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________________ * इन तीन.लेश्या वाले जीवों में स्वार्थ की मात्रा इतनी अधिक होने से अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दूसरों के नुकसान की परवाह नहीं करते। ___ यदि कापोत लेश्या में तीव्रता आ जाए तो वह नील और कृष्ण भी बन सकती है। 4. तेनो लेथ्या- इस लेश्या वाला जीव दक्ष, कुशल कर्म करने वाला, सरल, दानी, शीलयुक्त, धर्म बुद्धि से युक्त एवं शांत होता है। * इस लेश्या में जीव जहाँ सहजता से दूसरों का परमार्थ (भलाई) होता हो तो उस मौके को नहीं छोड़ता। दृष्टान्त- स्वयं के लिए पानी पीने उठे हो, तो दूसरों को भी पानी पिलाने की भावना रखना। * पूजा में या प्रभावना के लिए भीड़ हो वहाँ धक्का-मुक्की करने के बजाय पहले दूसरों को जाने देना। * आयंबिल खाता में गरमा-गरम खम्मण की पुरस्कारी हो रही हो, अपनी बारी आए उस समय थाली में चार खम्मण ही हो, तब स्वयं न लेकर पास वाले को रखवा देना। * स्वयं के पास करोड़ रुपये हो तो दूसरों को लाख रुपया देकर धंधे पर लगवा देना। इस प्रकार यह तेजोलेश्या हुई। सार यह है कि स्वयं का विशेष नुकसान नहीं एवं दूसरों का हित हो जाए ऐसे कार्य में कभी पीछे नहीं रहना। वह तेजो लेश्या होती है। 5. पढ्न लेश्या - इस लेश्या वाला जीव प्राणियों के प्रति अनुकंपा प्रदर्शित करने वाला, स्थिर, सभी जीवों को दान देने वाला, अति कुशल, कुशाग्र बुद्धिवाला एवं ज्ञानी होता है। * इस लेश्या में जीव की परोपकार वृत्ति इतनी अधिक होती है कि दूसरों के लाभ हेतु अपना नुकसान भी हो जाए तो परवाह नहीं करते। दृष्टान्त: एक पिता के तीन पुत्र थे। तीनों की शादी होने के पश्चात् एक बार पिता ने विचार किया कि यदि मैं जीते जी तीनों को धन बांटकर दे दूँ तो झगड़े का मूल ही खत्म हो जायेगा। पिता के पास 1 करोड़ की संपत्ति थी। उन्होंने संपत्ति बांटने के लिए तीनों को बुलाया। तब छोटे पुत्र ने कहा-संपत्ति का बंटवारा मैं करूँगा। चाहे मैं उम्र में छोटा हूँ फिर भी संपत्ति का बंटवारा करने का अधिकार मेरा है। मुझे आप लोगों पर विश्वास नहीं। बड़े दोनों भाई मौन रहे। छोटे भाई ने कहा-जिसकी जितनी उम्र है उसे उतने लाख रुपये मिलने चाहिए। अर्थात् बड़े भाई को 42 लाख, बीच वाले भाई को 34 लाख और मुझे 24 लाख। यह बात सुनकर पिता एवं दोनों भाई आश्चर्य चकित रह गए। तब छोटे भाई ने कहा-यदि पिताजी बंटवारा करते तो सभी को 33-33 लाख रुपये देते। लेकिन मेरे से यह अन्याय कैसे सहन हो सकता है। बड़े भाई कितने वर्षों से धंधा
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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