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दर्शन करने जाना आदि। लेकिन सुषमा तो पर्वतिथियों के दिन भी किसी प्रकार का त्याग नहीं करती थी। उसके जीवन में धर्म का नामोनिशान नहीं था। एक दिन जयणा मंदिर गई। वहाँ उसने “युवति संस्कार शिविर" की पत्रिका देखी। पत्रिका देखकर उसने सोचा कि “ मेरे जीवन में धर्म नहीं है और ना ही उसका ज्ञान। अत: इस शिविर के माध्यम से मुझे थोड़ा बहुत ज्ञान मिलेगा। और वैसे भी अभी 10 दिन की छुट्टियाँ है।" ऐसा सोचकर उसे शिविर में जाने की भावना हुई। उसने यह बात अपनी खास सहेली सुषमा को बताई। जयणा - सुषमा! इन दस दिन की छुट्टियों में कहाँ जाने का प्लॉन है ? सुषमा - जयणा! अभी तक कुछ सोचा नहीं है। तुम्हीं बताओ, कहाँ चले माथेरान या गोवा? जयणा - नहीं सुषमा! इस बार हम घूमने नहीं जायेंगे। इस बार हम शिविर में जायेंगे। अभी-अभी मैं मंदिर में पत्रिका पढ़कर आई हूँ। बहुत ही अच्छा “युवति संस्कार शिविर" लग रहा है। सुषमा - क्या? शिविर! दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा। जयणा - चलो ना सुषमा! 10 दिन की ही तो बात है। हर बार घूमने ही तो जाते हैं। इस बार कुछ नया करेंगे। घूमना भी हो जायेगा और शिविर भी अटेण्ड हो जायेगी। सुषमा - जयणा! तुम जितना सोचती हो उतना आसान नहीं है। कॉलेज में एक भी लेक्चर अटेंड नहीं करने वाले हम 10 दिन वहाँ कैसे टिक पायेंगे ? मैंने तो सुना है कि शिविर में पाँच बजे उठाते है और एक भी क्लास बंक नहीं मार सकते। नहीं बाबा! तुम्हें जाना हो तो जाओ। मैं और रेशमा तो माथेरान जाने का सोच रहे हैं। जयणा - ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी। (जयणा ने अपनी 4-5 सहेलियों को फोन किया और सब शिविर में आने के लिए तैयार हो गई। सुषमा भी अपनी कुछ सहेलियों के साथ माथेरान घूमने चली गई।) (इधर एक दिन शिविर में क्लास के दौरान -) साहेबजी - साधु यदि रत्नत्रयी की उत्कृष्ट आराधना न भी करें तो भी श्रावकों की ऐसी धारणा होती है कि उन्हें कम से कम (Minimum level में) दो टाईम प्रतिक्रमण करना, पडिलेहन करना, टी.वी. नहीं देखना, गाड़ी में नहीं घूमना, गरम पानी पीना आदि का पालन तो करना ही चाहिए। साधु यदि इतना भी न करें तो उन्हें साधु मानने या हाथ जोड़ने का श्रावक को मन भी नहीं होता। अब आप ये बताईए कि प्रभु का संघ द्विविध या चतुर्विध? यदि साधु-साध्वी को Minimum level का पालन करना ही चाहिए तो श्रावक-श्राविका को भी Minimum level का पालन तो करना ही चाहिए ना ? तभी उन्हें जैन के रुप में मान सकते हैं।