SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आज तक मैंने इतनी बार चाव से रात्रिभोजन किया है तो मेरी क्या गति होगी ? परंतु साहेबजी यह छट्ठा आरा क्या होता है ? साहेबजी - जयणा ! छट्टा आरा यह कालचक्र का एक भाग है। यह कालचक्र क्या है ? इसका विवरण तो तुम्हारी तत्त्वज्ञान की क्लास में आयेगा ही । फिर भी मैं तुम्हें संक्षेप में छट्ठे आरे का वर्णन सुनाती हूँ उसकी भयंकरता को देखकर तुम अभी ही रात्रिभोजन के त्याग का नियम ले लो। जयणा ! ध्यान से सुनो। इसी कालचक्र के पांचवें आरे के अंत में अग्नि की बारीश होगी और उसमें भरत क्षेत्र के बहुत से लोग जल जायेंगे। कुछ लोग वैताढ्य पर्वत के बिल में जाकर रहेंगे। वहाँ पर मनुष्य का शरीर एक हाथ का और आयुष् 20 वर्ष का होगा। दिन में सख्त ताप, रात में भयंकर ठंडी पड़ेगी। बिलवासी मानव सूर्योदय के समय मछलियाँ और जलचरों को पकड़कर रेती में दबायेंगे। दिन के प्रचण्ड ताप में भून जाने पर रात में उसका भक्षण करेंगे। परस्पर क्लेश करने वाले, दीन-हीन, दुर्बल, रोगिष्ट, अपवित्र, नग्न, आचारहीन और माताबहन-पत्नी के प्रतिं विवेकहीन होंगे। छ: वर्ष की बालिका गर्भधारण कर बालकों को जन्म देगी। सुअर के सदृश अधिकाधिक बच्चें पैदाकर महाक्लेश का अनुभव करेगी। अतिशय दुःख के कारण अशुभ कर्म उपार्जन कर नरक-तिर्यंचादि गति प्राप्त करेंगे। इस आरे में दुःख ही दुःख है। • जिसे छट्ठे आरे में जन्म धारण न करना हो उसे जीवनभर रात्रिभोजन, कंदमूल आदि का त्याग करना अति आवश्यक है। अन्यथा रात्रिभोजन, कंदमूल आदि के कुसंस्कार वाले छट्ठे आरे में जन्म धारण करने के फल स्वरुप अनेकविध कष्ट, दुःख और यातनाओं के भागी बनेंगे। इस प्रकार कषाय की परंपरा से दुःखों की परंपरा का सर्जन होता है। जयणा - बस, साहेबजी. ! मेरी आत्मा इन सब दुःखों को सहन करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। आप मुझे इसी वक्त आजीवन रात्रिभोजन त्याग का नियम दे दीजिए। साहेबजी - जयणा ! तुम्हें धन्यवाद है, जो तुमने आज सच्चे मार्ग को अपनाने के लिए इतना बड़ा पराक्रम किया। (शिविरार्थियों को संबोधित करते हुए) आप लोग भी जयणा का उदाहरण लेकर अपने जीवन में त्याग धर्म को अपनाएँ। ( जयणा को देखकर बहुत सारी लड़कियों का भी उत्साह बढ़ा। और बहुत-सी शिविरार्थियों ने यथाशक्ति भोजन त्याग करने का नियम लिया ।) जयणा - साहेबजी.! मैंने रात्रिभोजन त्याग का नियम तो ले लिया। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं दृढ़तापूर्वक तथा शुद्ध रीति से इस नियम को पाल सकूँ। इसके लिए मुझे क्या-क्या सावधानियाँ रखनी
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy