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________________ जयणा - साहेबजी! श्रावक का Minimum level क्या है? साहेबजी - 'जन' शब्द के ऊपर दो मात्रा लगाने पर 'जैन' शब्द बनता है। यह दो मात्रा हमें (1) मन्दिरंपूजा (2) जिनवाणी श्रवण, इन दोनों का जीवन में आचरण तथा (1) रात्रिभोजन एवं (2) कंदमूल इन दोनों का सर्वथा त्याग करने का बोध देती है। यह श्रावक का Minimum level है। श्रावक को Minimum level में इन चार नियमों का पालन करना ही चाहिए। हम जन्म से तो जैन बन गये लेकिन अब जीवन भी ऐसा जीए कि हमें देखकर ही सामने वाले व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाए कि हम जैन है। आप किसी अन्य धर्मी के साथ धंधे का कोई व्यवहार कर रहे हो। उसी समय चउविहार का समय हो जाए और आप भोजन के लिए जल्दबाजी करे तो वह व्यक्ति तुरंत पूछेगा" क्या आप जैन है?" क्योंकि यह बात लोक-प्रसिद्ध है कि 'जैन' रात को नहीं खातें। इसी तरह आलू-प्याज़ आदि का त्याग करके भी जैन होने की छाप हम दूसरों पर लगा सकते हैं। हम जैन हैं। जैन होने का हमें गर्व हैं। जैन होने के नाते ही स्वामीवात्सल्य आदि में जाते हैं। मंदिरउपाश्रय में प्रभावना लेते हैं। यदि हम सम्यक्त्व मूल बारह व्रत धारी श्रेष्ठ श्रावक न बन सके तो कम से कम इन चारों बातों को जीवन में एवं परिवार में कड़काई से अपना कर अपने परिवार को सच्चे अर्थ में जैन बनाना चाहिए। 1. जिनमंदिर पूजा- प्रभु ने हम पर करुणा कर इस संसार-समुद्र से पार उतरने का उत्तम मार्ग बताया है। जिस प्रभु की कृपा से हमें सब-कुछ मिला है। उन प्रभु के दर्शन-पूजन कर हमें उनके प्रति कृतज्ञ भाव व्यक्त करना चाहिए। सामान्य से दया को धर्म का मूल कहा गया है। लेकिन यदि हम सूक्ष्मता से विचार करे तो दया की अपेक्षा कृतज्ञ-भाव को धर्म का मूल कहा जा सकता है। यदि हमें दया-धर्म को सिखाने वाले प्रभु के प्रति कृतज्ञ-भाव (विनय-भाव) नहीं होंगे तो दया-धर्म हमारे जीवन व्यवहार में कैसे आ सकता है? इसलिए जैन होने की पहली पहचान है मंदिर जाना, पूजा करना एवं वहाँ जाकर जिनाज्ञा को शिरोधार्य करने के रुप तिलक लगाना। मंदिर जाने वाला ही तिलक लगाता है। इसलिए तिलक यह जैन श्रावक का चिन्ह है। (जिन मंदिर एवं जिन पूजा की विस्तृत विधि आपको इस कोर्स के दूसरे खंड में सिखाई जायेगी।) 2. जिनवाणी श्रवण - गुरु भगवंत व्याख्यान द्वारा परमात्मा की वाणी सुनाते है। उसे सुनने पर हमें क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए? उसका ज्ञान होता है। एवं गुरु मुख से सुनी हुई वाणी का जीव पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जिससे उसे आचरण में लाने के परिणाम पैदा होते है। अत: जैन होने की दूसरी पहचान है जिनवाणी श्रवण करना। (जैनिज़म कोर्स भी जिनवाणी श्रवण का ही एक प्रकार है। इसमें भी गुरु
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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