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________________ साहेबजी- जयणा! अब तक तो मैं तुम्हें दूसरों के दृष्टांत द्वारा समझाती आई हूँ, परंतु अब मैं तुम्हें अपना निजी अनुभव बताती हूँ। मेरी बात सुनकर शायद तुम होटल की तरफ देखना भी पसंद नहीं करोगी। ___एक 'जैन होटल' का मेनेज़र मुझे वंदन करने आया। मैंने वासक्षेप डालकर पूछा - मुझे आपसे होटल के विषय में कुछ जानकारी चाहिए। क्या आप मुझे बताएंगे? मेनेजर- क्यों नहीं साहेबजी! आप तो त्यागी-तपस्वी है। आपसे छुपाने जैसा क्या है? साहेबजी- आपके होटल में तेज़ी और मंदी कब आती है? मेनेजर - साहेबजी! वैसे तो हमारी होटल हमेशा तेजी से चलती है। क्योंकि आज किसी का जन्मदिन होता है तो कल किसी की सालगिरा तो परसो किसी का सगाई समारोह। और आपको तो पता ही होगा कि ऐसे प्रसंगों में घर पर तो खाना बनाते ही नहीं। इसलिए हमारी होटल बराबर चलती रहती है। लेकिन हाँ.... जब आपका चातुर्मास शुरु होता है। तब दो महिने हमारे यहाँ मंदी अवश्य आ जाती है। उसमें पर्युषण में तो होटल बिल्कुल बंद-सी हो जाती है। साहेबजी- क्यों ? उस समय अन्य धर्मी तो आते ही होंगे ना? मेनेजर - नहीं साहेबजी! जितनी संख्या होटल में जैनों की होती है। उतनी अन्य धर्मी की नहीं होती। 75% तो जैन ग्राहकों से ही हमारा धंधा चलता है। साहेबजी- चातुर्मास में आपको इतना अधिक नुकसान होने पर हम जैसे साधु-संतों पर आपको गुस्सा तो आता ही होगा क्योंकि हम व्याख्यान-शिविर आदि में जोर-शोर से होटल त्याग करने का उपदेश देकर आपके ग्राहकों को तोड़ते हैं। मेनेजर - बिल्कुल नहीं साहेबजी! मैं स्वयं भी जैन हूँ। कोई होटल त्याग करके धर्म का पालन करे तो मैं क्यों गलत सोचूँ। मैं तो स्वयं उसकी अनुमोदना करता हूँ। मैं स्वयं होटल के नुकसानों से भली-भांति परिचित हूँ। इसलिए मैं कभी भी होटल का खाना नहीं खाता। मेरे लिए तो प्रतिदिन घर की ताज़ी रसोई बनकर आती है। साहेबजी- अरे .... ! होटल का मालिक और होटल के नुकसान समझे तथा होटल नहीं आनेवालों की अनुमोदना करें, यह बात दिमाग में नहीं बैठती। और चातुर्मास में होटल में मंदी आ जाए उसका भी आपको कोई गम नहीं? मेनेजर - साहेबजी! मुझे तो कोई नुकसान नहीं होता। क्योंकि आप जितना त्याग का उपदेश देते हो। दो महिनें तो आपकी उन मर्यादाओं का पालन सभी कर लेते है लेकिन पर्युषण पूर्ण होते ही भूखे-भेड़िए की
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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