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________________ जामुन का आहार कर तृप्त हो सकते हैं तो अधिक फलों की आवश्यकता ही नहीं रहती। ऐसी दशा में फल, तोड़कर पाप करने से क्या लाभ?" यह विचार शुक्ल लेश्या गर्भित है। अन्य जीवों को लेश मात्र भी हानि न हो और स्वयं की स्वार्थ-सिद्धि भी सरलता से हो जाए। संसार में इस विचार के कई जीव होते हैं। ऐसे अध्यवसाय वाले जीव शुक्ल लेश्या वाले माने जाते हैं। इसी आशय को प्रकट करने के लिए छटे चित्र में श्वेत वस्त्रधारी पुरुष को भूमि पर पड़े जामुन चुनता हुआ दिखाया गया हैं। छ: लेश्याओं में से 'तेजो' 'पद्म' एवं 'शुक्ल' इन तीन लेश्याओं की गणना शुभ लेश्या के अन्तर्गत होती है। क्योंकि इनका गुणधर्म अन्य जीवों को अति, मध्यम, अल्प प्रमाण में अथवा पूर्ण हानि नहीं पहुँचे, इस बात की प्रायः सावधानी बरतना है। जब कि 'कापोत' 'नील' एवं 'कृष्ण' लेश्याओं का उल्लेख अशुभ लेश्या के अन्तर्गत होता है। इसका अध्यवसाय और गुणधर्म अन्य जीवों को अधिकाधिक कष्ट तथा नुकसान पहुँचाना है। उपरोक्त दृष्टांत से विश्व में रहे समस्त जीव-प्राणियों के शुभाशुभ अध्यवसायों की कोमलता एवं कठोरता का मूल्यांकन भली-भाँति कर सकते हैं। ) चोर के दृष्टांत से लेश्या की समग . एक दिन कई चोर मिलकर किसी नगर में डाका डालने गये। मार्ग में जाते हुए परस्पर बातें कर रहे थे। उनमें से एक दुष्टात्मा चोर ने कहा- जो कोई भी पुरुष, स्त्री, वृद्ध, बालक अथवा पशु नज़र आएँ। हमें उन्हें मौत के घाट उतारकर उनके पास रही धन-संपदा लूट लेनी चाहिए। चोर का यह अतिक्रूर कठोर अध्यवसाय निहायत कृष्ण लेश्या से गर्भित है। दूसरे चोर ने कहा- पशु और अन्य प्राणियों ने हमारा क्या बिगाड़ा है? उन्होंने कोई अपराध नहीं किया। अत: जिनसे हमारा वैर-विरोध है ऐसे मनुष्य मात्र की हत्या करनी चाहिए। अत: चोर का मध्यम क्रूर अध्यवसाय नील लेश्या से गर्भित है। तीसरे चोर ने कहा- हमें भूल कर भी स्त्री हत्या नहीं करनी चाहिए। क्योंकि यह कार्य सर्वत्र निंदनीय और वर्जित है। अत: मात्र पुरुष का हनन करना उचित रहेगा। कारण वह क्रूरात्मा होता है। तीसरे चोर का यह मंद क्रूर अध्यवसाय कापोत लेश्या गर्भित माना गया है। चौथे चोर ने कहा- अरे! सभी पुरुष एक समान नहीं होते। अत: जो शस्त्रधारी हो, उसी की हत्या करना उचित है। चौथे चोर का यह अध्यवसाय क्रूर अवश्य है। किन्तु उसमें कोमलता का अंश है। अत: यह तेजो लेश्या गर्भित है। पाँचवें चोर ने कहा- शस्त्रधारी पुरुष यदि कायरतावश मैदान छोड़कर भाग रहा हो तो उसकी (090
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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