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श्री गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण के घर से वापिस लौट रहे थे, तब मार्ग में देवताओं की वार्ता से प्रभु के निर्वाण के समाचार सुने और एकदम चौंक पड़े उन्हें बड़ा दुःख हुआ । प्रभु के गुण याद करके विलाप करने लगे- 'वीर! ओ वीर !' अब मैं किसे प्रश्न पूछूंगा ? मुझे कौन उत्तर देगा ? अहो प्रभु ! आपने यह क्या किया? आपके निर्वाण समय पर मुझे क्यों दूर किया ? क्या आपको ऐसा लगा कि यह मुझसे केवलज्ञान की माँग करेगा? बालक बनकर क्या मैं आपका पीछा करता ? परंतु हाँ प्रभु! अब मैं समझा। अब तक मैंने भ्रांत होकर निरागी और निर्मोही ऐसे आप में राग और ममता रखी। ये राग और द्वेष ही संसार भ्रमण हेतु है। उनका त्याग करवाने के लिए ही आपने मेरा त्याग किया होगा। ममता रहित प्रभु पर ममता रखने की भूल मैंने की, क्योंकि मुनियों को तो ममत्व रखना युक्त नहीं हैं। इस प्रकार शुभध्यान परायण होते ही गौतम गणधर क्षपक श्रेणी पर चढ़े और तत्काल घाति कर्म का क्षय होते ही उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इस प्रकार प्रभु का निर्वाण होते ही शोकमग्न देवताओं एवं राजाओं ने मिलकर उद्विग्न चित्त से प्रभु का अग्नि संस्कार किया। जब प्रभु का पार्थिव देह विलय हो गया तब मेघकुमार देव ने जल वर्षा कर चिता शांत की। फिर सौधर्मेन्द्र तथा इशानेन्द्र ने प्रभु की ऊपरी दादाएँ तथा चमरेन्द्र एवं बलीन्द्र ने नीचली दाढ़ाएँ बहुमान पूर्वक स्वस्थान में पूजने के लिए ग्रहण की। अन्य देव-देवियों एवं मनुष्यों ने हड्डी, राख आदि जो भी हाथ आया ग्रहण किया, अंत में राख भी खत्म हो जाने पर लोगों ने वहाँ की मिट्टी लेना शुरु कर दिया। जिससे इतना बड़ा खड्डा हो गया जो आज पावापुरी में जल मन्दिर के रूप में मौजूद है।
तत्पश्चात् शोक मग्न राजाओं ने मिलकर भाव उद्योत के अभाव में रत्नों के दीप जलाए तब से कार्तिक अमावस्या के दिन दीपावली पर्व विख्यात हुआ, जो आज दिन तक चला आ रहा है। दीपावली के दिन 1 उपवास करने पर 1 करोड़ उपवास का लाभ मिलता है।
प्रभु के निर्वाण के बाद खूब जीवोत्पत्ति होने से संयम दूराराध्य जानकर कई साधु-साध्वी भगवंतों ने अनशन स्वीकार किया। गौतमस्वामीजी ने बारह वर्ष केवलज्ञान पर्याय के साथ बानवें वर्ष की उम्र में राजगृही नगरी में एक माह का अनशन करके सब कर्मों का नाश करते हुए अक्षय सुखवाले मोक्षपद को प्राप्त किया।
मात्र पढ़ने के लिए मत पढ़ना नहीं बोले हुए शब्द तुम्हारे गुलाम है: बोले हुए शब्द के तुम गुलाम हो ।
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