SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी छोड़ दिये और प्रभु के चरणों में नमस्कार करके बोले- 'हे स्वामी! ऊँचे वृक्ष का नाप लेते वामन पुरुष की भाँति मैं दुर्बुद्धि आपकी परीक्षा लेने यहाँ आया था। हे नाथ! मैं दोषयुक्त हूँ, फिर भी आपने मुझे भली प्रकार से प्रतिबोध दिया है। तो अब संसार से विरक्त बने हुए मुझे दीक्षा दीजिए।' प्रभु ने अपने प्रथम गणधर बनेंगे ऐसा जानकर उनको पाँच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा दी। प्रभु ने पाँचसौ शिष्यों के साथ इन्द्रभूति को देवताओं द्वारा अर्पण किए हुए धर्म के उपकरण प्रदान किये। इन्द्रभूति की तरह अग्निभूति आदि अन्य दस द्विजों ने भी बारी-बारी से आकर अपना संशय प्रभु महावीर से दूर किया, तथा अपने शिष्यों के साथ दीक्षा ग्रहण की। शासन स्थापना इस प्रकार क्रमश: 11 ब्राह्मणों ने प्रभु के पास दीक्षा ली। एकादश नूतन दीक्षित मुनि प्रभु को प्रदक्षिणा लगाकर पूछते है “भयवं किं तत्तं ?" प्रभु कहते. है "उप्पन्नेई वा” अर्थात् जगत में सब पदार्थ उत्पन्न होते हैं। यह सुनकर मुनियों को संशय होता है कि पदार्थ यदि उत्पन्न ही होते रहे तो पूरा जगत भर जायेगा। अत: पुन: प्रदक्षिणा लगाकर प्रभु से पूछते है “भयवं किं तत्तं?" प्रभु कहते है “विगमेई वा" अर्थात् जगत के सब पदार्थ नाश होते हैं। यह सुनकर उन्हें पुन: संदेह हुआ कि यदि सब नाश हो जायेंगे तो बचेगा क्या? तब पुनः तीसरी प्रदक्षिणा लगाकर प्रभु से पूछते है “भयवं किं तत्तं?" प्रभु कहते है “धुवेई वा" अर्थात् जगत के सभी पदार्थ स्थिर है। इस प्रकार प्रभु ने सभी मुनियों को त्रिपदी प्रदान की। इससे उन्हें स्याद्वाद गर्भित सर्व पदार्थों का ज्ञान हुआ। .. तभी इन्द्र महाराजा सुगंधित वासक्षेप से भरे थाल को लेकर उपस्थित हुए।प्रभु ने सभी के मस्तक पर वासक्षेप कर सबको गणधर पद पर स्थापित किया। त्रिपदी दान एवं वासक्षेप के प्रभाव से सभी गणधरों को उसी समय कोष्टक लब्धि प्रगट हुई। जिसके कारण एक अंतर्मुहूर्त में 11 गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की। पुन: प्रभु ने वासक्षेप कर उनकी द्वादशांगी की रचना को सही प्रमाणित किया। उसी समय वहाँ उपस्थित चंदनबाला आदि ने प्रभु से प्रव्रज्या ग्रहण कर साध्वी पद पाया। आनंदकामदेव आदि एवं सुलसा आदि भव्यात्माओं ने अपने आप को संयम ग्रहण करने में असमर्थ समझकर प्रभु से सम्यक्त्व सहित बारह व्रत ग्रहण किए। प्रभु ने उन्हें भी वासक्षेप कर श्रावक-श्राविका का बिरुद दिया। इस प्रकार देश विरति धर्म की स्थापना की। वहाँ मातंग यक्ष एवं सिद्धायिका देवी ने भी प्रभु से शासन सेवा की मांग की। प्रभु ने उन्हें अपने शासन रक्षक देव-देवी के रूप में अधिष्ठित किया। तत्पश्चात् इन्द्राणियों ने आनंद- विभोर हो प्रभु के पोखणे लिए। इस प्रकार वैशाख सुद 11 के दिन प्रभु ने चतुर्विध संघ रूपी शासन की स्थापना की।
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy