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बोले कि हे गौतम! केवलियों की आशातना मत करो। ये पन्द्रहसौ केवली हो गये हैं। गौतम ने तुरंत ही मिथ्या दुष्कृत देकर उनसे क्षमायाचना की। और सोचने लगे कि इन महात्माओं को धन्य है कि जो मुझसे दीक्षित हुए परंतु इन्हें क्षण भर में केवलज्ञान हो गया। इस प्रकार गौतम स्वामी को चिंतित देखकर प्रभु वीर ने कहा कि “हे गौतम! तुम चिन्ता मत करो। अन्त में हम दोनों एक समान होंगे।" प्रभु का निर्वाण
एक दिन प्रभु ने अपना मोक्ष का समय नज़दीक आया हुआ जानकर जिस प्रकार अंत समय आने पर पिता अपनी माल मिलकत आदि के सारे रहस्य अपने पुत्र को बता देता है, उसी प्रकार प्रभु ने भी अंत समय आने पर लगातार 16 प्रहर तक देशना देनी प्रारंभ की और उसी बीच - 'अहो! गौतम को मेरे पर अत्यन्त स्नेह है और वहीं उनको केवलज्ञान प्राप्ति में रुकावट बन रहा है।' यह जानने वाले प्रभु वीर ने गौतम स्वामी को बुलाकर कहा- 'गौतम! यहाँ से नज़दीक के दूसरे गाँव में देवशर्मा नामक ब्राह्मण है। उसे प्रतिबोध देने जाओ।' यह सुनकर' जैसी आपकी आज्ञा' ऐसा कहकर गौतम स्वामी प्रभु को वन्दन करके वहाँ से निकल पड़े।
यहाँ कार्तिक मास की अमावस्या की पिछली रात्रि को चन्द्र स्वाति नक्षत्र में आते ही जिन्होंने छट्ठ का तप किया है वे वीरप्रभु अंतिम प्रधान नामक अध्ययन कहने लगे। उस समय आसन कम्प से प्रभु का मोक्ष समय जानकर सुर और असुर के इन्द्र परिवार सहित वहाँ आये। शक्रेन्द्र ने प्रभु को हाथ जोड़कर संभ्रम के साथ इस प्रकार कहा, 'नाथ ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए है, मोक्ष इस समय स्वाति नक्षत्र में होगा। परंतु आपकी जन्मराशि पर से भस्मग्रह संक्रांत होने वाला है, जो आपके संतानों (साधु-साध्वी) को दो हज़ार वर्ष तक बाधा उत्पन्न करेगा, इसलिये वह भस्म ग्रह आपके जन्म नक्षत्र से संक्रमित हो तब तक आप राह देखे, अर्थात् प्रसन्न होकर पल भर के लिए आप अपना आयुष्य बढ़ा लो जिससे दुष्टग्रह का उपशम हो जावे।' प्रभु बोले, 'हे शक्रेन्द्र ! आयुष्य बढ़ाने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है।' ऐसा कहकर समुच्छ्रितक्रिया नामक चौथे शुक्ल ध्यान को धारण किया और यथा समय ऋजु गति से ऊर्ध्वगमन करके मोक्ष प्राप्त किया।
इस तरफ गौतमस्वामी ने देवशर्मा को खूब समझाया, पर पत्नी पर आसक्ति होने से देवशर्मा प्रतिबोध नहीं पा सका। जब गौतम स्वामी लौट रहे थे, तब देवशर्मा लौटाने के लिए दरवाज़े पर आए। वहाँ बारसाख के साथ उनका मस्तक टकराया एवं वहीं पर देवशर्मा ने प्राण त्याग दिए। करुणार्द्र गौतमस्वामी ने ज्ञान के उपयोग से देखा तो पता चला कि पत्नी के मोह से संसार त्याग नहीं करने वाला देवशर्मा पत्नी के सिर की जूं बना है।
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