रेष्ठ फल है। गौशाले ने तेजोलेश्या फेंकी। फिर भी प्रभु ने कोई प्रतिकार नहीं किया। प्रभु की ऐसी अद्भुत समता से आत्मा को भावित करके सामान्य संयोगों में रागद्वेष नहीं करूँगा, ऐसा निश्चय करना। इसमें अरिहंत वंदनावली की 29 से 43 गाथा का अर्थ विचार सकते हैं। पुष्प पूजा करते समय इस अवस्था का चिंतन करें। 3.रूपातीत अवस्थाः (सिद्ध अवस्था) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष में गये हुए परमात्मा के स्वरूप एवं आत्मरमणता का चिंतन करें। इसमें अरिहंत वंदनावली की 44 वीं गाथा का अर्थ विचार सकते हैं। अक्षत, नैवेद्य, फल पूजा करते समय इस अवस्था का चिंतन करें। न्हवण जल लगाने की विधि * दो अंगुली से थोड़ा सा जल लेना। * पवित्रतम परमात्मा के शरीर का स्पर्श होने से पवित्र बना हुआ यह न्हवण जल 1. मेरी आँखों के विकारों को दूर करें। 2. जिन वाणी श्रवण में रुचि उत्पन्न करें। 3. मेरे मस्तक पर सदा जिनाज्ञा रहे। 4. मेरे हृदय में सदा भगवान का वास हो। ऐसी भावना से न्हवण जल आँख, कान, मस्तक एवं हृदय पर लगाएँ। * न्हवण जल ज़मीन पर न गिरे इसका विशेष ध्यान रखें। * न्हवण जल एवं पूजा करने के बाद हाथ अवश्य धोयें क्योंकि हथेली, नाखून आदि में केसर का अंश रहने पर यदि वह भोजन द्वारा मुँह अथवा पेट में चला जाए तो देवद्रव्य भक्षण का महापाप लगता है। मंदिर से बाहर निकलने की विधि * प्रभुजी के सन्मुख दृष्टि रखकर, प्रभु को पीठ न लगे इस तरह से बाहर निकलें। * आनंद की अनुभूति को प्रगट करने हेतु घंट बजायें। ओटले पर बैठने की विधि * प्रभुजी को अथवा मंदिर को पीठ न लगे इस प्रकार से बैठे। * रास्ते पर अथवा सीढ़ियों पर न बैठकर एक तरफ बैठे। * हृदय में प्रभुजी का ध्यान करते हुए तीन नवकार गिनें। प्रश्नोत्तरी प्र.: प्रभु की पूजा कब और कैसे करनी चाहिए ? उसका फल क्या है ? उ.: प्रभु की त्रिकाल पूजा करनी चाहिए। 1. प्रात: सूर्योदय के बाद, वासक्षेप पूजा से पूरे दिन के दुःख दूर होते हैं। 2. मध्यान्ह में अष्टप्रकारी पूजा करने से पूरे जन्म के पापों का नाश होता है। 3. संध्या में आरती, मंगल दीपक करने से सात भवों के पाप नाश होते हैं। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र.: प्रभु के चार निक्षेप समझाओ ? उ.: नाम निक्षेप स्थापना द्रव्य भाव इन चार निक्षेपों से की गई पूजा एवं स्तवना महाफल को देती है। प्र.: प्रतिमाजी के कितने प्रकार है और कौन-कौन से है ? प्रभु का नाम । : प्रभु की मूर्ति । : प्रभु के पूर्वभव एवं सिद्ध होने के बाद की अवस्था । : समवसरण में बिराजमान तीर्थंकर प्रभु । उ.: प्रतिमाजी के 2 प्रकार है। (1) अरिहंत अवस्था वाले जो आठ प्रातिहार्यों से युक्त होते है यानि परिकर सहित की प्रतिमा। (2) सिद्ध अवस्था वाले - जो मात्र प्रतिमा हो किन्तु परिकर न हो । प्र.: चैत्यवंदन करते समय जिन भगवान का चैत्यवंदन कर रहे हैं, उन्हीं भगवान का चैत्यवंदन स्तवन, स्तुति बोलना या दूसरे भी बोले जा सकते है ? • उ.: मूलनायक आदि जिन भगवान को उद्देश्य में रखकर चैत्यवंदन कर रहे हैं, यदि उन भगवान का चैत्यवंदन आदि मुँह पर आता है तो वह ही बोलें। यदि उन भगवान का नहीं आता हो तो पुस्तक से देखकर बोलने के बजाय दूसरे अन्य किसी भी भगवान का बोल सकते हैं क्योंकि ज्ञानादि गुणों से सभी जिनेश्वर परमात्मा एक जैसे ही हैं। प्र.: मंदिर में पूजा दर्शन करने जाते समय पैर में जूते या स्लीपर पहन सकते हैं ? उ.: मंदिर में पूजा-दर्शन करने जाते समय खुले पैर ( जूते या स्लीपर पहने बिना) ही जाना चाहिए। यह भी तीर्थंकर परमात्मा का विनय है । इन्द्र महाराजा भी जब प्रभु का च्यवन अपने अवधिज्ञान से जानते है तब अपने सिंहासन से उठकर अपने पैर की मोजड़ी उतारकर सात-आठ कदम आगे आकर शक्रस्तव ( नमुत्थुणं) द्वारा परमात्मा की स्तुति करते हैं । अतः मंदिर जाते समय जूते या स्लीपर पहनने योग्य नहीं हैं। प्र.: एक बार मंदिर में चढ़ाई गई बादाम, चावल आदि मंदिर में चढ़ा सकते है ? उ.: एक बार मंदिर में चढ़ाई गई बादाम, चावल आदि खरीदकर पुन: मंदिर में नहीं चढ़ा सकते। प्र.: पूजा करने वाले ही तिलक कर सकते हैं या सभी कर सकते हैं ? तथा तिलक क्यों करना चाहिए? उ.: प्रत्येक व्यक्ति को तिलक करना जरुरी है। जिनेश्वर प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य करने के प्रतीक रूप में तिलक किया जाता है। अपनी दो भौएँ के बीच में आज्ञा चक्र है, उस पर तिलक करने से आज्ञा चक्र 125 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मल होता है । प्र.: रास्ते में मंदिर देखने पर नमो जिणाणं न बोले तो क्या प्रायश्चित आता है ? उ.: रास्ते में जाते समय मंदिर आए और नमो जिणाणं न बोले तो छट्ठ (दो उपवास) का प्रायश्चित आता है ? प्र.: स्नात्र पूजा की तैयारी कैसे करनी चाहिए? उ.: त्रिगड़े के नीचे पाटले पर स्वस्तिक बनाकर उस पर मौली बांधा हुआ श्रीफल रखें। दो कलश में जल एवं दूध का पक्षाल भरकर उसे अंगलूछणे से ढँक दें। कुसुमांजलि के लिए थोड़े चावल धोकर उसमें केसर व पुष्प मिलाएँ। अलग-अलग दो-तीन कटोरी में चंदन व केसर लें, धूप-दीप-अक्षत नैवेद्य, फल, घंट, चामर, दर्पण, पंखा, चार दीपक आदि रखें। रक्षा - पोटली रखें, बत्तीस कोड़ी के लिए शक्तिनुसार रूपयेपैसे - माणक-मोती रखें। अंगलूछणे, आँगी की सामग्री रखें। आरती मंगल दीपक तैयार करें। आरती :: जय जय आरती आदि जिणंदा, नाभिराया मरुदेवी को नंदा ।। जय ।। नरभव पामीने ल्हावो लीजे ॥ जय ॥ 1 धूलेवा नगर मां जग अजुवालां ॥ जय ॥ 2 सुरनर इन्द्र करे तोरी सेवा ।। जय ।। 3 मनवांछित फल शिवसुख पूरे ॥ जय ॥4 मूलचंद ऋषभ गुण गाया ।। जय ।। 5 :: मंगल दीप :: :: - पहेली आरती पूजा कीजे, दूसरी आरती दीन दयाला, तीसरी आरती त्रिभुवन-देवा, चौथी आरती चउगति चूरे, पंचमी आरती पुण्य उपाया, दीवो रे दीवो प्रभु मंगलिक दीवो, आरती उतारण बहु चिरंजीवों । सोहामणो घेर पर्व दीवाली, अम्बर खेले अमरा वालीं । दीपाल भणे अणे कुल अजुवाली, भावे भगते विघ्न निवारी | दीपाल भणे ओणे ए कलिकाले, आरती उतारी राजा कुमारपाले । अम घेर मंगलिक तुम घेर मंगलिक, मंगलिक चतुर्विध संघ ने होजो । वो दीव 126 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સીટી દ્રાલેજફ આર્ટ્સ કોમર્સ Art of Living Na Indian Culture v/s Western Culture Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तुशास्त्र वायव्य उत्तर ईशान दिशा यंत्र पश्चिम पूर्व (EAST) - शुभ पश्चिम (WEST) - अशुभ दक्षिण (SOUTH) - अशुभ उत्तर (NORTH) - शुभ नैऋत्य दक्षिण अग्नि * रसोई घर : रसोई घर हमेशा अग्निकोण में हो। रसोई घर का मुँह पूर्व की ओर हो तो घर में बीमारियाँ नहीं आती। रसोई घर की खिड़की पूर्व एवं दक्षिण में हो। घर में चावल, अनाज, खाने-पीने का सामान वायव्य दिशा या उत्तर दिशा में रखें। गैस, स्टोव, बिजली का सामान अग्निकोण में रखें। * शयन कक्ष : पलंग के सामने दर्पण नहीं होना चाहिए। ड्रेसिंग टेबल खिड़की के सामने नहीं होना चाहिए। दरवाज़े की तरफ पाँव करके नहीं सोना चाहिए। यदि शयन कक्ष में तिजोरी या अलमारी हो तो उसका दरवाज़ा दक्षिण की ओर नहीं खुलना चाहिए। चोरी होने का भय रहता है। दरवाज़ा हमेशा उत्तर या पूर्व की ओर खुलना चाहिए। घर के मुखिया का शयन कक्ष नैऋत्य में होना चाहिए। * सीढ़ियाँ-सीढ़ियाँ हमेशा नैऋत्य कोण में बनायें जो दक्षिण से पश्चिम की ओर लाये, या पश्चिम या उत्तर में भी हो सकती है। सीढ़ियों की संख्या विषम (ऑड) होनी चाहिए। जैसे 5, 7, 9 आदि। सीढ़ियों के बीच में 9 इंच का अंतर होना चाहिए। सीढ़ियों के नीचे शयनकक्ष या पूजागृह कभी नहीं बनाना चाहिए। सीढ़ियों के नीचे गोदाम बना सकते है। * टॉयलेट - रसोई और टॉयलेट आमने-सामने नहीं होना चाहिए। टॉयलेट और स्नानगृह दोनों साथ में नहीं होना चाहिए। यह दक्षिण या पश्चिम में होना चाहिए। टॉयलेट कभी भी ईशान या पूर्व में न बनाये। स्नान करते समय मुँह हमेशा पूर्व की तरफ हो। दक्षिण या पश्चिम की तरफ मुँह करके नहाने से अनेक बीमारियों से पीड़ित होना पड़ता है। * ईशान कोण बहुत पवित्र माना जाता है। कचरा कभी भी ईशान में न रखें। मुख्य द्वार से सभी द्वार छोटे होने चाहिए। प्रवेश द्वार पर ॐ, स्वस्तिक, अष्टमंगल, तोरण, मांगलिक वचन, मांडवे, रंगोली हमेशा शुभ रहती है। इससे बुरी आत्माएँ, बुरी नज़र घर में प्रवेश नहीं करती है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ de Indian Culture V/s. Western Culture the जैनिज़म के पिछले खंड में आपने देखा कि शिविर के निमित्त से सुसंस्कृत बनी जयणा तथा मॉडर्न लाईफ स्टाईल में पली सुषमा, दोनों की शादी हो गई अब आगे... दोनों अपने-अपने संस्कारों के अनुरूप अपना-अपना जीवन व्यतीत करने लगी। समय अपनी गति से बढ़ता गया और दोनों ने साथ-साथ गर्भ धारण किया। ___ गर्भ के सार संभाल में भी दोनों के बीच में दिन-रात का अंतर था। जयणा को गर्भ से संस्कार देने का महत्त्व पता होने के कारण वह उसी के अनुरूप बड़ी सावधानी पूर्वक गर्भ का पालन करने लगी। वह चाहती तो मौज-मज़ा, ऐशो आराम कर आनंद पूर्वक समय व्यतीत कर सकती थी। पर वह जानती थी कि अपने मौज-शौक के क्षणिक सुख के पीछे बच्चे का भविष्य बिगाड़ना उचित नहीं है, अत: वह सतत अपने तथा अपने गर्भ के लिए शुभ-भाव करती थी तथा चारित्र प्राप्ति की नित्य प्रार्थना करती थी क्योंकि उसे पता था कि.गर्भकाल में की हुई भावना भविष्य में उसके बच्चे को शासन का अनुरागी बनायेगी। जो उसकी अंतर मन की इच्छा थी। उसके पास ज्ञान था और उसने उसका पूरा उपयोग किया। वह सावधान रही। इसके बिल्कुल विपरीत सुषमा तो गर्भकाल को मौज-मस्ती और आराम का समय मानती थी। उसे तो जैसे काम से छुट्टी मिल गई हो। आराम से पति के साथ घूमती-फिरती, टी.वी. देखती और यदि घर में अकेले बोर हो जाती तो सहेलियों को बुलाकर गप्पे मारती या किटी पार्टी में चली जाती। इस प्रकार अपनी लाईफ स्टाईल के अनुसार गर्भ काल व्यतीत होने पर दोनों ने एक-एक लड़की को जन्म दिया। जन्म के पश्चात् भी जयणा ने अपने पास सही समझ होने के कारण तथा बच्चे के भविष्य की दीर्घदृष्टि से बचपन से ही उसमें संस्कारों का बीजारोपण शुरु कर दिया। अपने विचारों के अनुरूप जयणा ने अपनी पुत्री का नाम 'मोक्षा' रखा, ताकि सदैव उसके मन में मोक्ष की झंखना बनी रहे। जन्म होते ही सर्वप्रथम उसे नवकार मंत्र का श्रवण करवाया। पालने में भी झुलाते समय महापुरुषों के गुणों से गुम्फित हालरड़े (गीत) गाकर उसे सुलाया करती थी। जयणा ने अपनी बेटी को थोड़ी बड़ी होते ही पाठशाला भेजना शुरु कर दिया ताकि वह पाश्चात्य संस्कृति में न रंगकर उसका जीवन धार्मिक संस्कारों और भारतीय संस्कारों से रंगा रहे। बचपन से ही नित्य जिन पूजा, नवकारसी, यथाशक्ति चउविहार, बड़ो को प्रणाम, पाठशाला आदि के संस्कार जयणा ने उसे दिए थे। मोक्षा के मन में धर्मक्रिया करने या सिखने में उत्साह जगाने के लिए जयणा उसे कई प्रकार के (120 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलोभन देती थी। उसे अपने जन्मदिन पर उतने गिफ्ट नहीं मिलते थे जितने उस दिन मिलते थे जब वह ज्यादा गाथा याद करती या ज्यादा सामायिक करती थी। जयणा के मन में उसकी बेटी के व्यवहारिक शिक्षण से भी ज्यादा महत्त्व धार्मिक शिक्षण का था। ___ इस तरफ अपनी आदतों से मजबूर सुषमा अपनी बेटी को बार-बार कामवाली के भरोसे छोड़कर किटी पार्टी में, होटल में या शॉपिंग करने चली जाती थी। अपनी बेटी को मंदिर में ले जाकर जिनदर्शन करवाना तो दूर, घर में परमात्मा के फोटो के दर्शन करवाना भी वह जरुरी नहीं समझती थी। फास्ट फॉरवर्ड लाईफ की आदत होने के कारण सुषमा के पास अपनी बेटी के लिए इतना भी समय नहीं था कि वह अपनी बेटी को स्तवन या कुछ अच्छी बातें सीखा सके। ___ अपनी लाईफ स्टाईल और संस्कार के अनुरूप सुषमा ने अपनी बेटी का नाम 'डॉली' रखा। सुषमा ने उसे धार्मिक शिक्षण तो नहीं दिया, लेकिन व्यवहार में भी गुरुजनों, माता-पिता के प्रति आदर भाव नहीं सिखाया। जिसके कारण बचपन से ही छोटी-छोटी बातों में माता-पिता के सामने बोलना, हर बात के लिए जिद्द करना, बच्चों के साथ लड़ना-झगड़ना, झूठ बोलना आदि डॉली का स्वभाव बन गया। तथा अपनी मम्मी को 24 घंटें टी.वी. के सामने बैठते, फोन पर गप्पे मारते, सहेलियों के साथ शॉपिंग और किटी पार्टी करते देख डॉली को भी वहीं जीवन पसंद आने लगा। मोक्षा छुट्टी के दिन 5 बजे उठकर आठ नवकार गिनकर सीधे सामायिक रुम में जाकर अपने मातापिता के साथ सामायिक लेती थी, सामायिक के बाद अपने माता-पिता को प्रणाम कर, नहाकर वह पाठशाला जाती थी। एक दिन अपनी माँ के कहने पर मोक्षा डॉली को भी पाठशाला ले जाने उसके घर गई, और दरवाज़े की घंटी बजाई। सुषमा उस समय अखबार पढ़ रही थी। सुबह-सुबह घंटी की आवाज़ सुनकर सुषमा- हे भगवान! ये सुबह-सुबह कौन परेशान करने आ गया। रामू जाओ दरवाज़ा तो खोलो। (दरवाज़ा खुलने पर मोक्षा अंदर आई। उसने सुषमा के पैर छूकर प्रणाम किया। सुषमा ने उसकी इस हरकत को देखकर कहा) सुषमा- अरे मोक्षा! क्या तुम 19 वीं सदी की तरह प्रणाम-वणाम कर रही हो। छोड़ो ये प्रणाम और बोलो गुड मार्निंग, बिल्कुल अपनी माँ पर गई हो। खैर बताओ कैसे आना हुआ? मोक्षा - आन्टी! मैं पाठशाला जा रही थी और मम्मी ने कहा कि डॉली को भी साथ में लेते जाना। इसलिए मैं उसे बुलाने आई हूँ। क्या कर रही है डॉली? मैं उसे ले जाऊँ ? (123 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषमा- (हँसते हुए) क्या....! डॉली और पाठशाला। डॉली तो अभी सो रही है। वैसे भी वह पाठशाला नहीं आयेगी। क्योंकि आधे घंटे के बाद उसकी डान्स क्लास है। (सुषमा की बात सुनकर मोक्षा पाठशाला चली गई।) (बड़ा दुःख होता है यह जानकर कि जिस भारत वर्ष में माँ को संस्कार की जननी माना जाता था वहीं माँ आज बच्चों के संस्कारों का खून करने के लिए हावी हो गई है और इससे भी ज्यादा दु:ख तो तब होता है जब इन संस्कारों के खून को फेशन का नाम दिया जाता है। बच्चें तो गीली मिट्टी के समान होते हैं। बचपन में उन्हें जैसा आकार दें, वे वैसे बन जाते हैं। आज के ज़माने में जहाँ माता-पिता दोनों के पास बच्चों के लिए वक्त नहीं होता है, वहाँ पाठशाला ही एक ऐसा स्थान है जो बच्चों को सुसंस्कृत बनाती है। गुरुजनों के प्रति विनय पाठशाला से ही प्राप्त होता है। सुषमा के पास अपनी बेटी डॉली को डान्स क्लास में भेजने के लिए समय था लेकिन पाठशाला भेजने के लिए समय नहीं था। माता-शत्रु पिता-वैरी, येन बालो न पठितः। सभा मध्ये न शोभते, हंस मध्ये बको यथा।। - वह माता-पिता वैरी है जो अपने बच्चों को धर्म का शिक्षण नहीं देते हैं। उन्हें नहीं पढ़ाते हैं। जैसे हंसों के बीच बगुले की हँसी होती है। वही हालत पंडितों की सभा में संस्कार विहीन बच्चों की होती है।) इधर मोक्षा के जाने के बाद डॉली जाग गई और उठते ही ... डॉली- मॉम! व्हेयर इज़ माय बेड टी? मेरी चाय कहाँ है? सुषमा- लाई बेटा।... ये लो आपकी चाय और अभी उठकर डान्स क्लास के लिए तैयार हो जाओ। डॉली- ओ.के. मॉम। __ (कुछ दिनों बाद चौदस के दिन सुबह के समय सुषमा सो रही थी और डॉली के स्कूल जाने का समय हो रहा था। तंब....) डॉली - मॉम! वॉट इज़ दिस? आपने अभी तक मेरा टिफीन बॉक्स नहीं भरा। मुझे देरी हो रही है। सुषमा- आय एम सॉरी बेटा! मैं कल पार्टी से बहुत लेट आई थी। इसलिए मुझे बहुत नींद आ रही है। एक काम करो अलमारी से पैसे ले लो और केन्टीन से कुछ भी लेकर खा लेना। डॉली- रोज़ यही तो करती हूँ। सुषमा- समझा करो बेटा। (और उधर ....) जयणा- मोक्षा! बेटा ये लो अपना टिफीन बॉक्स। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षा-मम्मी ! आज टिफीन में क्या है ? जयणा- बेटा! रोटी और मोगर की सब्जी | मोक्षा-मम्मी ! आज कोई तिथि है क्या ? जयणा- हाँ बेटा! आज चौदस है। [ मोक्षा - तो मम्मी ! मेरी बोतल में गरम पानी तो भरा है ना ? जयणा- - हाँ बेटा! मुझे पता है। मोक्षा- थैंक्यू मम्मी ! आपने मुझे बता दिया। मैं स्कूल में ध्यान रखूँगी। (आर्यावर्त नारी को गृहिणी पद प्रदान किया गया था। घर के सभी सदस्य, बच्चें, पति आदि को सजाने-संवारने का कार्य नारी स्वयं करती थी । किन्तु अफसोस आज नारी के सभी आदर्शों को हम खो बैठे हैं। आज की नारी को अपने बंगलों एवं बगीचों को संवारना आता है किन्तु अपने बच्चों को संस्कारित बनाना नहीं आता। आज नारियों की कमनसीबी की यह पराकाष्ठा है कि उनके बच्चें अभक्ष्य खाते हैं। इसमें दोष माता-पिता का या बच्चों का ? दोष बच्चों का नहीं, माँ-बाप का है। आर्य महिलाओं को अपनीं मर्यादाओं को जानना चाहिए एवं पुनः आचरण में लाना चाहिए। उच्च संस्कारों से सुसंस्कृत नारी प्रात: कार्य पूर्ण कर स्वयं अपने हाथों से रसोई बनाकर सबको भोजन करवाती थी। इस प्रकार का भोजन भी एक आनंद रूप था। केन्टीन अथवा होटल में अन्य सब कुछ मिलेगा, किन्तु घर जैसा वातावरण नहीं मिलेगा, माता का वात्सल्य-प्यार नहीं मिलेगा। आज उन माताओं को कहने का मन हो रहा है कि बच्चों को केवल धन की आवश्यकता नहीं होती बल्कि साथ-साथ माता के वात्सल्य की, पिता के प्यार की भी आवश्यकता होती है। माता जब बच्चों को छाती से लगाती है तब बच्चा आनंद विभोर हो जाता है मानो कि उसे स्वर्ग मिल गया हो। वह आनंद उसे रूपयों से कभी नहीं मिलता। और उसी शाम मोक्षा प्रतिक्रमण जाने के लिए डॉली को बुलाने गई। वह जानती थी कि डॉली प्रतिक्रमण नहीं आएगी लेकिन उसने सोचा कि इस बहाने डॉली से मिलना हो जायेगा और यदि वह आने के लिए तैयार हो जाये तो अच्छा ही है। उस दिन सुषमा को बहुत बड़ी पार्टी में जाना था और शाम का खाना भी होटल में ही था। इसलिए सुषमा घर पर खाना न बनाकर डॉली के लिए पीझा का आर्डर देकर चली गई। मोक्षा डॉली के घर आई। तब डॉली उस वक्त पीझा खा रही थी ।) 130 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉली - मोक्षा! बहुत दिनों बाद मिली हो। मोक्षा - अरे डॉली! मैं तुम्हें प्रतिक्रमण के लिए बुलाने आई थी और तुम आज चौदस को पीझा खा रही हो, वो भी रात को। तुम यह नहीं जानती कि पीझा अभक्ष्य होता है। डॉली- चौदस-वौदस का तो पता नहीं पर मेरी मॉम को पार्टी में जाना था। इसलिए उन्होंने होटल से पीझा मँगवा दिया और प्रतिक्रमण तो मैं वैसे भी नहीं आ सकती क्योंकि मेरी ट्यूशन टीचर आने वाली है। मोक्षा- ओ.के. डॉली! जैसी तुम्हारी मर्जी। (मोक्षा ने प्रतिक्रमण से घर आकर शाम को डॉली से हुई सारी बातें अपनी मम्मी से कही। सुषमा की इतनी लापरवाही को देखकर उसे समझाने के लिए एक दिन जयणा सुषमा के घर गई। सुषमा उस वक्त अखबार पढ़ रही थी।) जयणा - सुषमा! कैसी हो तुम? क्या कर रही हो? सुषमा- अरे जयणा! तुम कब आई ? मैं तो ऐसे ही समय बिताने के लिए अखबार पढ़ रही थी। आज हमारे घर कैसे आना हुआ? जयणा - चातुर्मास चल रहा है फिर भी तुम मंदिर, व्याख्यान आदि में कहीं दिखाई नहीं देती। इसलिए पूछने आई थी तबियत आदि ठीक है ना? सुषमा - क्या जयणा! तुम भी कैसी बात कर रही हो? तुम्हें तो पता है मुझे कितना काम है। किटी पार्टी, शॉपिंग इनसे मुझे फुर्सत मिले तो मैं मंदिर, व्याख्यान में आऊँ ना। जयणा - अच्छा ठीक है तुम्हें समय नहीं है पर डॉली को तो पाठशाला भेज दिया करो। उसे क्या काम है ? सुषमा - डॉली और पाठशाला! बिल्कुल नहीं। वैसे भी पाठशाला के समय उसे डान्स क्लास जाना होता है और मैं नहीं चाहती कि वह डान्स क्लास छोड़ दे। जयणा, तुम भी क्या 19 वीं सदी की बातें करती हो। ये क्या बच्चों के पाठशाला जाने के दिन है। ये तो उनके घूमने-फिरने की उम्र है। मौज-मस्ती करने के दिन है। मैं तो अपनी बेटी को मॉडर्न बनाना चाहती हूँ मॉडर्न। जयणा - लेकिन सुषमा! इन्सान चाहे कितना भी मॉडर्न बन जाए लेकिन उसे अच्छे संस्कार तो पाठशाला जाने से ही मिलेंगे ना! पाठशाला में विनय-विवेक जैसे बहुमूल्य गुणों के साथ-साथ सम्यग् ज्ञान की शिक्षा भी दी जाती है। सुषमा - मैं तो इन सब बातों पर विश्वास नहीं करती और मेरी मानो तो तुम भी अपनी बेटी को वर्तमान Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग के लोगों के साथ कदम से कदम मिलाना सिखाओं। जयणा - देखो सुषमा! कहना मेरा फर्ज था। आगे मानना न मानना तुम्हारी मर्जी। (इतना कहकर जयणा वहाँ से चली गई।) सुषमा- हे भगवान! कितना लेक्चर देती है, ये जयणा। पूरा पकाकर चली गई। (याद रखना बीज अंकुर बनकर बाहर आ तो जाता है परंतु माली की देखभाल के बिना उसका वृक्ष बनना मुश्किल है। ठीक उसी प्रकार जन्म के बाद माता-पिता की योग्य परवरिश के बिना, योग्य संस्कार के बिना बालक का जीवन बनना भी मुश्किल है।) शाम के समय सुषमा टी.वी. देख रही थी तभी डॉली अपना होमवर्क लेकर आयी। . डॉली- मम्मी, मम्मी! आज का लेसन बहुत हार्ड है। प्लीज़! आप मुझे होम-वर्क करवा दीजिए ना। सुषमा - अरे डॉली ! देखो ना टी.वी. पर कितना अच्छा प्रोग्राम आ रहा है। प्रेरणा की आज अनुराग से शादी है और कोमोलिका कुछ तूफान खड़ा करने वाली है। वो क्या करेगी यह सीन तो मैं छोड़ ही नहीं सकती हूँ। बाद में मुझे “क्योंकि सास भी कभी बहू थी' सीरियल भी देखना है। पता है आज तुलसी जेल से छूटने वाली है। इतनी टेंशन में इस तरफ तुम्हें अपने होम वर्क की पड़ी है। ऐसा करो अपने पापा के पास चली जाओ। (डॉली अपने पापा के पास गई।) डॉली- डेड! प्लीज़ मुझे ये होम वर्क करवा दीजिए ना। आदित्य- (थोड़े गुस्सा होकर) अरे! तुम देखती नहीं हो। मैं अपने ऑफिस के काम में कितना बिज़ी हूँ। और ये होम-वर्क करवाना क्या मेरा काम है ? जाओ अपनी मम्मी के पास। डॉली - मॉम! डेड बीज़ी है और वे मुझे डाँट रहे है। आप ही होमवर्क करवा दीजिए ना प्लीज़। सुषमा- क्या तुम बार-बार डीस्टर्ब कर रही हो। अपना काम अब खुद किया करो। जाओ, अपने आप कर लो। डॉली- (अपने आप से) मम्मी कहती है पापा के पास जाओ, पापा कहते है मम्मी के पास जाओ। किसी को भी मेरे लिए टाईम नहीं है। मम्मी टी.वी. में बीज़ी है तो पापा को काम से फुर्सत नहीं है। यदि मैंने होमवर्क नहीं किया तो टीचर पनिशमेंट देगी। इससे तो अच्छा है कि कल मैं स्कूल ही नहीं जाऊँ। (रात को सोने के पहले मम्मी के पास जाकर) डॉली- मम्मी, मैं कल स्कूल नहीं जाऊँगी। . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषमा- क्यों बेटा? डॉली - मॉम मेरा होमवर्क नहीं हुआ है और टीचर मुझे पनीश करेगी। सुषमा - बस इतनी-सी बात। अरे! तुम कोई बहाना बना देना। जैसे कि... तुम्हारा पेट दु:ख रहा था या पॉवर कट गया था। डॉली - ओ.के. मॉम! यू आर ग्रेट! आप बहुत अच्छी है। (जहाँ माँ संस्कारों की जननी कही जाती थी। वही माँ आज एक छोटे से कार्य को लेकर बच्चों में झूठ बोलने का बीज रोपण कर रही है। पर वह यह नहीं जानती कि उसका बोया हुआ यह बीज जब वटवृक्ष का रूप लेगा तब क्या रंग दिखायेगा। सच्चे अर्थ में कहा जाए तो आज माता-पिता स्वयं ही मौज-शौक में डूब चुके हैं। ___ बहुत कम ऐसे माता-पिता है जो बच्चों का, उनके भविष्य का ध्यान रखते हैं। आज के मातापिता को तो बच्चे भी बोझ लगते हैं। बच्चों की उपस्थिति में वे टी.वी. सीरियल मजे से नहीं देख पाते। ऐसे कितने ही माता-पिता है, जो बच्चों को नौकरों को सुपुर्द कर शॉपिंग, किटी पार्टी या व्यापार धंधे में व्यस्त हो जाते है। जब बच्चों को माता-पिता की आवश्यकता होती है तब माता-पिता से उन्हें प्यार और वात्सल्य नहीं मिलता। फिर बड़े होकर वे पुत्र-पुत्रियाँ, माता-पिता को नहीं चाहते इसमें उनका क्या दोष है ? आज धन कमाने की धून में और टी.वी. सीरियल्स देखने में माता-पिता ऐसे अंधे हो गये है कि वे अपने बच्चों को भी भूल गये है और ऐसा ही बर्ताव सुषमा ने डॉली के साथ किया, और इस तरफ....) जयणा- मोक्षा! तुम्हारी गाथा हो गई हो तो चलो तुम्हारा होम-वर्क देख लें। मोक्षा- मम्मी! आज के होम-वर्क में जो प्रोब्लम्स् है उसकी मेथड आपने मुझे पहले ही बता दी है। मैं अपने आप कर लूँगी। जयणा- ठीक है, मैं अंदर कपड़े प्रेस कर रही हूँ। कोई डॉऊट हो तो आ जाना। मोक्षा- ठीक है मम्मी। । (थोड़ी देर बाद मोक्षा मम्मी के पास गई।) मोक्षा- मम्मी, यह प्रोब्लम मुझसे सोल्व ही नहीं हो रहा है। जयणा - एक मिनिट हाँ बेटा। (जयणा प्रेस बंद करने लगी, इतने में मोक्षा के पापा आ गये।) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश - अरे ! क्या हुआ बेटा? तुम्हारी मम्मी प्रेस कर रही है। लाओ मैं बता देता हूँ। (पापा मोक्षा को समझाते है) मोक्षा - अरे! पापा इतना ईज़ी था, मुझे तो पता ही नहीं था। जिनेश - ठीक है बेटा, पर परीक्षा में ध्यान रखना। मोक्षा- ठीक है पापा। __ (नारी संस्कारों को देने वाली एक ऐसी संस्था है जिसकी छत्र-छाया में परिवार पलते-बढ़ते है। यदि एक परिवार संस्कारित होता है तो पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कारित होती है। ____ गुणवान स्त्री घर में कल्पवृक्ष समान होती है। वह परिवार को क्या फल नहीं देती ? उससे परिवार को अनेक लाभ होते है। घर में सुशील स्त्री हो तो पुरुष को घर की चिन्ता नहीं होती। घर के सारे कार्य वह संभाल लेती है। बच्चों को संस्कारित करना, उन्हें पढ़ाना-लिखाना, उनके साथ हँसना -खेलना, उनकी बातें सुनना, उन्हें प्रेम वात्सल्य देना सारे कार्य एक माँ ही कर लेती है। माँ के साथ जब पिता का प्रेम भी बच्चों को मिल जाता है तब उसे और किसी के प्रेम की अपेक्षा ही नहीं रहती। जयणा और जिनेश ने मोक्षा के लालनपालन में कोई कमी नहीं रखी। मोक्षा के बाद जयणा ने एक और पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम मोहित रखा इस तरफ सुषमा ने डॉली के बाद दो पुत्रों को जन्म दिया जिनका नाम प्रिन्स और अंश रखा। समय के साथ अपनी माँ से प्राप्त संस्कारों के अनुरूप यह तीनों भी बड़े होने लगे। थोड़े दिनों बाद जयणा ने मोहित को मोक्षा की तरह गुरुकुल भेजा। इस तरफ सुषमा ने प्रिन्स और अंश को स्टेन्डर्ड बनाने के लिए माउन्ट आबू पर स्थित एक बड़े हॉस्टल में भेजा। सुषमा और आदित्य दोनों साल में एक बार उनसे मिलने जाते थे। . ___बस, इसी प्रकार समय के साथ अपने माता-पिता से मिलने वाले संस्कार, स्नेह और वात्सल्य से पली-बढ़ी डॉली और मोक्षा ने यौवन की दहलीज़ पर कदम रखा। वक्त के साथ माता-पिता द्वारा दिए गए संस्कार उनके जीवन में झलकने लगे। जहाँ डॉली टाईम पास के लिए चौबीस घंटे टी.वी., कम्प्यूटर, शॉपिंग, डिस्को और मोबाईल से बाज नहीं आती थी। वहीं मोक्षा थोड़ा भी समय मिलने पर स्वाध्याय, गाथा, प्रतिक्रमण, धार्मिक अनुष्ठानों में अपना समय व्यतीत करती थी। जहाँ डॉली ने शोर्ट्स, जिन्स, स्लीवलेस आदि को अपनी लाईफ स्टाईल बना दिया था। वहीं मोक्षा ने 'सादा जीवन और उच्च विचार' के आदर्श को अपने जीवन में उतारकर सीधे-साधे, मर्यादापूर्ण वस्त्रों को अपना परिधान बनाया था। जहाँ डॉली को बॉय-फ्रेन्डस् बनाने का, उनके साथ घूमने-फिरने, बातें करने का शौक था। वही मोक्षा लड़कों (134 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की परछाई से भी दूर भागती थी। जहाँ डॉली के दिन की शुरुआत ब्रेड-बटर और बेड-टी के साथ तथा रात होटल के पाव-भाजी और पीझा खाकर पूरी होती थी। वहीं मोक्षा पर्वतिथियों में तपश्चर्या और भक्ष्यअभक्ष्य का ज्ञान होने के कारण शुद्ध-भोजन करती थी। संक्षिप्त में जहाँ डॉली का जीवन संपूर्णतया पाश्चात्य संस्कृति (Western culture) पर आधारित था। वहीं मोक्षा का जीवन जैन एवं भारतीय संस्कृति - (Indian culture) के अनुसार था। (और एक रात... करीब दस बजे तक डॉली घर पर न लौटने पर उसके पिता ने सुषमा से पूछा) आदित्य- सुषमा! डॉली कहाँ है ? बहुत रात हो गई है। सुषमा - डॉली तो अपने फ्रेन्डस् के साथ कम्बाईन स्टडी करने गई है। अभी आती ही होगी। आप जाकर सो जाइए! मैं हूँ ना। (डॉली के पापा सो गये तभी डॉली डिस्को से आई।) डॉली- (नाचते-गाते हुए) एक बार आजा-आजा आ ऽऽऽ जा। सुषमा-आहिस्ता....आहिस्ता! तुम्हारे पापा अभी तुम्हारे बारे में पूछकर सोए है, वैसे बताओ पार्टी कैसी थी?। डॉली - माइंड ब्लोइंग मॉम! बहुत अच्छी थी और पता है पार्टी में सभी ने मेरी इस नई ड्रेस की बहुत तारीफ की। सुषमा - अच्छा सुनो। यदि तुम्हारे पापा कल तुम्हें कुछ पूछे तो कह देना कि तुम अपने फ्रेंड के यहाँ पढ़ाई करने गई थी। (फ्रेन्ड होने के नाते मोक्षा को डॉली की हर हरकत का पता था। एक दिन मौका मिलने पर मोक्षा ने डॉली को समझाने की कोशिश की) मोक्षा - डॉली! आज ये तूने कैसे कपड़े पहने है? आज ही नहीं बल्कि पिछले कई दिनों से मैं तुम्हें देख रही हूँ और मैंने सोचा भी था कि इस विषय में तुमसे बात करूँ लेकिन चान्स ही नहीं मिल पाया। तुमने कभी अपनी ड्रेसिंग पर ध्यान दिया है। एक अच्छी, सुसंस्कारी और जैन कुल की लड़की को ऐसे कपड़े कभी भी नहीं पहनने चाहिए। यह उत्तेजक वेशभूषा ही तो लड़कों को छेड़ने का मौका देती है। डॉली - मोक्षा! तुम्हें क्या पता, आज की दुनिया के बारे में।आज एक नहीं, दो नहीं, हज़ारों लड़के मेरे पीछे लटू बनकर घूमते हैं। सब मुझसे बहुत प्यार करते हैं। मैं जहाँ भी जाती हूँ चाहे वो पार्टी हो या डिस्को, मैं उस पार्टी में सेंटर ऑफ अट्रेक्शन बन जाती हूँ। पता है क्यों ? मेरी इस ड्रेसिंग के कारण। यह 135 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड्रेसिंग ही तो मेरी मॉडर्निटि की निशानी है। मोक्षा! तुम भी क्या यह 19 वीं सदी के अनपढ़ लोगों की तरह फालतु बातें कर रही हो। जरा अपने आप पर ध्यान दो कितनी बोरिंग है तुम्हारी लाईफ स्टाईल। आज के मॉडर्न युग से कदम से कदम मिलाकर चलना सीखों। मोक्षा- लेकिन डॉली! मैं तुम्हें ही पूछती हूँ। बताओ पैसों की सुरक्षा किसमें है? उसे रास्ते में खोलकर रखने में या उसे घर पर तिजोरी में बंध रखने में ? पैसा जब तिजोरी में बंध हो तब वह सुरक्षित रहता है, लेकिन जब उसे खुले आम रखा जाता है तब उन पैसों को गुंडों एवं इन्कमटेक्स वालों से बचाना दुष्कर हो जाता है। इसी प्रकार कोई स्त्री मर्यादापूर्ण वस्त्रों से अपने शरीर को ढूंक कर रखे तो उसे किसी प्रकार की मुश्किलें उठानी नहीं पड़ती। लेकिन जो तुम्हारे जैसे अश्लील कपड़े पहनती है, भविष्य में उस पर कष्ट आए बिना नहीं रहता। यानि कि उसे अपने शील की रक्षा करना कठिन हो जाता है। सुनो, अभी कुछ दिन पहले न्यूस पेपर में आए एक प्रसंग के बारे में बताती हूँ - बलात्कार का एक केस कोर्ट में आया। लड़की ने लड़के पर आरोप लगाया। न्यायाधीश ने उसका गौर से निरीक्षण शुरु किया। न्यायाधीश ने अंत में पूछा- जब यह केस बना तब तुमने कौन-से कपड़े पहने हुए थे। जब लड़की वे कपड़े पहनकर आई, तब न्यायाधीश ने उसकी छोटी मिडी एवं टाइट टीशर्ट को देखकर कहा- “गलती लड़के की नहीं लड़की की है। यह लड़का तो क्या उस वक्त यदि मैं भी होता तो यह कार्य कर बैठता, अत: लड़की को ही दोषित साबित किया गया। इस उदाहरण से यह समझना मुश्किल नहीं कि लड़के की अपेक्षा लड़कियाँ और उनकी वेशभूषा ही व्यभिचार करवाने में ज्यादा गुन्हेगार है। डॉली - तुम्हारे कहने का मतलब है कि मैं आज की जनरेशन के लोगों के बीच कॉलेज में, क्लासेस में, डिस्को में तुम्हारी तरह ऐसे कपड़े पहनकर जाऊँ। No Way मैं नहीं चाहती कि लोग मुझे बहनजी या मीरा बाई कहकर बुलाएँ। जब गुड़ अपनी मधुरता को छुपाकर नहीं रखता, पुष्प अपनी सुगंध छुपाकर नहीं रखता, चाँद अपनी शीतलता छुपाकर नहीं रखता तो भला हम क्यों इन वस्त्रों से अपनी सुंदरता को ढंक कर रखें। हाँ! यह बात सही है कि हमें अपने शरीर पर किसी को अपना अधिकार जमाने नहीं देना चाहिए। मोक्षा! आज शो ऑफ का ज़माना है। हर किसी को एक दूसरे से बढ़-चढ़कर दिखाने की इच्छा होती है। विद्वान को खुद की विद्वता दिखाना अच्छा लगता है, बलवान को अपने बल का प्रदर्शन करना अच्छा लगता है। श्रीमंत आलीशान फ्लेट, लेटेस्ट फर्नीचर, इम्पोर्टेड गाड़ी, सेल्युलर फोन, रेशमी महंगे कपड़े पहनकर अपनी श्रीमंताई का शो करता है। तो फिर हम इन कपड़ों को पहनकर अपने रूप का थोड़ा-सा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदर्शन कर ज़माने के साथ चले तो तुम्हें तकलीफ क्यों ? मोक्षा ! दुकान में ढेरों चीज़ें होती है लेकिन प्रशंसा उसी चीज़ की होती है जो आकर्षक हो। उसी प्रकार हमें तो बस इतना चाहिए कि जिस रास्ते से हम जाए वहाँ के सारे लोग, सारे लड़के हमारी प्रशंसा करें, और कोई हमारी प्रशंसा करे इसमें खतरा ही क्या है ? मोक्षा - जिस प्रकार रस भरे, पक्के पीले आम को देखते ही सब उसकी प्रशंसा करने लगते है, तो इस प्रशंसा से हमें यह समझ लेना चाहिए कि यह प्रशंसा उसे चूसने के लिए की जा रही है। वैसे ही तुम भी राह से ऐसे कपड़े पहनकर निकलो कोई तुम्हारी प्रशंसा करे, तो समझ लेना कि वह प्रशंसा तुम्हारी वास्तविक प्रशंसा नहीं परंतु उसके पीछे प्रशंसा करने वाले की गलत भावना छुपी होती है। जिसे तुम अभी तक समझ नहीं पाई हो और रही शो-ऑफ के ज़माने की बात, तो विद्वान और बलवान अपनी विद्वता और बल का प्रदर्शन करें तो उन्हें भविष्य में किसी प्रकार का खतरा उठाना नहीं पड़ता। श्रीमंत अपनी श्रीमंताई का प्रदर्शन करें तो हो सकता है कि उसे गुंड़ों और इन्कमटेक्स वालों का खतरा उठाना पड़े और कभी उनको लॉस भी हो सकता है, पर खोई हुई सम्पत्ति वापस मिल सकती है। लेकिन ज़माने के साथ कदम मिलाने की दृष्टि से यदि स्त्री भी • अपने रूप का प्रदर्शन करें तो उसे निश्चित ही खतरों का सामना करना पड़ेगा और इसमें जो लॉस होगा उसकी भरपाई उसके आँसू भी नहीं कर सकते। तुमने सुना ही होगा - If wealth is lost nothing is lost If health is lost, Something is lost But if character is lost everything is lost! तुम यह तो जानती ही होगी कि महाभारत में मात्र एक द्रौपदी का ही चीरहरण हुआ था। लेकिन आज की रिपोर्ट के अनुसार हर आधे घंटे में एक स्त्री का चीरहरण हो रहा है, यानि कि हर आधे घंटे में बलात्कार का केस हो रहा है। उसमें भी 80% बलात्कार की शिकार ऐसी लड़कियाँ होती है जिन्होंने कभी नज़र उठाकर किसी पुरुष को देखा भी नहीं होगा। लेकिन तुम्हारे जैसी लड़कियों की वेशभूषा से आकर्षित हुए लड़के अपनी वासना को शांत करने के लिए उन निर्दोष लड़कियों को अपना शिकार बनाते हैं। अब तुम ही बताओ डॉली इसमें गलती किसकी ? उन सीधी-सादी लड़कियों की या तुम जैसी लड़कियों की वेशभूषा की ? डॉली - - बस मोक्षा! चुप रहो। तुम्हारे इन लेक्चर का मुझ पर कोई असर होने वाला नहीं हैं। यदि हमारी सोच भी तुम्हारे जैसी होती तो आज दुनिया की हर स्त्रियाँ परदे के पीछे ही होती । स्त्रियों का कहीं नामोनिशान नहीं होता। मोक्षा! तुमने जलती अगरबत्ती और उसके धुएँ को तो देखा ही होगा। तुम इस बात से भी 137 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भली-भाँति परिचित ही हो कि चाहे कितनी ही रुकावटें आ जाएँ अगरबत्ती का धुआँ ऊपर ही जाता है। कभी नीचे की ओर नहीं जाता। बस इसी तरह यदि स्त्रियों का जीवन भी ऊपर ही उठने के लिए बना हो तो उन्हें नीचे लाने से क्या फायदा ? तुम एक नज़र डालो अपने पुराने ज़माने की स्त्रियों पर, उन्होंने भी हमारी तरह जन्म लिया लेकिन चार दीवारी के अंदर अपने जीवन को समाप्त करके चली गई। तब भी उनका कोई नामों-निशान नहीं था और आज भी उनका कोई नामों-निशान नहीं है। मैं यह नहीं चाहती कि मेरा जीवन भी घर की चार दीवारों के अंदर पूरा हो जाए। मैं तो यह चाहती हूँ कि मेरे जीते जी ही नहीं लेकिन मेरे मरने के बाद भी लोग मुझे याद करें। मोक्षा- डॉली! शायद तुम अपने इतिहास से परिचित नहीं हो। भूतकाल में हो चुकी सीता, मयणा-सुंदरी, चंदनबाला, झाँसी की रानी आदि के गुणगान 21 वीं सदी आज भी गा रही है। तुम्हें क्या लगता है कि वे मिस वर्ल्ड या मिस युनिवर्स थी। इसलिए उन्हें आज याद करते है या उन्होंने भी अपना नाम करने के लिए तुम्हारी तरह अपने रूप का प्रदर्शन किया था। डॉली! पाँच साल पहले मिस वर्ल्ड या मिस युनिवर्स कौन थी ये शायद ही तुम्हें याद होगा। लेकिन कई सदियों के पहले हो चुकी इन सतियों को आज भी लोग याद करते है तो क्या उनके रूप के कारण ? नहीं! उनके रूप के कारण नहीं बल्कि उनके चरित्र के कारण, उनके शील के कारण, उनके सत्त्व के कारण वे इतनी प्रसिद्ध हुई है। राम द्वारा कराई गई अग्नि परीक्षा में अपने शील का परिचय देने वाली सीता स्त्री ही थी। अभिमान के कारण कर्म के सिद्धान्त को ठुकराने वाले अपने पिता प्रजापाल राजा को सद्बोध कराने वाली पुत्री मयणा स्त्री ही थी। मुगल साम्राज्य के अन्याय के विरुद्ध में वीर योद्धा की तरह लड़ने वाली झाँसी की रानी स्त्री ही थी। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए, अपने शील की रक्षा करने के लिए अपने प्राणों की परवाह भी नहीं करने वाली इन जैसी अनेक महासतियों के उज्जवल जीवन चरित्र इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर आज भी अंकित है। तुम्हारे द्वारा उठाए गए रूप प्रदर्शन के इस कदम से व तुम्हारी वेशभूषा से, तुम्हारा नाम इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित हो न हो लेकिन सारे अखबारों के फ्रन्ट पेज की हेड लाईन- 'बलात्कार की शिकार बनी डॉली' के रूप में जरुर अंकित हो जाएगा। डॉली - कम ऑन मोक्षा! ये तो वक्त ही बताएगा कि भविष्य में अखबार में मेरा नाम तुमने बताया उस हेड लाईन से आता है या "Miss Universe Dolly इस हेड लाईन से आता है। इन सतियों की बात सुनकर यदि में सीधे-सादे वस्त्रों में घूमने लग जाऊँ तो मेरे कॅरियर का क्या होगा? मेरे 'मिस युनिवर्स' के सपने का क्या Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOOOD मुक्तासुक्ति मुद्रा योग मुद्रा मुक्तासुक्ति मुद्रा जिन मुद्रा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्हवण जल लगाते हुए मंदिर से बाहर निकलते हुए ओटले ऊपर बैठकर नवकार गिने Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा? मैं तो चाहती हूँ कि तुम भी मेरी तरह अपना कॅरियर बनाओ और उसकी कुछ चिंता करो। मोक्षा - आज तुम भले ही कॅरियर की बात करो लेकिन कॅरियर बनाने के चक्कर में तुम एक बहुत महत्त्वपूर्ण चीज़ भूल रही हो और वह है तुम्हारा केरेक्टर (चरित्र)। तुम्हारी तरह कॅरियर बनाने में मुझे अपने केरेक्टर (चरित्र) को भूलना पड़े तो ऐसे कॅरियर से तो घर बैठना ही अच्छा है। मेरे जीवन में कॅरियर तब ही मायने रखेगा जब उस कॅरियर में मेरा केरेक्टर (चरित्र) सलामत हो। सौ रूपये कमाने के लिए जो व्यक्ति अपने लाखों रूपये गँवा दे तो उसे तुम क्या कहोगी? मूर्ख ही ना। ठीक वैसे ही सौ रूपये की किमत वाले कॅरियर के लिए तुम लाखों रूपयों वाला महामूल्यवान अपना केरेक्टर (चरित्र) दाँव पर लगा रही हो। अपना कॅरियर बनाने के लिए जिस कॉलेज और आकर्षण को तुम महत्त्वपूर्ण मान रही हो वैसे आज की कॉलेज में क्या हो रहा है, उस बात से अनजान तुम भी नहीं हो और मैं भी नहीं। पढ़ाई के बदले मौज-मस्ती और जलसा करने की वह एक संस्था बन गई है। पुराने कॉलेजस् अनेक महान विद्वानों को जन्म देते थे, लेकिन आज-कल के कॉलेज तो व्यभिचारियों को जन्म देते हैं। आज कल की कॉलेज ज्ञान की संस्था के बदले अपने प्रेमियों को मिलने के लिए एक मिटिंग स्पॉट बन गया है। बेचारे माता-पिता पूरे विश्वास के साथ अपने बच्चों को पढ़ने के लिए कॉलेज भेजते है। लेकिन उनकी बिगड़ी हई औलादे कॉलेज के नाम पर Canteen, Libraries, Hotels, Theaters में अपनी Girl friends के साथ घूमने जाते हैं, और कॉलेज का वक्त पूरा होते ही घर पहुँच जाते हैं। इन्हीं कॉलेज की तुम बात कर रही हो ना कि जो कॅरियर बनाने में बहुत महत्त्वपूर्ण है। आजकल की कॉलेज में Character तो है ही नहीं और कॅरियर भी लगभग गायब हो चुका है। इसलिए मैं तो इतना ही कहूँगी कि अभी भी वक्त है संभल जाओ। डॉली- In short तुम इतना ही कहना चाहती हो ना कि स्त्रियों को अपना कॅरियर बनाने के विचार को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। यानि कि पुरुषों को अपना कॅरियर बनाने की कोई मनाई नहीं। उन्हें कहीं पर भी आने जाने की कोई मनाई नहीं और स्त्रियों को घर से बाहर भी नहीं निकलना। उसे अपना जीवन इस तरह व्यतीत करना कि उसके पड़ोस में भी किसी को पता न चले कि वह कब इस धरती पर आई और कब परलोक के लिए रवाना हो गई ? यानि Complete restriction? am IrightMoksha? मोक्षा - डॉली! तुम मेरी बात को समझने में थोड़ी-सी भूल कर रही हो। मैं तो तुम्हें यही समझाना चाहती हूँ कि जो वस्तु आकर्षक होने के साथ, कोमल और कमज़ोर हो उसकी देखभाल भी विशेष ध्यानपूर्वक करनी पड़ती है। तुमने काँच की प्लेट, कप, ग्लास आदि देखे तो है ही। वे दिखने में जितने आकर्षक लगते Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है साथ ही उतने कमज़ोर भी होते हैं। इन चीज़ों को सावधानी से संभालते कभी किसी कारणवश ये चीजें हाथ से नीचे गिर जाए तो इनके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। प्लास्टीक टूटा हो तो उसे जोड़ने का सॉल्युशन मिल जाता है। लकड़ी की चीजें टूटती है तो उसे जोड़ने का सॉल्युशन भी मिल जाता है। कपड़े फटते है तो उसे भी सीया जा सकता है, लेकिन आज तक काँच को जोड़ने का कोई सॉल्युशन नहीं आया। मान लो यदि कभी जुड़ भी जाए फिर भी उसके बीच में दरारें तो रहेगी ही। बस इसी काँच की तरह होता है स्त्री का शरीर कोमल-कमज़ोर और आकर्षक। एक बार उसका शील खंडन हो जाए तो फिर वह कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए स्त्रियों के लिए उपरोक्त इतनी सावधानी बरतना स्वयं के लिए अति हितावह है। डॉली - बाप रे बाप! स्त्रियाँ इस तरह नियंत्रणों में कैसे रह सकती है ? कहीं आना नहीं, कहीं जाना नहीं, किसी से बात नहीं करना, किसी से हँसी-मज़ाक नहीं करना, किसी के साथ बाहर घूमने नहीं जाना। इतने सारे नियंत्रण। मोक्षा - डॉली! तुम्हारी सोच के मूल में ही खराबी है। जिसे तुम नियंत्रण मान रही हो वह नियंत्रण नहीं बल्कि उसी में स्त्री की सुरक्षा है। आज व्यक्ति अपने जीवन को सुरक्षित रखने के लिए क्या कुछ नहीं करता? तुम ही बताओ विष्टा में हाथ डालते हुए छोटे बच्चे को रोकना, वह उस पर नियंत्रण होगा या सुरक्षा? जवाहरात को पेटी या तिजोरी में बंद करके रखा जाता है तब वह जवाहरात पर नियंत्रण होगा या उसकी सुरक्षा? अरे! नारी तो रत्नों की पेटी है। उसके पास शील रूपी एक ऐसा रत्न है जिसे चुराने के लिए गुण्डे फिर रहे हैं। जिस प्रकार जवाहरात तिजोरी में सुरक्षित है, ठीक उसी प्रकार अपने शील रूपी रत्न की सुरक्षा के लिए नारी को नियंत्रण में रहना ही अच्छा है, न कि स्वतंत्रता से बाहर घूमना और वैसे भी काँच के प्यालों की प्रदर्शनी होती है, रत्नों के पेटी की नहीं। डॉली- (ताली बजाते हुए) वाह मोक्षा वाह! कॉलेज की सारी क्लासेस् अटेंड करने के कारण और सर के सारे लेक्चर सुनने के कारण तुम भी काफी अच्छा लेक्चर देने लग गई हो। मेरे ख्याल से तुम्हें नेता बनना चाहिए था। O.K. Now Stop!! इस टॉपिक पर मुझे कोई डिस्कस नहीं करना। तुम तुम्हारी लाईफ जीओ और मैं मेरी। क्या सही है और क्या गलत ये तो वक्त ही बताएगा। चलो मैं चलती हूँ, समीर मेरा इंतजार कर रहा होगा। मोक्षा- डॉली! मैंने तुम्हारे और समीर के बारे में बहुत सारी बातें सुनी है। क्या ये सच है? डॉली- मोक्षा! अब तुम से क्या छिपाना। यह बिल्कुल सच है, समीर मुझसे बहुत प्यार करता है और मैं भी। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षा- तुम्हें थोड़ी भी शर्म नहीं आती। अपने मम्मी-पापा के बारे में तो सोचा होता? डॉली - जिन्होंने कभी मेरे बारे में नहीं सोचा। भला मैं क्यों उनके बारे में सोचु? बचपन से मैं उनके प्यार के लिए तरसती रही पर उन्होंने कभी मुझे प्यार नहीं दिया। अरे प्यार तो दूर उनके पास मेरे लिए समय भी नहीं था। जो प्यार मुझे चाहिए था वह प्यार मुझे समीर ने दिया। हर व्यक्ति को प्यार पाने का हक है। मुझे घर में कभी प्यार नहीं मिला तो मैंने बाहर ढूँढा, इसमें गलत क्या है? मोक्षा - डॉली! कम से कम अपने समाज, अपने धर्म के बारे में तो सोचो। क्या कहेंगे लोग, एक जैन धर्म की लड़की एक मुसलमान के साथ? .. डॉली- प्लीज़ मोक्षा ऐसी फालतु बातों में मुझे और बोर मत करो। Imust leave now बॉय। (इधर डॉली की हरकतों से अनजान डॉली के माता-पिता डॉली के लिए अच्छे रिश्ते ढूँढने में लग गए। सुषमा ने अपनी बेटी की शादी के लिए गहने आदि खरीदकर पहले से ही रख लिए थे। पर अफसोस की बात यह लगती है कि डॉली के माता-पिता के पास पैसे तो थे पर कमी थी वक्त की, संस्कार देने की। उन्हें नहीं पता था कि यह कमी उनकी बेटी के दिल में उनके लिए नफरत पैदा कर देगी। उनकी यह कमी उनकी बेटी को उस मोड़ पर ले जाएगी जहाँ वह लाडली बेटी अपने माता-पिता के सारे सुनहरे सपने कुचलने के लिए तैयार हो जाएगी।) (यहाँ डॉली मोक्षा की बातों को अनसुना कर समीर से मिलने चली गई। समीर उसे घर छोड़ने आया, डॉली की माँ सुषमा ने बॉलकनी से डॉली को एक लड़के के साथ घर आते देख लिया। जैसे ही डॉली घर आई वैसे ही सुषमा ने पूछा-) सुषमा- डॉली! क्या बात है ? आज इतनी देर कैसे हो गई आने में ? डॉली - मॉम! आज एक्सट्रा क्लास थी इसलिए लेट हो गया। सुषमा - झूठ मत बोलो डॉली! स्वीटी तो कब की आ चुकी है और मैंने उससे पूछा तब उसने बताया कि आज कोई एक्सट्रा क्लास नहीं थी। तो फिर तुम इतनी देर कहाँ थी। डॉली - तो मुझे अब आपको अपने एक-एक समय का हिसाब देना पड़ेगा? ऑटो न मिलने के कारण लेट हो गया। सुषमा- तुम्हें छोड़ने कौन आया था? डॉली - वो! ...वो! वो तो मेरे कॉलेज का दोस्त है, मॉम। मैंने आपको बताया ही है ना कि ऑटो न Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलने के कारण मैं ऑटो के लिए खड़ी थी और तभी समीर वहाँ से गुज़रा और मुझे लिफ्ट दे दी तो इसमें गलत ही क्या है ? मॉम लगता है आप मुझ पर कुछ ज्यादा ही शक कर रही है। (इस तरह डॉली की हरकतों से सुषमा को डॉली पर शक होने लगा। वह अब डॉली के हर कार्य पर नज़र रखने लगी कि डॉली कहाँ जाती है ? क्या करती है? क्या खाती है ? क्या पीती है ? किससे बात करती है ? किसके साथ उठती-बैठती है आदि। अगले दिन...) डॉली - मॉम! मैं कॉलेज जा रही हूँ। मुझे 500 रु.चाहिए। सुषमा- अरे ! डॉली! अभी दो दिन पहले ही तो तुम्हें 1000 रु. दिए थे, उनका क्या किया? डॉली - मॉम! क्या हो गया है आपको? अब मैं कोई बच्ची नहीं हूँ, कि आप मेरे पास से एक-एक पैसे का हिसाब मांगे। आप मुझे पैसे दे रही है कि नहीं? वर्ना मैं डेड के पास से ले लूँगी। (सुषमा आखिर क्या करती? बेटी की जिद्द के आगे उसे झुकना ही पड़ा। पर वह भूल रही थी कि इस जिद्द के बीज भी उसी ने ही बोए थे और उस तरफ) जयणा- बेटा, आज महीना खत्म हो गया, ये लो तुम्हारी पॉकेट मनी। मोक्षा - मम्मी! मेरी पिछले महीने की पॉकेट मनी भी वैसी की वैसी ही पड़ी है। कॉलेज लेने और छोड़ने पापा आते है और बाहर का मैं खाती नहीं हूँ तो खर्च किस चीज़ का। मम्मी मुझे नहीं चाहिए। जयणा- बेटा! पास में थोड़े पैसे तो होने ही चाहिए। क्या पता कब पैसों की जरुरत पड़ जाए। (इधर एक बार सुषमा ने जरुरी काम होने से डॉली को फोन किया। लेकिन डॉली का मोबाईल बंद होने से डॉली की सहेली स्वीटी को फोन किया। तब स्वीटी ने बताया कि डॉली आज कॉलेज ही नहीं आई। डॉली कॉलेज के समय के पहले ही घर आ गई। तब सुषमा ने उसे पूछा-) सुषमा- डॉली! आज तुम कहाँ गई थी? और इतनी जल्दी कैसे आ गई? डॉली- मॉम! आपको पता ही है कि मैं कॉलेज़ गई थी, और आज सिर दुःख रहा था, इसलिए जल्दी आ गई। सुषमा - (गुस्से में)डॉली! झूठ मत बोलो। मैंने तुम्हारा मोबाईल बंद होने से स्वीटी को फोन किया था और उसने बताया कि तुम कॉलेज नहीं आई। (सुषमा कुछ कहे उसके पहले ही डॉली अपने रुम में चली गई। इससे सुषमा को डॉली पर शक होने लगा और डॉली के हर काम पर ध्यान देने लगी। उस रात जब डॉली के मम्मी-पापा सो गए। तब डॉली ने रात को 11 बजे समीर को फोन किया। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉली- (एकदम धीमी आवाज़ में..) हेलो! समीर समीर - क्या हुआ डार्लिंग! आज घर पहुँचकर तुमने मुझे एक भी फोन नहीं किया? मैं कितनी टेन्शन में आ गया था पता है ? तुम्हारी तबियत तो ठीक है ना। (इतने में अचानक सुषमा की नींद खुल गई, और वह पानी पीने के लिए बाहर आई। डॉली के रुम से बोलने की आवाज़ सुनकर सुषमा ने उसके दरवाज़े पर कान लगाकर सुना, तब उसे पता चला कि डॉली किसी से फोन पर बात कर रही है। सुषमा हॉल के फोन से डॉली की बाते सुनने लगी। डॉली - (रोते हुए) समीर! प्लीज़ मुझे इस नरक से बाहर निकालो। प्लीज़ समीर प्लीज़! मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। समीर - डॉली! तुम रो क्यों रही हो? क्या हुआ? पहले चुप हो जाओ और पूरी बात बताओ। डॉली - समीर! जब से मॉम ने मुझे तुम्हारे साथ बाइक पर देखा है, तब से मॉम सी.आई.डी. की तरह मेरे हर एक काम पर नज़र रख रही है। आज मैं कॉलेज नहीं गई यह भी उनको पता चल गया। समीर - कैसे! डीयर। डॉली- आज मॉम ने मेरा मोबाईल बंद होने के कारण स्वीटी को फोन किया था। वो तो अच्छा हुआ कि स्वीटी को पता नहीं था कि मैं तुम्हारे साथ थी। किसी और को फोन किया होता तो मॉम को जरुर पता चल जाता कि हम मुवी देखने गए थे। समीर, अब और कितने दिन इस तरह छुप-छुप कर मिलना पड़ेगा। तुम जानते ही हो मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकती। समीर - जानता हूँ जान! पर क्या करूँ? अभी कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल रही है। सोचता हूँ पहले मैं खुद सेट हो जाऊँ, बाद में मैं तुम्हें वहाँ ले जाऊँगा। बस डॉली कुछ दिन और इन्तजार करो। मैं बहुत जल्दी तुम्हें अपने यहाँ ले आऊँगा। डॉली- समीर! तुम पैसों की क्यों टेन्शन करते हो ? मैं अपने घर से इतने पैसे लेकर आऊँगी कि हम बाकी की जिदंगी आराम से जीएँगे। आखिर मेरा भी पूरा हक है इस घर की संपत्ति पर। बस, तुम एक बार मुझे यहाँ से ले जाओ। फिर हम कहीं दूर जाकर सेटल हो जायेंगे। अपनी मर्जी की जिंदगी जीएँगे। समीर - पर डॉली! मैं तो यह सोच रहा था कि शादी के बाद मैं तो अपने मॉम-डेड को मना लूँगा। पर तुम्हारे मॉम-डेड ने तुम्हें एक्सेप्ट नहीं किया तो? डॉली- उसकी चिंता तुम मत करो, वो लोग मुझे अपनाए या न अपनाए मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं तो Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिर्फ तुम्हारे लिए जी रही हूँ, वर्ना कब की मर गई होती। तुम मुझे मिल जाओगे फिर मुझे किसी की भी जरुरत नहीं है, अपने मॉम-डेड की भी नहीं । समीर - ठीक है डॉली, मैं जल्दी ही कोई प्लॉन बनाकर तुम्हें ले जाऊँगा। तुम रोना मत और कल सेंटर होटल में नौ बजे । डॉली - ओ. के. बाय, आई लव यू। (डॉली की बातें सुनकर सुषमा को एक बहुत ही जोर का झटका लगा, वह आगे कुछ सुन न पाई। वह सीधे जाकर अपने पलंग पर लेट गई। सारी रात इस टेन्शन में व्यतीत हुई, पर शायद ही उसे याद होगा कि डॉली झूठ बोलने के संस्कार बचपन में उसी ने दिए थे। जिसके फलस्वरूप आज उसकी लाड़ली उसके प्रेम को, घर-बार को ठोकर मार कर अपने प्रेमी के साथ भाग जाने की प्लॉनींग बना रही थी।) को - सुबह होते ही रात की बात से अनजान डॉली कॉलेज जाने के लिए तैयार हुई। तब - सुषमा कहाँ जा रही हो डॉली ! कॉलेज या सेंटर होटल ? (डॉली घबरा गई) सुषमा - डॉली, ये समीर कौन है ? डॉली - मॉम! आपको बताया ही तो था कि समीर मेरा कॉलेज फ्रेन्ड है। यह कैसे बेतुके सवाल पूछ रही है आप ? सुषमा - अनजान मत बनो डॉली, समीर यदि तुम्हारा फ्रेन्ड है तो क्या फ्रेन्ड से ऐसी बात की जाती है जैसे तुम कल रात को कर रही थी ? मैंने कल रात की सारी बातें सुन ली है। (डॉली फिर छुपाने की कोशिश करने लगी) डॉली - कैसी बातें कर रही हो मॉम ? कल रात को तो मैं सो रही थी। आपको पता ही है, आपके सामने ही तो मैं .... (डॉली अपनी बात पूरी करे उसके पहले सुषमा ने गुस्से में आकर उसे दो थप्पड़ मार कर उसे रुम में धकेलकर कहा कि) सुषमा - आज से तुम्हारा इस घर के बाहर पैर रखना बंद। क्या यह दिन देखने के लिए तुझे इतना बड़ा किया था? थोड़ी भी शर्म नहीं आई यह सब करते हुए । (रोते हुए) क्या नहीं दिया मैंने तुझे ? तेरी हर इच्छा पूरी की। तुझे जो चाहिए था, वह लाकर दिया। तुम्हें जब भी बाहर जाना होता तब मैंने कितनी बार तुम्हारे पापा से झूठ बोला। तुम जब-जब घर पर लेट आई तब तुम्हारे पापा से मैंने डाँट खाई । तुमने 10 रूपये माँगे 144) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो मैंने 1000 रूपये दिए। क्या कुछ नहीं किया मैंने तुम्हारी खुशी के लिए? डॉली - चुप रहो मॉम! ऐसी इमोश्नल बातें करके आप मुझे बहकाने की कोशिश मत कीजिए। अब आपकी इस झूठी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं होगा। किस प्रेम की बात कर रही है आप? जब-जब मुझे आपकी जरुरत पड़ी तब-तब आप किटी-पार्टी, शॉपिंग, फ्रेन्डस में बिज़ी रहती। जब-जब मैंने आपसे प्रेम मांगा तब-तब आपने मेरे प्रेम को पैसों में तोला। मेरी इच्छा तो आपने जरुर पूरी की क्योंकि आपके पास पैसे थे पर आप और पापा कभी मुझे प्यार नहीं दे पाए। आपने मुझे बड़ा किया तो इसमें कोई एहसान नहीं किया मुझ पर। ये तो हर माँ-बाप का कर्तव्य होता है। पर आप मुझे स्नेह, प्रेम, वात्सल्य नहीं दे पाए। प्रेम तो छोड़ो आपके पास तो इतना समय भी नहीं था कि आप मुझे होम-वर्क करा सके या मेरा टिफीन भर सके। बस, जो प्यार मुझे आपसे नहीं मिला वह प्यार समीर ने मुझे दिया। दुनिया भर की सारी खुशियाँ समीर ने मुझे दी। मॉम! मुझे बिगाड़ने में पूरा हाथ आपका ही थां। याद कीजिए आप ही ने मुझे झूठ बोलना, बहाने बनाना सिखाया था नां? सुन लीजिए मॉम! दुनिया में हर व्यक्ति को प्यार पाने का अधिकार है और वह प्यार मुझे समीर ने दिया। अब अपना प्यार पाने में मुझे कोई भी नहीं रोक सकता, आप भी नहीं। (सुषमा ने गुस्से में आकर डॉली को एक और थप्पड़ मारी।) सुषमा - समीर-समीर-समीर! भूत सवार हो गया है तुझ पर समीर का। दो-चार अच्छी बातें क्या कर दी अपनी माँ के सामने बोलने लगी है तू। शर्म नहीं आई तुझे एक मुसलमान के साथ प्यार करने में। उसके घर जाकर क्या तू माँस-मच्छी खाएगी? .. डॉली - मॉम! समीर ने मेरे खातिर हमेशा-हमेशा के लिए माँस खाना छोड़ दिया है। सुषमा - ये तेरी गलतफहमी है। सिर्फ तुझे इम्प्रेस करने के लिए उसने ऐसा कहा है। ऐसा वास्तव में कभी नहीं होगा। जरुर उसकी नज़र तुम्हारी दौलत पर हैं। डॉली - रॉट अप मॉम! आप समीर के बारे में ऐसा नहीं बोल सकती। सुषमा- ठीक है डॉली! अब मैं भी देखती हूँ कैसे तुम समीर के पास जाती हो ? (ऐसा बोलकर डॉली के हाथ से मोबाईल खींचकर सुषमा ने रोते हुए उसे रुम में बंद कर दिया।) डॉली - (अंदर से) ठीक है मॉम, आप भी देख लेना। मैं शादी करूँगी तो समीर से वर्ना ज़हर खाकर मर जाऊँगी। लेकिन किसी और से शादी नहीं करूँगी। (शाम को आदित्य के घर आने के बाद सुषमा ने आदित्य को सारी बातें बताई और जल्दी से जल्दी डॉली का रिश्ता तय करने की बात की। आदित्य ने भी अब डॉली के रिश्ते के लिए बात चालु की। दुःख के पहाड़ (145 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टूट गए सुषमा और आदित्य पर। उन्हें तो अब तक यह भी नहीं पता चल रहा था कि आखिर क्या कमी रह गई उनके परवरिश में, जो डॉली ने इतना बड़ा फैसला ले लिया। डॉली के रिश्ते की बात चल रही थी। फिर भी सुषमा के दिल में एक डर बैठ गया था कि कहीं सचमुच डॉली भाग कर न चली जाए। सुषमा को एक ऐसे व्यक्ति की जरुरत थी जो उसकी समस्या का समाधान कर सके और डॉली को भी समझा सके। ऐसी कठिन परिस्थिति में सुषमा को जयणा की याद आई और वह तुरंत जयणा के पास पहुँच गई। रोते हुए उसने जयणा को सारी बात बता दी।) सुषमा - जयणा! काश, मैंने तुम्हारी बात पहले ही मान ली होती तो मुझे आज यह दिन देखना नहीं पड़ता। जयणा! अब तुम ही कुछ कर सकती हो। तुम ही मेरे घर को उजड़ने से बचा सकती हो। जयणा अब तुम ही आकर डॉली को समझाओ कि वो जो कर रही है वह गलत है। (इतना कहकर सुषमा रोने लगी।) जयणा - सुषमा! तुम रोना बंद कर दो। सब कुछ ठीक हो जाएगा। चलो मैं आकर डॉली को समझाने की कोशिश करती हूँ। (सुषमा जयणा को अपने घर ले गई। जयणा अकेली डॉली के कमरे में गई।) जयणा- कैसी हो बेटा? डॉली- ठीक हूँ आंटी! जयणा - क्या बात है डॉली! आज मुँह इतना उतरा हुआ क्यों है और आँखे तो सुजकर लाल हो गई है ऐसा लगता है कि तुम बहुत रोई हो। क्या बात है तबियत तो ठीक है ना? डॉली - आंटी! मुझे पता है कि मम्मी ने आपको सब कुछ बता दिया है। शायद इसलिए आप मुझे समझाने आई हो। लेकिन आप जाकर मम्मी से कह दीजिए कि मैं शादी करुंगी तो समीर से वर्ना घुट-घुट कर मर जाऊँगी। जयणा - कैसी बातें कर रही हो डॉली! क्या सुषमा को तुम्हारी चिंता नहीं है? वह तो कब की आश लगाए बैठी है कि वह कब तुम्हारे हाथ पीलें करें। तुम्हें किसी भी तरह की तकलीफ न हो इसलिए अच्छे से अच्छा खानदानी परिवार ढूँढ रही है तुम्हारे लिए। रानी की तरह राज करोगी तुम वहाँ और तुम समीर के बारे में क्या जानती हो ? वह कहाँ रहता है ? उसका खानदान कैसा है ? किस जाति का है ? क्या करता है? क्या खाता है ? इस तरह नादान बनकर बिना सोचे विचारे इतना बड़ा फैसला लेना उचित नहीं है और हमारा शास्त्रीय नियम यह है कि समान जाति एवं समान कुल में विवाह संबंध किया जाए। इससे लग्न ग्रंथी से जुड़ने वाले लड़के-लड़की के विचारों में काफी समानता मिल पाती है तथा उससे उत्पन्न होने वाली संतान में खून से ही (146) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने कुल के अनुरूप संस्कारों का निर्माण होता है। जिससे पारिवारिक व्यवस्था एवं सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ बनती है। लड़के-लड़की की पसंदगी माँ-बाप अपने घराने को देखते हुए करे तो ही उभयपक्ष में हित है। क्योंकि माता-पिता की पसंदगी अनुभव के स्तर पर होती हैं। जबकि लड़के-लड़की की पसंदगी रूप एवं हाव-भाव के स्तर पर होती है, अत: तुम जो सोच रही हो और जो करने जा रही हो वह गलत है। इन नियमों का उल्लघंन करके जब लड़के-लड़की स्वेच्छा से अपना जीवन निर्णय करते है तो भविष्य में बहुत विकट समस्याएँ पैदा होती हैं। इस निर्णय का अंजाम तलाक, झगड़ें, अनबन, पियर से पैसे लाने के लिए मार-पीट आदि होते है। कहीं शादी के बाद लड़की जला दी जाती हैं। कहीं झगड़े चलने लगते है तो कई जगह इस प्रकार के लव मेरेज से प्राप्त संतानों की शादी के लिए बड़े प्रश्न खड़े हो जाते है । वे न इस समाज के रहते हैं न उस समाज के । डॉली - तो आप यही कहना चाहती है ना, कि मैं समीर को भूल जाऊँ। यह नामुमकिन है। मैंने समीर की जाति या उसके पैसे से प्यार नहीं किया है। मैंने सिर्फ समीर से प्यार किया है, और वो भी मुझसे बहुत प्यार करता है। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा प्यार सच्चा है और समीर से शादी करने के बाद मैं बहुत ही खुश रहुँगी। आपने बताई ऐसी कोई तकलीफ मुझे नहीं आएगी। जयणा - डॉली ! किस प्यार की बात कर रही हो तुम? प्यार जैसी कोई चीज़ ही दुनिया में नहीं है। वास्तव में लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के बहकावें में आकर एक दूसरे के आकर्षण में उन्हें ऐसा पागलपन आ जाता है कि वे एक-दूसरे के लिए मानो जान भी देने के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ बनाव तुम्हारे साथ भी बना है। लेकिन डॉली जिंदगी मात्र दो... चार... घंटों का खेल नहीं है। इसे जीने के लिए मात्र दो व्यक्ति पर्याप्त नहीं है। लेकिन पैसे एवं समाज की भी जरुरत पड़ती है। जीवन में आने वाली कठिनाईयों की कल्पना किये बिना तुम प्रेम की गंदी गली में कूद रही हो । (इस प्रकार जयणा ने डॉली को बहुत समझाया पर डॉली मानने के लिए तैयार नहीं हुई। आखिर जयणा वहाँ से चली गई। जयणा के जाने के बाद डॉली जयणा की बातों पर सोचने के लिए मजबूर हो गई । उसे ऐसा महसूस होने लगा कि सचमुच वह जिस राह पर जा रही है वहाँ अंधेरा ही अंधेरा है। पर कुछ ही देर बाद डॉली फिर से समीर के ख्यालों में खो गई। उसे लगा कि अब वह समीर के बिना रह ही नहीं सकती, पर उसे क्या पता कि उसका यह पागलपन उसे किस राह पर खड़ा कर देगा ? इस तरफ भविष्य में डॉली सच में कहीं भाग न जाए इस डर से सुषमा और आदित्य जल्दी से जल्दी 147 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉली की शादी तय कर देना चाहते थे। एक दिन दोनों इसी विषय में शादी का रिश्ता तय करने बाहर गए हुए थे तब चान्स मिलने पर डॉली ने समीर को फोन किया।) समीर - डॉली! वॉट हेप्पन्ड? कहाँ हो तुम? कॉलेज-क्लास कहीं भी नहीं आती। तुम्हारी फ्रेण्डस् को पूछ-पूछ कर थक गया हूँ। फोन करता हूँ तो मोबाईल स्वीच ऑफ आता है। (डॉली सिर्फ रोती है।) समीर - डॉली, स्वीट हार्ट क्या हुआ, एक बार कहो तो सही। डॉली - समीर! मॉम-डेड को हमारे बारे में सब कुछ पता चल गया है। उस रात मॉम ने हमारी सारी बातें सुन ली थी। अब वे मेरी शादी के लिए रिश्ता ढूँढ़ रहे हैं। वे मेरी शादी करवा देंगे। समीर प्लीज़ कुछ करो। यदि मेरी शादी तुम्हारे साथ नहीं हुई तो मैं ज़हर खाकर मर जाऊँगी। समीर - क्या ऽऽऽ? डॉली तुम टेन्शन मत लो। मैं ये कभी नहीं होने दूंगा। मैं आज रात को 11 बजे तुम्हारे घर के नीचे तुम्हें लेने आऊँगा। तुम तैयार रहना। डॉली- ठीक है समीर! मैं तुम्हारा इन्तजार करूँगी, बॉय। (फोन रखते ही डॉली ने फटाफट अपना बेग भर लिया। साथ ही अपनी मॉम के कबर्ड से सारे पैसे तथा उसकी शादी के लिए उसकी मॉम ने जो ज्वेलरी बनाई थी वह सब भी बेग में भर ली। बाद में कबर्ड आदि पहले की तरह एकदम व्यवस्थित बंद कर दिया ताकि किसी को कुछ पता न चले। अपना बेग बाथरुम में छुपाकर डॉली अपने घर की डुप्लीकेट चाबी लेकर अपने रुम में जाकर सो गई और शाम होने का इंतजार करने लगी। इस तरफ आदित्य और सुषमा बहुत खुश थे क्योंकि डॉली का रिश्ता लगभग तय ही था। बस कल लड़का डॉली को देखने आने वाला था पर उन्हें क्या पता था कि उनकी खुशी के विरुद्ध उनकी बेटी ने उनके सारे सपने कुचलकर, एक मुसलमान के साथ भागकर जाने की पूरी प्लानींग बना ली है। प्लानींग के अनुसार समीर ठीक 11 बजे डॉली के घर के नीचे आ गया। डॉली भी पहले से तैयार ही थी। उसने रस्सी के सहारे खिड़की से अपना बेग समीर को दिया और खुद डुप्लीकेट चाबी से घर का दरवाज़ा खोलकर एक बार भी अपने मम्मी-पापा के बारे में सोचे बिना हमेशा के लिए उस घर को छोड़कर समीर के साथ भाग गई। दूसरे दिन सुबह सुषमा और आदित्य पर दु:ख का पहाड़ टूट गया। जब उन्होंने डॉली को अपने कमरे में नहीं देखा और उसका लिखा लेटर उनके हाथ में आया। लेटर में डॉली ने स्पष्टतया यह लिख दिया था किमॉम-डेड, प्लीज़ आप लोग मुझे थोड़ा भी सुखी देखना चाहते हो तो मुझे ढूँढने की कोशिश भी मत करना। 1480 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं अपनी इच्छा से समीर के साथ जा रही हूँ और उसी से शादी करूंगी। मॉम मैं अपना चेलेंज जीत गई। आप लोग यही समझना कि आपकी कोई बेटी थी ही नही, आपको ऐसा करने में ज्यादा तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी, क्योंकि वैसे भी आपने मुझे कभी भी बेटी की तरह प्यार तो दिया ही नहीं। आपने आज तक मेरे लिए जो कुछ भी थोड़ा बहुत किया उसके लिए थैक्स। डॉली "जिंदगी में हर पल तू, रहना सदा ही जिन्दा, तेरे कारण माँ-बाप को, ना होना पड़े शर्मिन्दा, यदि भाग गई घर से तो, वे जीते जी मर जाएँगे, तू उनकी बेटी है, सोच-सोच पछताएँगे।" इधर मोक्षा की सगाई 'विवेक' के साथ हो गई। विवेक के माता-पिता का नाम सुशीला और प्रशांत था। उसके दो भाई और एक बहन थी। उनके नाम विनय, वीरांश और विधि था। वीरांश सबसे छोटा होने के कारण उसे पढ़ाई के लिए विदेश भेजा था। विवेक और मोक्षा की शादी के वक्त वीरांश की पढ़ाई पूरी हो गई थी साथ ही अच्छी नौकरी भी लग गई थी। अपने भाई की शादी पर वह भारत आया हुआ था। दोनों तरफ शादी की तैयारियाँ जोर-शोर से होने लगी और देखते ही देखते शादी का दिन भी नज़दीक आ गया। अपनी बेटी मोक्षा को देने के लिए जयणा और जिनेश ने कोई कमी नहीं रखी। व्यवहारिक जीवन में उपयोगी सामग्रियों के साथ-साथ धार्मिक जीवन में उपयोग में आने वाली हर सामग्री मोक्षा को दहेज़ में दी। घर के आँगन में हँसने-खेलने वाली मोक्षा आज सदा के लिए उस घर से पराई हो गई। ससुराल जाती मोक्षा को जयणा ने अंतिम हितशिक्षा के रूप में कहा- “बेटी!आज से यह घर तुम्हारे लिए पराया बन गया है और वह तुम्हारा अपना घर है। अब उस घर में रहने वाले सास-ससुर ही तुम्हारे माता-पिता है, देवर तुम्हारा भाई है और ननंद तुम्हारी बहन है। अब से तुम उनके साथ माता-पिता और भाई-बहन जैसा व्यवहार करना। प्रेम से उन सब का दिल जीत लेना। उन्हें जैसा अच्छा लगे वैसे रहना। अपने सास-ससुर की सेवा में कभी कोई कमी मत रखना। अपने देवर और ननंद को इतना प्रेम देना कि वे तुम्हारे दोस्त बन जाए। विवेक को पसंद न हो ऐसा कोई कार्य मत करना। आज से तुम उसकी धर्मपत्नी हो इसलिए सुख-दुःख में हमेशा उसका साथ देना। यदि तुम वहाँ किसी का प्रेम न पा सकी , किसी का दिल नहीं जीत सकी, किसी को अपना न बना सकी तो समझ लेना इस घर के दरवाज़े भी तुम्हारे लिए हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो (149 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायेंगे।" मोक्षा को विदाई देते समय जयणा और जिनेश ने मोक्षा के सास-ससुर सुशीला और प्रशांत से कहा कि- “हमने अपनी बेटी को नाज़ो से पाला है। उसे अपनी पलकों पर बिठाकर बड़ा किया है यदि नादानी में इससे कोई गलती हो जाए तो बेटी समझकर माफ कर देना।" तब मोक्षा के ससुरजी ने कहा"अरे आप ये कैसी बात कर रहे हैं? आप किसी प्रकार की चिंता मत करना। अपनी बेटी से भी ज्यादा इसे प्रेम देंगे। इसे कभी अपने मायके की याद भी नहीं आने देंगे।" इस प्रकार अश्रु भरी आँखों से अपने दिल पर पत्थर रखकर जयणा और जिनेश ने मोक्षा को विदा किया। अब आगे मोक्षा और डॉली के साथ क्या होगा? क्या वे दोनों वैवाहिक जीवन में खुशी से रह पायेगी? या फिर उनके जीवन में दुःख के पहाड़ टूट पड़ेंगे ? सुख और दुःख की धूप-छाँव में क्या वे अपने माता-पिता द्वारा दिए गए संस्कारों को, उनके द्वारा दी गई परवरीश को टिका पायेगी? अपने संस्कारों का फल सुषमा को ऐसा मिला कि वह ससुराल जाती अपनी बेटी को आशीर्वाद भी नहीं दे पाई। उधर प्रेम के रंग में रंगी डॉली ने अपना सर्वस्व समीर को अर्पण कर दिया। साथ ही समीर ने भी उसे वह सारी खुशियाँ दी, जिसकी डॉली ने कल्पना भी नहीं की थी परंतु क्या यह खुशियाँ टिक पाएगी? प्रेम का यह नशा डॉली को मुस्कान देता है या सज़ा ? देखते है जैनिज़म के अगले खंड "प्रेम का नशा जिंदगी में सजा” में। इस तरफ अपने माता-पिता से प्राप्त हितशिक्षा लेकर मोक्षा ने ससुराल में पहला कदम रखा। मन में सभी को खुश करने के अरमान थे परंतु शायद भाग्य इतना प्रबल नहीं था। वह अपने ससुराल वालों के जीवन में अमृत सींचे उसके पहले ससुराल वालों ने अपने व्यवहार द्वारा उसके जीवन में ज़हर घोल दिया। उसके हाथ की मेहंदी का रंग उतरने के पहले ही उसके अरमानों का रंग उतर गया। उस पर आरोपों की बौछार शुरु हो गई थी। खैर यह बात तो स्वाभाविक ही है कि जयणा के संस्कारों की छाया में पली-बड़ी मोक्षा इस ज़हर का जवाब ज़हर से तो नहीं देगी परंतु क्या वह उस ज़हर को अमृत में बदल पाती है? यदि हाँ तो कैसे ? देखते है जैनिज़म के अगले खंड "ज़हर बना अमृत' में। 150 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगबन्धव जगरकरण अजगसत्यवाह सूच (मुझे याद करने पर तुम्हें शिवसुख मिलेगाD जगगुरु (मेरा बराबरठपयोग करें काव्य विभागा (मुझे यादकर भूल न जाना) जगनाह जगभावबियक्रवण जगचिंतामगि अप्पांडेहयसासण कर्म कमढविगासण Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाते छोटी मगर बड़े काम की ... जीवजंतु के डंख * कानखजूरे के डंख ऊपर गुड़गरम करके लगाने से दर्द कम होता है। * कानखजूरा कान में गया हो तो शक्कर का पानी कान में डालने से कानखजूरा निकल जायेगा। * किसी भी जहरीले जीवजंतु ने डंखा हो तो तुरंत ही तुलसी के पान को पिसकर उसडंख पर लगाने से जहर की असरनाबदहो जाती है। * किसी भी प्रकार के जहरीले जीवजंतु के डंख मारने के स्थान को मूत्र में भिगाकर रखने से दर्द कम होता है। * बिच्छु के डंख पर केरोसीन में फटकरी का पाउडर डालकर लगाने से पीड़ा दूर होती है। दांत की पीड़ा * हिंग को पानी में गरम करके कुल्ला करने से दांत का दर्द दूर होता है। * सुबह काले तिल पूरे चबाकर खाने से और उसके ऊपर थोड़ा पानी पीने से दांत मजबूत बनते है। * तिल के तेल को हथेली में लेकर ऊँगली से घिसने पर हिलते हुए दांत मजबूत बनते है। * नींबू का रस दांत के पेठे पर घिसने से दांत से निकलताखूनबंध होता है। * सरसों के तेल के साथ नमक डालकर दांत पर घिसने से पायोरिया दूर होता * तेल, नींबू का रस और नमक मिक्स कर दांत पर घिसने से दांत का दुःखावा, दांत का पीलापन और दांत से निकलताखूनबंध होता है। * दांत पीले पड़े हो तो पिसा हुआ नमक और खाने का सोडा मिक्स करके दांत पर घिसने से पिलाश दूर होती है। पेट का दर्द * अजवायन और नमक पिसकर उसकी फाकी लेने से पेट का दर्द दूर होता है। * शक्कर और धनिए का पाउडर पानी में डालकर पीने से पेट की जलन दूर होती है। * राई का पाउडर थोड़ी शक्कर के साथ लेने से और ऊपर पानी पीने से वायु और कफ से होने वालापेट का दुखावा दूर होता है। * सुबह उठते ही 25 ग्राम गुड खाकर 10-15 मिनिट आराम करके 2 ग्रा. अजवायन का चूर्ण खाने से पेट के कीड़े मल के साथ शीघ्र ही बाहर निकल जाते है। FLOWERS BACKGROUND BY IN Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मुझे पढ़कर ही आगे बढे सूत्रोच्चार में खास ध्यान रखने योग्य बाते? गाथा याद करने से पहले निम्न बातों का विशेषध्यान रखें - * सूत्र में पद पूर्ण होने पर अल्पविराम, संपदा पूर्ण होने पर पूर्णविराम एवं सामासिक पदों में शब्दों की स्पष्टता के लिए हाइफन दिये हुए हैं। जिस प्रकार अल्पविराम, पूर्णविराम दिये हो, उसी प्रकार अल्पविराम आदि लेते हुए सूत्र बोलें एवं जहाँ प्रश्नात्मक संबोधन आदि चिन्ह हो वहाँ बोलते समय उस टॉन का उपयोग करें। * यदि अल्पविराम के पहले भी रुकने की जरुरत पड़े तो (-) हाइफन के अनुसार शब्द बोले। लेकिन हाइफन की उपेक्षा कर कम से कम शब्द को न तोड़े। जैसे 'पुक्खरवर-दीवड्ढे', 'धायई-संडे अजंबूदीवे अ', 'संसार-दावानल-दाहनीरं', 'सारं वीरागम-जलनिधिं सादरं साधु सेवे' इसमें हाइफन () का उपयोग न रखने पर 'पुक्खरवरदी' कई लोग बोल देते है एवं 'संसार दावा' बोलकर 'नल' अलग बोलते है। तो यह गलत है, इसलिए उपयोग पूर्वक सीखें। * जं किंचि नाम तित्थं में नामतित्थं साथ में नहीं बोलना, लेकिन नाम और तित्थं अलग-अलग बोलने चाहिए। यहाँ नाम का अर्थ है वास्तव में। * नमुत्थु और णं अलग-अलग बोलने चाहिए तथा उस समय दोनों हाथ की अंजलि को जमीन पर स्पर्श करके शीष झुकाना चाहिए। * धम्मसार हीणं ऐसे नहीं बोलना, क्योंकि इसका अर्थ होता है कि भगवान धर्म के सार से रहित है। धम्म-सारहीणं (धम्म-सारही-णं) ऐसे बोलने से इसका अर्थ भगवान धर्म के सारथी है ऐसा होता है। * इसी तरह सारंवीरा... गमजलनिधिं न बोलकर, राग में गाते हुए भी सारं... वीरागम जलनिधिं बोलना चाहिए। * प्राय: तो सूत्र के सामने शब्द के अनुसार अर्थ देने की कोशिश की है लेकिन कहीं-कहीं अन्वय के अनुसार अर्थ दिया है। सूत्र पर जो नम्बर दिये गये है तदनुसार अर्थ के नम्बर देखने पर शब्दार्थ प्राप्त होंगे। तथा संलग्न अर्थ पढ़ेंगे तो आपको सहज गाथार्थ समझ में आ जाएगा। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगचिन्तामणि सूत्र भावार्थ - देववंदन एवं सुबह के प्रतिक्रमण आदि में बोले जाने वाले इस सूत्र में तीर्थंकरों की स्तुति, उनका वर्णन एवं पाँच प्राचीन तीर्थों का निर्देश, शाश्वत चैत्य (मन्दिर) एवं शाश्वत जिन प्रतिमाओं की गणना-वंदना बताई है। इस सूत्र की प्रथम दो गाथाओं की रचना गौतम स्वामी ने अष्टापद तीर्थ पर की थी। इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन करूं? इच्छं. 'जग चिन्तामणि! जग नाह! हे 'जगत के चिंतामणिरत्न! हे जगत के नाथ! 'जग गुरू!'जग रक्खण! हे जगत के गुरु! हे 'जगत के रक्षक! 'जग"बंधव!"जग"सत्थ-वाह! हे जगत के "बन्धु! (सगे!) हे "जगत के "सार्थवाह! "जग"भाव"विअक्खण! हे "जगत के "भावों के "ज्ञाता! अट्ठा-वय"संठविय "रूव! हे "अष्टापद पर्वत पर "स्थापित "बिंब वाले! "कम्मट्ठविणासण! हे "आठ कर्मों के विनाशक! "चउवीसंपि"जिण-वर! हे "चौबीस "जिनेन्द्र! जयंतु अप्पडिहय"सासण! ||1|| हे अबाधित "शासनवाले! आप जयवंत रहों ।।1।। 'कम्म-भूमिहिंकम्म-भूमिहिं पळम संघयणि, 'कर्मभूमिओं में प्रथम वज्र ऋषभ नाराच संघयण वाले 'उक्कोसय सत्तरि-सय, 'उत्कृष्ट से एक सौ सत्तर(170) 'जिण-वराण'विहरंत लडभइ, जिनेश्वर 'विचरते हुए मिलते हैं। 'नवकोडिहिं केवलीण, उत्कृष्ट 9 क्रोड "केवलज्ञानी एवं "कोडिसहस्स नव"साहु“गम्मइ। "9000 क्रोड "साधु "पाये जाते हैं। "संपइ"जिणवर "वीस, “वर्तमान में "20 "जिनवर, मुणि-"बिहुं "कोडिहिं "वरनाण; "2"क्रोड "केवलज्ञानी मुनि, समणह"कोर्डि'सहस्स दुअ, दो "हज़ार "क्रोड *साधु है। थुणिजइ “निच्चविहाणि।।2।। “नित्य प्रात: काल में (उनकी) "स्तुति की जाती है।।2।। जयउ 'सामिय! जयउ सामिय! हे 'स्वामिन् ! आपकी जय हो, आपकी जय हो। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'रिसह! सत्तुंजि, उनिंति पहु नेमिजिण। 'शत्रुजय पर ऋषभदेव! गिरनार पर हे नेमिनाथ 'प्रभु! जयउ "वीर! सच्चउरी मंडण। 'सांचोर के श्रृंगार हे "महावीर प्रभो! "भरूअच्छहिं "मुणिसुव्वय! 'भरूच में हे "मुनिसुव्रत जिन! "मुहरि "पास!"दुह"दुरिअ"खंडण।। "मथुरा में दुःख व "पाप के "नाशक हे "पार्श्वनाथ! (आपकी जय हो।) 1 अवरविदेहिं "तित्थयरा, 1 अन्य क्षेत्र एवं महाविदेह क्षेत्र में रहे हुए "तीर्थंकर 2°चिहुं "दिसि विदिसि जिं के वि चारों दिशाओं एवं विदिशाओं में जो कोई तीर्थंकर तीआणागय संपइय, हुए हैं, होने वाले हैं, व "वर्तमान में जो विद्यमान हैं, वंदु "जिण"सव्वे वि।।3। "उन सब जिनेश्वरों को मैं वंदन करता हूँ।।3।। 'सत्ताणवइ सहस्सा, 'तीन लोक में स्थित °8 करोड़(8,00,00,000) 'लक्खा छप्पन अट्ठकोडिओ; "56 °लाख (56,00,000) 'सत्तानवे हज़ार(97,000) 'बत्तीस "सय"बासियाई, 'बत्तीस "सौ (3,200) "बयासी (82) 'तिअलोए. चेइए"वंदे।।4।। शाश्वत जिन मंदिरों को "मैं वंदन करता हूँ।।4 ।। 'पनरस कोडि सयाई, तीन लोक में स्थित पन्द्रह सौ करोड़(15,00,00,00,000) 'कोडि बायाल, लक्ख अडवन्ना; 'बयालीस करोड़ (42,00,00,000) अट्ठावन लाख (58,00,000) 'छत्तीस सहस"असीइं, 'छत्तीस हज़ार (36,000) "अस्सी (80) "सासय"बिंबाई "पणमामि ।।5।। "शाश्वत "बिम्बों को मैं "प्रणाम करता हूँ।।5।। 2. जं किंचि सूत्र । भावार्थ- तीन लोक के तीर्थ एवं प्रभु प्रतिमाओं को वंदन करने का यह सूत्र है । चैत्यवंदन करते समय इसका उपयोग किया जाता है। जंकिंचिनाम'तित्थं, 'स्वर्ग, पाताल (एवं) मनुष्य 'लोक में 'सग्गे पायालि माणुसे लोए; जो कोई भी तीर्थ है; Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाई जिण बिम्बाई, "ताई "सव्वाई "वंदामि॥ वहाँ जितने जिनबिम्ब है, 1°उन 'सबको "मैं वंदन करता हूँ। भावार्थ- इस सूत्र में अरिहंत परमात्मा की 33 विशेषणों से विशिष्ट स्तवना की गई है। इसे शक्रस्तव भी कहा जाता है। 'नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं ।।1।।'नमस्कार हो; अरिहंतों को, भगवंतों को।।1।। 'आइगराणं, तित्थयराणं, 'आदिकरों को, तीर्थ के संस्थापक को, 'सयं-संबुद्धाणं।।2।। "स्वयं बोध प्राप्त किये हुए को।।2।। 'पुरिसुत्तमाणं, पुरिस सीहाणं, 'पुरुषों में उत्तम को, पुरुषों में सिंह समान को, 'पुरिस वरपुंडरीयाणं, 'पुरुषों में श्रेष्ठ कमल के समान को, 'पुरिस'वरगंधहत्थीणं।।3।। “पुरुषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान को।।3।। 'लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं 'लोक में उत्तम को, लोक के नाथ को, 'लोगहियाणं लोगपईवाणं, 'लोक में हित करने वाले को, लोक के लिए प्रदीप के समान को 'लोग पञ्जोअगराण।।4।। 'लोक में उत्कृष्ट प्रकाश करने वाले को।।4।। 'अभय दयाणं, चक्खुदयाणं 'अभय देने वाले को, नेत्रों को देने वाले को, 'मग्गदयाणं, सरणदयाणं 'मार्ग के दाता को, शरण देने वाले को, 'बोहिदयाणं।15।। 'बोधि के दाता को।।5।। 'धम्म दयाणं, धम्म देसयाणं, '(चारित्र)धर्म के दाता को, धर्म का उपदेश देने वाले को, धम्म नायगाणं, धम्म सारहीणं, धर्म के नायक को, धर्म के सारथी को, धम्म'वर चाउरंत चक्कवट्टीण।।6।। 'चारगति का नाश करने वाले, 'श्रेष्ठ धर्म चक्रवर्ती को।।6।। 'अप्पडिहय वर नाण देसण धराणं, 'अबाधित श्रेष्ठ(केवल) ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले को 'वियट्ट छउमाणं।।7।। 'छद्मस्थता से रहित को।।7।। . 'जिणाणं, जावयाणं, 'राग-द्वेष को जीते हुए, जितानेवाले, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयदयाण धम्मदयाण धम्मदेसयाणं भय चित स्वस्थता लोगुत्तमाणं चकखुदयाण धम्मनायगाणं लोगनाहाण कपाया प्रवर्तन-पालनन्दमन लोगहियाणं मगदयाणं धम्मसारहीण चितानुकुलता तपकर चतुगीता लोग-पज्जोअगराणं सरणदयाण वोहिंदयाण तत्वजिज्ञासा लोगपड़वाण तन्वंताच धम्मवर-चाउरन्त-चक्कवट्टीण सय संबुद्धाण पुरिस-वर-गधहत्थीणं A पुरिस Tha पुण्डरीआणं नित्थायराणं Salepal मारिहाण In पुरिसुत्तमाणं SILE Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाउ राजलाक 15888888888 सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, Silitil.i "शिव-अचल-अरुज-अनंत-अक्षय-अव्यांबाघ । अपुनरावृत्ति सिद्धिगति-नाम-स्थान-संप्राप्त N Hoमुत्ताण मोअगाण मोक्षनगरमा N APPPeooper Lumbini बुद्धाण बोहयाण (समस्त लोकालोक के शावत ज्ञान-दर्शन को धरनेवाले) अप्पडिहय-वर-नाणदंसण-धराणं तिण्णाण तारयाण अज्ञान समुद्र को तैरनेवाला, 29888888 389 मोह को जीतनेवाला) दासला और चंदन की ओर समान वृत्तिवाले होकर छा कर्म के आवरण दूर करनेवाले वियदृछउमाण जिणाणं जावयाणं सपड़अवद्रमाणा जेअभविरसंतिणागएकाले ककन जेअअइया सिद्धा सब्वे तिविहेण वंदामि Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तिण्णाणं, 'तारयाणं, 'अज्ञान सागर से तिरे हुए, 'तिरानेवाले, 'बुद्धाणं, बोहयाणं, 'पूर्णबोध प्राप्त किए हुए, प्राप्त कराने वाले, 'मुत्ताणं, मोअगाणं ।।8।। 'स्वयं मुक्त हुए, “मुक्त करानेवाले ।।8।। 'सव्वण्णूणं, सव्वदरिसीणं 'सर्वज्ञ सर्वदर्शी, 'सिव मयल मरूअ मणंत मक्खय शिव अचल अरोग अनंत 'अक्षय 'मव्वाबाह मपुणरावित्ति पीड़ा रहित अपुनरावृत्ति (जहाँ से पुन: आने का नहीं होता है।) "सिद्धिगइ"नामधेयं ठाणं "संपत्ताणं, ऐसे "सिद्धिगति ''नाम के "स्थान को "प्राप्त किये हुए, "नमो "जिणाणं "जिअ "भयाणं ।।७।। "भयों के "विजेता "जिनेश्वर भगवंतों को "मैं नमस्कार करता हूँ।।9।। जे अ अईया सिद्धा, 'जो (तीर्थंकरदेव) अतीत काल में सिद्ध हुए, व 'जे अभविस्संति णागएकाले; 'जो भविष्य काल में होंगे, 'संपइअ वट्टमाणा, एवं (जो) 'वर्तमान में विद्यमान हैं, 'सव्वे "तिविहेण"वंदामि ।।10। उन सब को "मन-वचन-काया से "वंदन करता हूँ।।10।। 4. जाति सूत्र भावार्थ - इस सूत्र के द्वारा तीन लोक के सभी जिनमंदिर एवं जिन प्रतिमाओं को वंदना की जाती है। 'जावंति चेइयाइं,'उड्ढे अ अहे अतिरिअलोएअ; 'ऊर्ध्व, अधो एवं ति लोक में जितने 'सव्वाइं ताई "वंदे, इह "संतो तत्थ संताई ।।1।। चैत्य हैं वहाँ रहे हुए उन सब को यहाँ "रहा हुआ''मैं वंदन करता हूँ। 5. जावंत के वि साह सूत्र मदर भावार्थ- इस सूत्र के द्वारा सभी साधु भगवंतों को वंदना की जाती है। 'जावंत के वि साहू, 'जितने भी साधु 'भरहेरवय महाविदेहे अ; भरत-ऐरावत-'महाविदेह क्षेत्र में हैं 'सव्वेसिंतेसिं "पणओ, जो त्रिदंड (मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति) से अटके हुए है। 'तिविहेण तिदंड-विरयाणं. उन सबको त्रिविध(करण-करावण-अनुमोदन) से "मैं वंदन करता हूँ। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VER 6 . नमोऽहत् सूत्र मदर नमोऽर्हत्-सिद्धा-ऽऽचार्यो-पाध्याय-सर्वसाधुभ्यः। अर्थ- अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय एवं समस्त साधु भगवंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। Ve 7 . उवासनहरं सूत्र भावार्थ- इस स्तोत्र के माध्यम से इसके रचयिता आचार्य भगवंत श्री भद्रबाहु स्वामी ने पार्श्वनाथ भगवान की स्तवना की है। इसमें अनेक मंत्र-तंत्र-यंत्रों का संकलन है। महाप्रभावक नव- स्मरण में इसका दूसरा स्थान है। इस सूत्र का स्तवन के रुप में उपयोग किया जाता है। 'उवसग्ग हरं पास, 'उपसर्ग को हरने वाला सामीप्य है जिनका, "पासं, “वंदामि कम्म घण मुक्कं; कर्म 'समूह से मुक्त, 'सर्प के विष का 'विसहर विस निन्नासं, "नाश करनेवाले, "मंगल-"कल्याण के 1°मंगल"कल्लाण"आवासं।।1।। आवास रुप "पार्श्वनाथ को "मैं वंदन करता हूँ।।1।। 'विसहर-फुल्लिंग मंतं, 'विसहरफुल्लिंग नामक मन्त्र को, 'कंठे'धारेइजो 'सया मणुओ; 'जो मनुष्य हमेशा कंठ में धारण करता है, . 'तस्स गह रोग"मारी, "उसके दुष्टग्रह, "महारोग, "महामारी, "दुदुजरा"जंति "उवसाम।।2।। "दुष्ठज्वर आदि उत्पात "उपशान्त "होते हैं।।2।। 'चिट्ठउ दूरे मंतो, (हे प्रभो!) आप का 'मन्त्र तो दूर रहो, . 'तुज्झ'पणामो वि बहुफलो 'होइ; किन्तु आपको किया गया प्रणाम भी बहुत फलदायी है। 'नर तिरिएसु वि"जीवा, (इससे) मनुष्य व तिर्यंच (गति)में भी "जीव पावंतिन"दुक्ख"दोगच्च।।3।। "दु:ख व "दुर्गति (भव-दुर्दशा) "नहीं पाता है।3।। 'तुह सम्मत्ते लद्धे, 'चिन्तामणि व कल्पवृक्ष से भी अधिक (समर्थ) 'चिंता-मणि कप्प-पायव महिए; 'आपका सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने पर 'पावंति "अविग्घेणं, 'जीव जरा-मरणरहित स्थान (मोक्ष) को 'जीवा अयरामरं ठाणं।।4।। १°बिना विघ्न सरलता से "प्राप्त कर लेता है।।4।। (156 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयवीयराय जगगुरु सुखमय भी संसार असार भवनिर्वेद उन्माण मार्गानुसारिता लोकविरुदत्याग कलह मश्करी धर्मा की हांसी निन्दा ईर्ष्या SIVUT दान बहुजनविरुद्ध का संग देशाचारोल्लंघन उद्भट भोग परसंकटतोष आदि लोकविरुद्ध कार्यों का त्याग अनीति गुरुजनपूजा आज्ञा स्वीकार पितृसेवा रामचन्द्रजा शुभेच्छा इष्टफलसिद्धि परार्थकरण पिका सोमसमाधि दाता हितोपदेश आजीविका समाधि देिवदर्शन Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभगुरुयोग गुरुवचनसेवा चारित्र सामायिक समाधिमरण दया जिनभक्ति ALA तपत शील बोधिलाभ ज्ञान जनवचन श्रद्धा चारित्र 'जैन जयति शासनम् दुःखक्षय कामशान ईर्ष्या दानता क्रोध गणधर आधि-चिंता जिनमंदिर चतुर्विध संघ प्रवचन - अभिमान दशन कर्मक्षय ज्ञान सहर्ष सहन चारित्र रवेक्षण सवा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'इअ संथुओ महायस!, बहुत 'भक्ति से भरपूर हृदय बनाकर मैंने आपकी 'भत्ति भर-निठभरेण हिअएण; 'इस प्रकार स्तुति की है, अत: हे 'महायशस्वी प्रभो! 'ता"देव!"दिल"बोहिं, 'जिनेश्वरों में चन्द्र के समान हे पार्श्व प्रभु! हे "देवाधिदेव "भवे भवे पास जिणचंद!।।5।। आप हमें "भवो-भव में "सम्यक्त्व (बोधि) "प्रदान करें।।5।। ___ 8. 'जय वीयराय' (प्रणिधान) सूत्र का भावार्थ- चैत्यवंदन के दौरान बोले जाने वाले इस सूत्र में परमात्मा की स्तवना के साथ तेरह प्रार्थना की गई है। जो आत्म शुद्धि एवं आत्म सिद्धि के लिए अनिवार्य है। सूत्र के चित्र को गौर से समझे एवं चित्र में लिखी बातों पर ध्यान देने पर तेरह प्रार्थना का रहस्य स्पष्ट होगा । सूत्र एवं अर्थ के बीच-बीच में जो नंबर दिये है - वे प्रार्थना के है। 'जय'वीयराय! जगगुरू! हे 'वीतराग! हे जगद्गुरु! आपकी जय हो। होउ'ममं तुह पभावओ भयवं। हे भगवान! आपके (अचिंत्य) "प्रभाव से 'मुझे भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिआ, (1) संसार के प्रति वैराग्य, (2) मोक्ष मार्ग पर चलने की शक्ति, "इट्ठ-फलसिद्धी।।1।। (3)"इष्ट फल की सिद्धि हो(जिससे धर्माराधना निर्विघ्न हो सके)।।1।। 'लोगविरूद्धच्चाओ, (4) लोकसंक्लेशकारी प्रवृत्ति का त्याग हो, 'गुरुजणपूआ परत्थकरणंच (5) मातापितादि पूज्यजनों की सेवा हो, (6) पर हित करण हो। 'सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा (7) सद्गुरु की प्राप्ति हो। (8) उनकी आज्ञा का पालन हो। आभवमखंडा।।2।। जब तक संसार में रहना पड़े, इन आठ वस्तु की हमेशा प्राप्ति हो।।2।। 'वारिजइ जइविनियाण- 'हे वीतराग! आपके शास्त्र में (प्रवंचन में) 'बंधणं 'वीयराय! तुह समये; निदान बंधन का यद्यपि 'निषेध किया है 'तहवि "मम "हुज"सेवा, तथापि भवो-भव में भवे भवे"तुम्ह"चलणाणं।।3।। (9)"मुझे "आपके "चरणों की "सेवा "प्राप्त हो।।3।। 'दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, (10) 'मेरे दुःख का क्षय हो, (11) कर्मों का क्षय हो। 'समाहिमरणंच बोहिलाभो। (12) समाधिमरण व (13) बोधिलाभ की प्राप्ति हो। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपञ्जउ मह एअं, तुह नाह! हे नाथ! आपको 'प्रणाम करने से मुझे ऐसी परिस्थिति "प्राप्त हो 'पणामकरणेणं ।।4।। मेरी तेरह प्रार्थना सफल हो ।।4।। 'सर्व मंगल मांगल्यं, 'सर्व मङ्गलों में मङ्गलरुप 'सर्व कल्याण कारणं। 'समस्त कल्याणों का कारण रुप 'प्रधानं 'सर्वधर्माणां, 'सर्व धर्मों में श्रेष्ठ जैनं "जयति"शासनम् ।।5।। जैन "शासन "जयवन्त है ।।5।। 2 9.अरिहंत-चेड़याणं (चैत्यस्तव) सूत्र मदरसे भावार्थ- आज दिन तक जिन चैत्यों में प्रभु की सर्व भक्तों द्वारा जितने भी वंदन, पूजन, सत्कार, सम्मानादि हुए है उन सबका अनुमोदन के द्वारा लाभ प्राप्त करने हेतुरुप काउसग्ग का उद्देश्य इस सूत्र में बताया गया है। 'अरिहंत- चेइयाणं करेमिकाउस्सग्गं . 'अरिहंत प्रभु की प्रतिमाओं का मैं कायोत्सर्ग करता हूँ . 'वंदणवत्तियाए 'प्रभु के वंदन का लाभ प्राप्त करने के लिए, 'पूअणवत्तियाए 'प्रभु के पूजन का लाभ प्राप्त करने के लिए, . 'सक्कारवत्तियाए 'सत्कार का लाभ प्राप्त करने के लिए, 'सम्माणवत्तियाए 'सम्मान का लाभ प्राप्त करने के लिए, 'बोहिलाभवत्तियाए 'बोधिलाभ सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए, 1°निरूवसग्गवत्तियाए मोक्ष प्राप्ति के लिए, 'सद्धाए मेहाए 'बढ़ती हुई श्रद्धा से, मेधा (जडता से नहीं) से 'धिईए धारणाए 'चित्त की स्वस्थता से, उपयोग दृढ़ता से अणुप्पेहाए'वड्ढमाणिए अनुप्रेक्षा (तत्त्वार्थचिंतन) से, 'ठामि'काउस्सग्गं ।।1।। मैं 'कायोत्सर्ग करता हूँ।।1।। (158) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र समाटि सुपुमा कल्लाणाकद ज्ञान IPEG प्रढम जिणिद वंदे सति . अपार ससार-समूह-पार पत्तासिक दितु सुइक्कसार । -सले जिर्णिदा सर-विद वदा कल्लाणवल्लीण विसालकदा ।।। नमि वद्धमाण कुदिदु-गोक्खीर-तुसार-वन्ना सरोजहत्था कमले निसण्णा । वाईसरी पुत्थयवग्गहत्था सहाय सा अम्ह सया पसत्था 0 BASALI कुवादी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OP ससार-दावानल-दाह-नी भावावनाम-सुरदानव-मानवेन-चूलाविलोलकमलावलिमालितानि । । नमामि वीर गिरिसारधीरम् || सपरिताऽभिनतलोकसमीहितानि काम नमामि जिनराजपदानि तानि ।।। समोहधूलीहरणे समीरम् । B000 मायारसा दारण सारसीर remonepalonadawRampaic FREE3955 965 संसारपदावानल वाजवी भवविरहवर देहि मे देवि सारम् । बोधागाध सुपदपदवीन्नीरपूराभिराम, जीवाहिंसा-विरल लहरी संगमागाहदेहम् । चूलावेल गुरुगम-मणि-संकुल दूरपार सारे वीरागमजलनिधि सादर साधु सेवे ॥ वाणी-संदोह-देहेर मायासमा JAIN पक्षवा leल्पसूत्र द्रष्टिवा જ ભગવતી પયal Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. कल्लाण कंदं सूत्र भावार्थ - चैत्यवंदन-देववंदन में बोली जाने वाली इस स्तुति की पहली गाथा पाँच भगवान की, दूसरी गाथा 24 भगवान की, तीसरी गाथा श्रुत ज्ञान की, चौथी गाथा श्रुत देवी की है। नोट- इसमें से तीनथुई वाले तीन थुई सीखें, चारथुई वाले चार थुई सीखें, इसी प्रकार संसार दावानल एवं काव्य विभाग में भी समझ लें। 'कुल्लाण कंदं पढ़म 'जिणिंद, 'कल्याण के कारणरुप प्रथम 'जिनेन्द्र (श्री ऋषभदेव को) 'संति तओ नेमिजिणं मुणिंद। श्री शान्तिनाथ को, तथा 'मुनिओं में श्रेष्ठ श्री नेमिनाथ को "पासं पयासं "सुगुणिक्क"ठाणं, 'ज्ञानप्रकाश रुप श्री "पार्श्वनाथ को,(व)'सद्गुणों के "स्थान रुप "भत्तीइ"वंदे "सिरिवद्धमाणं ।।1।। श्री "वर्धमान स्वामी.को मैं "भक्ति से "वन्दन करता हूँ।।1।। 'अपार संसार समुह पारं, 'अनन्त संसार सागर के किनारे को 'पत्ता"सिवं "दिंतु "सुइक्क "सारं। प्राप्त किए हुए , देव 'समूह से वंदनीय सव्वे "जिणिंदा सुरविंद वंदा, कल्याण की "लताओं के 'विशाल 'कल्लाण वल्लीण "कन्द रुप "ऐसे सर्व (चौवीश) "जिनेन्द्र मुझे "विसाल"कंदा।।2।। . . "विश्व में "सारभूत "मोक्ष सुख को "प्रदान करो ।।2।। 'निव्वाण मग्गे वर जाण कप्पं, 'मोक्ष मार्ग में श्रेष्ठ जहाज के समान समस्त कुवादियों के 'पणासियासेस कुवाई 'दप्पं; 'अभिमान को नष्ट करने वाले पंडितों के लिए "मयं "जिणाणं "सरणं 'बुहाणं, "शरण भूत''तीनों लोक में "श्रेष्ठ "जिनेश्वर प्रभु के "नमामि "निच्चं "तिजग"प्पहाणं ।।3।। "मत (श्रुत ज्ञान) को "मैं नित्य "नमस्कार करता हूँ।।3।। कुंदिंदु गोक्खीर तुसार वन्ना, मचकुंद, गाय का दूध, बर्फ के समान रंग वाली, 'सरोजहत्था कमले 'निसन्ना; हाथ में कमल धारण करने वाली एवं कमल पर बैठने वाली "वाएसिरी पुत्थय वग्ग"हत्था, 'पुस्तकके समूह को "हाथ में धारण करने वाली 'सरस्वती देवी! "सुहाय सा“अम्ह "सया पसत्था।।4।।"प्रशंसनीय देवी! "सदा "हमारे "सुख के लिए हों ।।4।। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Capr 11. संसार-दावानल सूत्र बदर भावार्थ- इस सूत्र में चार स्तुतियाँ है। उनमें पहली स्तुति महावीर स्वामी की है, दूसरी स्तुति सर्व जिनों की है, तीसरी स्तुति श्रुतसागर अर्थात् द्वादशाङ्गी की है और चौथी स्तुति श्रुतदेवी की है। 'संसार दावानल दाह'नीरं, 'संसार रुपी दावानल के ताप के लिए जल समान 'संमोह धूली'हरणे समीरं। 'अज्ञान स्वरुप धूल को दूर करने में पवन के समान माया रसा"दारण सार" सीरं, मायारुप "पृथ्वी का "विदारण करने में समर्थ "हल के समान "नमामि "वीरं "गिरि-सार"धीरम्।।1।। "मेरुपर्वत जैसे "स्थिर श्री महावीर स्वामी को "मैं नमस्कार करता हूँ।।1।। 'भावावनाम सुर दानव मानवेन 'भक्तिभाव से प्रणाम करते हुए सुरेन्द्र- दानवेन्द्र, नरेन्द्रों के 'चूला विलोल'कमलावलि मालितानि। 'मुकुटों में स्थित 'कमल श्रेणी से पूजित, "संपूरिता भिनत "लोक"समीहितानि, नमन करनेवाले "लोगों के "वाञ्छित को "पूर्ण करने वाले "कामं "नमामि 1 श्री जिनेश्वर देवों के "चरणों को आदरपूर्वक "जिनराज"पदानितानि ।।2।। 16मैं नमस्कार करता हूँ।।2।। 'बोधागाधं 'ज्ञान द्वारा गम्भीर 'सुपद पदवी नीर पूरा भिरामं, 'सुन्दर पदरचना रुप जल के उछलते प्रवाह से 'मनोहर, 'जीवा हिंसा विरल"लहरी- 'जीवों की अहिंसा रुप “निरन्तर "तरंगों के "संगमा“गाह "देहं। संबंध से जिनका "देह "अति गहन है। "चूला-"वेलं "गुरू गम "मणि- चूलिका रुप “ज्वार (भरती) वाले, "बड़े-बड़े 1 आलापक रुप "रत्नों से °व्याप्त, "संकुलं 'दूर पारं, "दूर है "किनारा जिसका। सारं "वीरा गम जलनिधिं ऐसे "श्रेष्ठ "महावीर स्वामी के आगमरुप "समुद्र की "सादरं साधु सेवे ।।।। "आदर सहित विधिपूर्वक उपासना करता हूँ ।।3।। 'आमूलालोल-धूली-'बहुल 'मूल पर्यन्त डोलते हुए, पराग से भरचक (160) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'परिमलाऽऽलीढ-'लोलाऽलि-माला सुगन्ध में आसक्त 'चपल 'भ्रमरों की श्रेणियों के 'झंकार शब्द से 'प्रधान व निर्मल पंखुडीवाले 'झंकाराराव-सारामलदल 'कमलागार - "भूमिनिवासे ! "कमल स्वरूप "गृहभूमि पर निवास करने वाली, "छाया " संभार "सारे ! "वरकमल "करे ! "कान्ति "पुंज से "शोभायमान, "हाथ में "सुन्दर कमलवाली " देदीप्यमान हार से मनोहर, "तारहाराभिरामे ! "वाणी" संदोह " देहे ! " भव विरह वरं " वचनों के "समूह रुप "देहवाली, "हे (श्रुत) देवी! 24 "मुझे " मोक्ष का श्रेष्ठ " वरदान दें। ||4|| 21 " देहि मे देवि ! सारं ॥14 ॥ चैत्यवंदन की विधि संपूर्ण इरियावहियं, तीन खमा., इच्छा. संदिसह भग., चैत्य. करूं ? इच्छं चैत्यवंदन, जंकिंचि, नमुत्थुणं, जावंति, खमा. जावंत, स्तवन या उवस्सग्गहरं, जय वीयराय, अरिहंत चेइयाणं, अन्नत्थ एक नवकार का काउ. प्रगट स्तुति, खमासमणा। अविधि आशातना मिच्छामि दुक्कड़म् । पोरिसि-साढ़पोरिसि का पच्चक्खाण ( उग्गए सूरे, नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साड्ढपोरिसिं मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ, चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहि वत्तिआगारेणं वोसिरई । तुमने जब धरती पर पहला श्वास लिया था, तब तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे पास थे, जब तुम्हारे माता-पिता अंतिम श्वास ले, तब तुम उनके पास रहना। 161 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N केवलज्ञान प्रश्नोत्तरी 1. गौतम स्वामी को केवलज्ञान कैसे हुआ? रोते-रोते 2. अईमुत्ता मुनि को केवलज्ञान कैसे हुआ? इरियावहि प्रतिक्रमण करते-करते. 3. भरत महाराजा को केवलज्ञान कैसे हुआ? अनित्य भावना भाते-भाते 4. बाहुबलीजी को केवलज्ञान कैसे हुआ? भाई महाराज को वंदन करने जाते-जाते 5. नागकुमार को केवलज्ञान कैसे हुआ? पुष्प पूजा करते-करते 6. अरणिका पुत्र आचार्य को केवलज्ञान कैसे हुआ? नदी उतरते-उतरते 7. मासतुष मुनि को केवलज्ञान कैसे हुआ? मासतुष मासतुष रटते-रटते 8. इलायचीकुमार को केवलज्ञान कैसे हुआ? डोरी पर नाचते-नाचते 9. मृगावती को केवलज्ञान कैसे हुआ? क्षमापना करते-करते 10. मरुदेवी माता को केवलज्ञान कैसे हुआ? एकत्व भावना भाते-भाते 11. पृथ्वीचन्द्र को केवलज्ञान कैसे हुआ? सिंहासन पर बैठे-बैठे 12. गुणसागर को केवलज्ञान कैसे हुआ? चौरी में (लग्न मण्डप में) 13. पुष्पचूला साध्वीजी को केवलज्ञान कैसे हुआ? साधु भगवंत की वैयावच्च करते-करते 140 ढंढण मुनि को केवलज्ञान कैसे हुआ? लड्डु का चूरा करते-करते (162 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं त्रिवर्षीय जैनिज़म कोर्स खण्ड 1 ४) लेखिका २ ओपन-बुक एक्जाम पेपर Total 120 Marks सा. श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. नोट : 1. नाम, पता आदि भरकर ही जवाब लिखना प्रारंभ करें। 2. सभी प्रश्नों के उत्तर, उत्तर पत्र में ही लिखें। 3. उत्तर स्वयं अपनी मेहनत से पुस्तक में से खोज निकालें। 4. अपने श्रावकपणे की रक्षा के लिए नकल मारने की चोरी के पाप से बचें। 5. जवाब साफ-सुथरे अक्षरों में लिखें तथा इसी पुस्तक की फाईनल परीक्षा के समय उत्तर पत्र के साथ संलग्न कर दें। Q. A: पूर्ण करें (Fill in the blanks):हमारी छोटी-सी असावधानी 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 4. 5. 6. 7. 8. 9. परमात्मा के अभिग्रह पूर्ण होने पर आकाश में आने वाले भव की चिंता करता है। ' बलात्कार का मुख्य कारण भवनपति का आवास स्थान ज्ञातपुत्र . का कारण बनती है। . के कारण प्राप्त नाम है। नारी . परनिंदा से . लोक में है। आसक्ति के ससुर का नाम प्रत्येक महिने में कम से कम एक बार यह बात लोक प्रसिद्ध है कि. . है । रात्री में नवकार के स्मरणपूर्वक सोये हुए व्यक्ति की . की तरह फटाफट पूजा नहीं करनी चाहिए। ॥ श्री मोहनखेड़ा तीर्थ मण्डन आदिनाथाय नमः || ॥ श्री राजेन्द्र-धन- भूपेन्द्र यतीन्द्र-विद्याचन्द्र सूरि गुरुभ्यो नमः ॥ प्रकट होते हैं। . पूजा भगवान के बायी तरफ खड़े रहकर करना चाहिए। है। . रात को नहीं खाते। Q. B. सही उत्तर चुनकर लिखें (Choose the right Answer): 1. 2. . कर्म के क्षय से मोक्ष में आत्मा स्थिर रहती है। (दर्शनावरणीय, नाम, अंतराय ) जो फूल प्रभु पूजा में उपयुक्त होते है वे होते हैं। (भव्य, पुण्यशाली, पूज्य) केवलज्ञान. ..कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है। (सब, घाति, अघाति) 3. स्वत: ही हो जाती है। 163 . बदलना चाहिए . है । (रत्नों की पेटी, काँच की प्याली, कोयले की खान) . बंधता है। (पापानुबंधी पुण्य, संसार, गोत्र कर्म) .से भी अधिक तेजस्वी होता है। (सूर्य, रत्न, अग्नि) लिए .. के प्रभु का शरीर मन को विशुद्ध रखने प्रभु भक्ति करने से . ..जरुरी है। (शुद्ध दवा, शुद्ध भोजन, शुद्ध विचार) . कर्म का नाश होता है। (मोहनीय, वेदनीय, गोत्र) बिलवासी मानव दिन के प्रचंड ताप में . 12 Marks 12 Marks . भून जाने पर रात में उनका भक्षण करेंगे। (मछलियाँ, सब्जियाँ, अनंतकाय) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 11. 12. .......... की सुवास से आत्मा सुवासित बनती है। (धूप, सम्यग्दर्शन, केसर) गौतम गणधर के बहुत समझाने पर भी .......... नहीं माने। (गोपालक, गौशालक, देवशर्मा) आर्यावर्त नारी को .......... पद प्रदान किया गया है। (बहनजी, गृहिणी, मार्डन) 12 Marks .. . Q.C.मुझे पहचानो? Who aml? 1. मुझमें अंडे का रस है। प्लीज़ मुझे अपने दांतों पर मत घिसें। 2. हम दोनों माउंट आबू की हॉस्टल में पढ़ते थे। मैं विश्व को मापने का साधन हूँ। प्रभु के विरहकाल में शासन की धुरा हम संभालते हैं। मुझे सिद्धशीला पर ही चढ़ाएँ। पूजा में कैसे वस्त्र पहनना चाहिए उसका वर्णन मेरे में किया गया है। वीर के निमित्त से मैं कर्मों से भारी बना। मुझसे अंधकार का नाश एवं ज्ञान का प्रकाश होता है। 9. मुझे बनाते समय खास ध्यान रखें कि मुझमें पानी का अंश न रह जाए। 10. मैं वीर प्रभु को पांडुकवन में ले गया। 11. हम प्रभु के अभिषेक के लिए पत्र संपुट में पानी लेने गये थे। 12. मुझे वंदन करने से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन होता है। .. 12 Marks Q.D. सही जोड़ी बनाईयें। (Match the following):केवलज्ञान होजरी का कमल 125 योजन मक्खी नमुत्थुणं कुंभोजगिरि जग चिंतामणि अग्नि बुणामां 7 राज दिव्य ध्वनि अपायपगमातिशय उल्टी पूर्व दिशा 1 योजन ऋजुवालिका कुसंस्कार नरक 10. स्नान अष्टापद 11. महाराष्ट्र योगमुद्रा 12. सूर्योदय गैस दुश्मन Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 Marks Q.E. प्रश्नों के उत्तर लिखें। Write the answers of the following. 1. किन-किन वस्तुओं में प्राणियों के हड्डियों का पाउडर आता है? 2. तीनों निसीहि के अर्थ लिखें। 3. लेश्या यानि क्या? 4. नवपद के प्रत्येक पद के गुण एवं वर्ण लिखें। 5. आज शो-ऑफ का जमाना है, इसके प्रतिकार के रूप में मोक्षा ने क्या जवाब दिया? 6. चंदनबाला के द्वारा परमात्मा के कौन से अभिग्रह पूर्ण हुए? (कोई भी चार लिखें।) 8 Marks 2. भA Q.F. संख्या में जवाब दो। Write the answers innumbers only. काजू कतली सर्दी में कितने दिन चलती है? प्रभु ने कितने प्रहर की देशना दी? 3. डॉली के कितने भाई थे? 4. कौन-सा अंक अखंड कहा जाता है? 5. नारकी जीवो को कितने रोग होते है? शुद्धि कितनी होती है? 7. वीर प्रभु ने कितने पारणे एकासणे से किए ? 8. कुल कितने लाख नरकावास है? 6. 10 Marks Q.G. नीचे की अंताक्षरी पूरी कर इस श्रावक को मंदिर पहुँचाए। उदा.: इस कोर्स की लेखिका ......श्रीजी म.सा. है। (उत्तर - मणिप्रभा) 1. पूजा का एक प्रकार क्या है? 2. इसमें जिलेटीन आता है? 3. जिससे समभाव का पोषण होता है? 4. नरक का एक द्वार .............. है। 5.. प्रभु की दीक्षा का समय आने पर कौन से देव आकर प्रभु से विनंती करते है? गुणवान स्त्री घर में ............... के समान होती है। 7. धर्म की पत्नि कौन है? 8. सुषमा अपने दोस्तों के साथ क्या करने गई थी? 9. हेमप्रभ देव को ............. देखने से जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। 10. समभूतला किस नरक की छत है? 6. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Q.. सूत्र एवं अर्थ विभाग गाथा पूर्ण करें। Complete the following. 20 Marks 1.जं किंचि .......... उवरि भासाए। 2. अवरविदेहिं .......... सव्वेवि। 3. सुविहिं च .......... वंदामि। 4. नर .......... दोगच्चं। 5. सामाइयंमि उ.......... कुज्जा। 6. सद्धाए .......... काउस्सग्गं। 7. करेमिभंते .............. न कारवेमि। 8. जे अ.......... काले। 9. अभिहया ............. मिच्छामिदुक्कडम् 10. वारिजजई ...... चलणाणं। 3tef furedi Write the meaning of the following. 8 Marks 1. संघाइया 2. आभवमखंडा 3. ठाणेणं 4. वंदेणवत्तियाए 5. सावज्जं 6. दुरिअ 7.जावणिज्जाए 8. पायालि Q.I. काव्य विभाग स्तुती पूर्ण करो। 1 Marks 1. ओ स्वामि .............. नाचना. b चैत्यवंदन पूर्ण करो। 3 Marks 1. श्रेयांस ......... सार (अथवा) आदिदेव ................ माय 2. वृषभ ............. ठाण (अथवा) नमि नेमि ......................... कंद स्तुति थोय पूर्ण करो। 3 Marks 1. श्री आदिश्वर.. .................... आय (अथवा) सवि ...................... वारी। 2. जिनवर ................ दिनता (अथवा) जिन ................. उदार स्तवन पूर्ण करो। 3 Marks 1. तारक ..................... के सही (अथवा) उर्वशी रुडी ..................... ... नाटारंभ। 2. त्रिगडे ............. जलधार (अथवा) अनादि मिथ्या ...................... धस्यो। पूर्ण करो। 3 Marks 1. अंतरना .... जाऊं छु। 2. केवल ........................................देज। विधि लिखीए। 1 Marks ___ 1. सामायिक पारवानी विधि लिखो। (166 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री मोहनखेड़ा तीर्थ मण्डन आदिनाथाय नमः ।। ॥ श्री राजेन्द्र-धन-भूपेन्द्र-यतीन्द्र-विद्याचन्द्र सूरि गुरूभ्यो नमः ।। . श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं त्रिवर्षीय जैनिज़म कोर्स खण्ड । Total 120 Marks सा. श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. - रोल नं. लेखिका र ओपन-बुक एक्जाम पेपर -उम्र विद्यार्थी का नाम विद्यार्थी का पता एवं फोन नं. मूल वतन सेंटर का नाम एवं एड्रेस Q.A: Q.B: . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ..... .................... ....... .... ܘ ܗ݁ ܝܺܢ ܟ݁ ܗ݁ ܟ݁ . . ........ ........... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . (1870 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Q.E: ***** : .............................................................................. ********* Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Q.F: 1 2 3 4 Q.G: 1 2 3 4 5. 8 7 9 6 म E FOT प्र 10 169 5. 1 6. 7. 8. 6. 7. 8. 9. 10. भा 5 2 3 4 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Q.H:(a) .......... ........ .......... ...................... .. ... Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 10. Q.H: (b) 1 2 3 Q.I: 1. 2. 3. 4. 5. 6. 1. 2. 1. 2. 1.. 2. 1.. 2. 171 5. 6. 7. 8. Page #230 --------------------------------------------------------------------------  Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TURNING DREAMS IN TO REALITY .... JAINISM IS WORKING ON FOUR LEVELS... Physical Level न डॉक्टर, न महंगी दवाईयाँ, न अस्पताल, न जहरीली सुईयाँ सुन्दर और स्वस्थ शरीर के लिए अपनाईये कुछ जैनिज़म कोर्स के Tips Mental Level प्राप्त में असंतोष और अप्राप्त की लालसा ही मानव के समस्त दु:खों का कारण है। इन्ही दु:खों को दूर करने क जरीया है। Jainism Social Level जैनिज़म कोर्स पूर्ण करने पर प्राप्त प्रमाण-पत्र से आप समाज में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकेंगे। Spiritual Level जैनिज़म कोर्स की शुभ किरणों से आप अपनी आत्मा के साथ-साथ दूसरी अनेक आत्माओं को भी प्रकाश क प्रशस्त मार्ग दिखाने में समर्थ बनेंगे। इसलिए विद्यार्थी बनने से ना डरो, ना भागो सिर्फ जागो ... जागो जैनो जागो जैनीज़म कोर्स की ओर भागो .... जैनिज़म कोर्स की परीक्षा एक परिचय *15 से 45 वर्ष के श्रावक-श्राविका इसमें भाग ले सकते है। * विद्यार्थी बनने के इच्छुक पुण्यशाली मुख्य कार्यालय से संपर्क कर अपने नजदीकि सेंटर में प्रवेश प्राप्त कर सकते * जैनिज़म कोर्स के विद्यार्थी बनने के लिए 51रु. जमा करवाकर प्रवेश फॉर्म एवं प्रथम वर्ष के कोर्स की 3 पुस्तकें प्राप्त करें। * सेमेस्टर सिस्टम के हिसाब से एक वर्ष में अर्द्धवार्षिक व वार्षिक परीक्षा जनवरी के प्रथम या द्वितीय रविवार एवं जुलाई के प्रथम या द्वितीय रविवार को होगी। * अर्द्धवार्षिक व वार्षिक परीक्षा के बाद नये विद्यार्थी को प्रवेश दिया जायेगा। * परीक्षा के समय पुस्तक के साथ संलग्न ओपनबुक उत्तर पुस्तिका को भरकर साथ लाए और मुख्य परीक्षा की उत्तर पुस्तिका के साथ संलग्न कर सेंटर में जमा करवाए। * कुल 100% मार्क्स में ओपन बुक एक्ज़ाम के 40% मार्क्स एवं मेन एक्ज़ाम के 60% मार्क्स रहेंगे। * कोर्स Joint करने वाले विद्यार्थी को प्रतिवर्ष प्रमाण पत्र एवं प्रोत्साहन पुरस्कार दिया जायेगा। इसकी विस्तृत जानकारी विद्यार्थी सिलेबस बुक से प्राप्त करें। प्रतिनिधि कैसे बने ? करण-करावण ने अनुमोदन सरिखा फल निपजाया ..... यदि आप विद्यार्थी बनकर स्वयं कोर्स न कर सके तो अपने AREA में जैनिज़म कोर्स का प्रचार कर जैनिज़म के विद्याथ बनाकर उनका प्रतिनिधित्व संभाले। प्रतिनिधि बनने के इच्छुक पुण्यशाली मुख्य कार्यालय से प्रतिनिधि केटलॉग प्राप्त कर प्रतिनिधि सारे कर्तव्य को समझ कर तद्नुसार विद्यार्थी बनावे एवं विद्यार्थी FORM&BOOK आदि प्रवेश सामग्री मुख्य कार्यालय से प्राप्त करें। हजारो AWARDS है इस आसमां के नीचे, जरा एक नजर इधर भी गौर कीजिए ..... जिस CENTER पर 50 STUDENTS परीक्षा देंगे उस प्रतिनिधि को SILVER MEDAL से, जिस CENTER पर10 STUDENTS परीक्षा देंगे उस प्रतिनिधि को GOLDEN MEDAL से, जिस CENTER पर 150 STUDENTS एवं अधिक परीक्ष देंगे। उस प्रतिनिधि को DIAMOND MEDAL से श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं द्वारा संचालित शिविरों में विशेष अतिथि के रु में बुलाकर इन MEDALS द्वारा विभूषित किया जायेगा..... । परीक्षा संबंधी समस्त जानकारी मुख्य कार्यालय : 022 65500387 से प्राप्त करें। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Title Song (राग : ये तो सच है कि भगवान है ...) प्रभु की वाणी है महा उपकारी, श्रुतज्ञान से समकित दातारी, सर्व विरति क्षपकश्रेणी देती, केवलज्ञान एवं निर्वाण दातारी, महाश्रुतज्ञान है अनंत उपकारी बुद्धि की शुद्धि करे श्रुतज्ञान, अहंकार को तोड़ देती केवलज्ञान, इन श्रुत अक्षरों को वंदु वारंवार, जैनिज़म कोर्स से हो जग कल्याण, प्रभु की वाणी है महा उपकारी ...||1|| अक्षरचेतनाकीजो है महाशक्ति, तत्त्वज्ञान से पाए सभी प्रभु की भक्ति, सरस्वतीमाताको मैं करूँ विनंती,जैनिज़म कोर्स से हो सभी की मुक्ति, प्रभु की वाणी है महा उपकारी...।।2।। तीर्थंकर प्रभु है त्रिपदी दातार, गणधर प्रभु देते है श्रुतज्ञान का सार, वाणी सरस्वती के अनंत उपकार, प्रभु के वचन है स्वरुपपद दातार, प्रभु की वाणी है महा उपकारी ... / / 3 / / पद्मनंदी बाल समर्पित परिवार की प्रार्थना मणिप्रभाश्रीजी की है यही कामना, जैनिज़म कोर्स से हो सदा विश्व-मंगल प्रभु की करुणाधारा करे मंगल-मंगल... प्रभु की वाणी है महा उपकारी ... / / 4 / / Print @ KANCHAN Rajgarh-mohankheda (M.P.) 09893005032, 09926277871