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________________ पड़ेगी यह बताने की कृपा करें। साहेबजी- जयणा! जब हम त्याग के मार्ग पर बढ़ते हैं, तब देव-गुरु के आशिष हम पर सदा बरसते है। रात्रिभोजन त्याग के नियम में निम्न सावधानियाँ रखनी अति आवश्यक है:* रात्रिभोजन के त्यागी व्यक्ति सूर्यास्त के 5 मिनट पहले ही मुँह साफ कर ले। सूर्यास्त के अंत समय तक पानी पीने से, खाना खाने से, दवाई लेने से “लगभग वेलाए व्यालु कीधु' यह अतिचार लगता है। * नौकरी-धंधा करने वालों को भी रात्रिभोजन का त्याग करना ही चाहिए। इसलिए उन्हें शाम के भोजन का टिफिन साथ में लेकर जाना चाहिए। यह न हो सके तो आजकल हर जगह चउविहार हाऊस की व्यवस्था है। वहाँ भोजन कर अपने रात्रिभोजन त्याग के नियम को अखंड रख सकते है। रविवार के दिन तो छुट्टी होने से रात्रिभोजन का त्याग करना ही चाहिए। * रात्रिभोजन के त्यागी यदि चउविहार का पच्चक्खाण न कर सके तो तिविहार के पच्चक्खाण के द्वारा रात्रि में 10 बजे के पहले बैठकर तीन नवकार गिनकर पानी पी सकते है। जयणा - साहेबजी.! अब तो मैंने नरक में जाने का हाईवे बंद कर दिया है। अब तो मैं नरक में नहीं जाऊँगी ना? साहेबजी- नहीं जयणा! अभी तक कई रास्ते खुले है। मैंने तुम्हें बताया था कि श्रावक के Minimum level में रात्रिभोजन त्याग के साथ कंदमूल त्याग भी अति महत्त्वपूर्ण है। जयणा - साहेबजी.! कंदमूल में ऐसा क्या है कि हम उसे नहीं खा सकते ? साहेबजी- जयणा! “अहिंसा परमो धर्मः" यह हमारा श्रेष्ठ धर्म है। सबसे श्रेष्ठ अहिंसामय जीवन तो साधु जीवन ही है। परंतु विरति नहीं ग्रहण करने वाले श्रावकों के लिए कम-से-कम हिंसा हो ऐसा मार्गानुसारी जीवन प्रभु ने बताया है। खाने के संबंध में भी हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमें भोजन भी ऐसा ही बनाना चाहिए जिसमें कम-से-कम जीवों की हिंसा हो। जैसे कि सर्वप्रथम तो संपूर्ण हरी वनस्पति का त्याग करना चाहिए। लेकिन मान लो कि हरी वनस्पति के बिना न चले तो हमें ऐसी वनस्पति ही उपयोग में लेनी चाहिए जिसमें कम हिंसा हो यानि कि प्रत्येक वनस्पति। जैसे भींडी, मटर, लौकी (दूधी)आदि। लेकिन अपने स्वाद के लिए अनंत जीवों के संहार करने वाले अनंतकाय यानि आलू, प्याज़, गाजर, मूला, शकरकंद आदि जमीनकंद का त्याग तो करना ही चाहिए। एक सुई को आलू के अंदर डालकर निकालने पर उस सुई के अग्रभाग पर जो आलू का कण होता है उस छोटे से कण में असंख्य शरीर रहे हुए हैं। हर एक शरीर में अनंत जीव (आत्मा) रहे हुए हैं। यदि कोई
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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