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________________ साहेबजी - जयणा! श्रावक के Minimum level में रात्रिभोजन एवं कंदमूल त्याग बताया है, तो इसके साथ एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि 'होटल' एक ऐसा स्थान है जहाँ व्यक्ति रात्रिभोजन एवं कंदमूल दोनों पाप साथ में करता है। अतः श्रावक के Minimum level में होटल का त्याग करना भी उतना ही आवश्यक है। ___हर एक व्यक्ति यही चाहता है कि मेरा देह निरोगी बने। लेकिन अफसोस बुद्धिमान कहलाने वाला इंसान भी शरीर से हार कर दर्द से कराहता हुआ हॉस्पीटल के चक्कर काट-काटकर अपनी जिंदगी पूरी कर रहा है। आइये, हम उन कारणों की तलाश करें कि ऐसा क्यों होता है ? गहराई से सोचने पर काफी चौंकाने वाला सत्य नज़र आ रहा है और वह है 'होटल'। 'होटल' शब्द स्वयं यह बोध देता है कि मेरे पास 'हो' कर 'टल' जाओ। यदि आप फिर भी होटल का यह उपदेश नहीं मानेंगे तो समझ लीजिए कि हॉस्पीटल के बेड एवं डॉक्टर आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। एक दिन सुबह 5 बजे म. साहेब विहार कर रहे थे। तब एक होटल वाला आदमी पत्थर धोए बिना चटनी पीसने लगा। यह देखकर साहेबजी ने उसे पूछा कि “भाई! तुम पत्थर क्यों नहीं धो रहे हो?" उसने कहा कि “चटनी के पत्थर को धोये 6 महिने हो गये है। नहीं धोने पर इसमें सड़ा जीवात उत्पन्न होता है और वह जीवात चटनी के साथ पीसने से चटनी खूब टेस्टी बनती है। यदि हम पत्थर धोकर चटनी बनाएँगे तो हमारी और घर की चटनी में कोई फर्क नहीं रहेगा। अर्थात् हमारा धंधा नहीं चलेगा। लोग हमारे यहाँ चटनी खाने के लिए ही तो आते हैं।' होटल की चटनी एवं इटली आदि का घोल एवं घोल के बर्तन कई दिनों से पड़े रहते हैं। उसमें मक्खी-मच्छर, चींटियाँ आदि मसाले के रुप में आ जाते हैं। उससे चटनी में मादकता (एल्कोहल) आती हैं। एक दिन चिंटू अपनी मम्मी-पापा के साथ होटल गया। टमाटर के जूस का ओर्डर दिया। तीन ग्लास जूस आया। चिंटू का होटल में नहीं खाने का नियम था, फिर भी मम्मी ने मारकर जूस पीने को कहा। तब उसने जैसे ही ग्लास हाथ में लेकर अंगुली से अंदर रहे हुए टमाटर का टुकड़ा लेना चाहा, तो हाथ में टमाटर के टुकड़े के बदले मुर्गी के मांस का टुकड़ा आया। होटल वाले को बुलाया। तब मालूम पड़ा कि बाहर से वे जैन शुद्ध शाकाहारी बोलते हैं। लेकिन अंदर सब मिश्र होता है। अत: होटल का त्याग करना चाहिए। जयणा - नहीं साहेबजी.! आपके इन दृष्टांतों से मैं सहमत नहीं हूँ। हम खुद ही देखते है कि हमारे सामने ही गरमागरम ताज़ा और शुद्ध खाना बनता है तो फिर हम इसका त्याग क्यों करें ?
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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