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________________ एक बार वीर प्रभु विहार करते करते चम्पानगरी पधारें। वहाँ शाल नामक राजा तथा महाशाल नामक युवराज प्रभु को वन्दन करने आयें। प्रभु की देशना सुनकर दोनों ने प्रतिबोध पाया। उन्होंने अपने भानजे गांगली का राज्याभिषेक किया और दोनों ने वीर प्रभु के पास दीक्षा लेकर वहाँ से विहार किया। कुछ समय बाद पुनः प्रभु की आज्ञा लेकर गौतम शाल और महाशाल साधु के साथ चम्पानगरी गयें। वहाँ गांगली राजा ने भक्ति से गौतम गणधर को वंदन किया । वहाँ देवताओं के रचे सुवर्ण कमल पर बैठकर चतुर्ज्ञानी गौतम स्वामी ने धर्मदेशना दी। वह सुनकर गांगली राजा ने प्रतिबोध पाया और अपने पुत्र को राज्य सौंपकर अपने माता-पिता सहित गौतम स्वामी के पास दीक्षा ली। ये तीन नये मुनि और शाल, महाशाल ये पाँच जन गुरु गौतम स्वामी के पीछे-पीछे प्रभु महावीर को वंदन करने जा रहे थे। मार्ग में शुभ भावना से उन पाँचों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। सर्वज्ञ प्रभु महावीर स्वामी जहाँ बिराजमान थे वहाँ आकर प्रभु को प्रदक्षिणा दी। तीर्थंकर को नमन कर वे पाँचों केवली की पर्षदा की ओर चले। तब गौतम ने कहा, 'केवली की पर्षदा में मत जाओ' इस पर प्रभु बोले, गौतम! केवली की आशातना मत करो।' तत्काल गौतम ने मिथ्या दुष्कृत देकर उन पाँचों से क्षमापना की। इसके बाद गौतम स्वामीजी खेद पाकर सोचने लगे कि क्या मुझे केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होगा ? क्या मैं इस भव में सिद्ध नहीं बनूँगा? ऐसा सोचते-सोचते प्रभु ने देशना में एक बार कहा हुआ याद आया कि 'जो अष्टापद पर अपनी लब्धि से जाकर वहाँ स्थित जिनेश्वर को वन्दन करके एक रात्रि वहीं रहे, वह उसी भव में सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। ‘ऐसा याद आते ही गौतम स्वामी ने तत्काल अष्टापद पर स्थित जिनबिंबों के दर्शन करने जाने की इच्छा प्रभु के सामने व्यक्त की। वहाँ भविष्य में तापसों को प्रतिबोध होने वाला है। यह जानकर प्रभु ने गौतम स्वामीजी को अष्टापद तीर्थ पर तीर्थंकरों की वंदना के लिए जाने की आज्ञा दी। इससे गौतम बड़े हर्षित हुए और चारणलब्धि से वायु समान वेग से क्षण भर में अष्टापद के समीप आ पहुँचे। इसी अरसे में कौडिन्य, दत्त और सेवाल आदि पन्द्रहसौ तपस्वी अष्टापद को मोक्ष का कारण जानकर उस गिरि पर चढ़ने आये थे। उनमें से पाँचसौ तपस्वी उपवास तप करके आर्द्र कंदादि का पारणा करने पर भी अष्टापद की प्रथम सीढ़ी तक ही पहुँच पाये थे । दूसरे पाँचसौ तापस छ? तप करके सूके कंदादि का पारणा करके दूसरी सीढ़ी तक पहुंचे थे। तीसरे पाँच सौ तापस अट्ठम का तप करके सूकी काई का पारणा करके तीसरी सीढ़ी तक पहुँचे थे। वहाँ से ऊँचे चढ़ने के लिए वे अशक्त थे।उन तीनों के समूह प्रथम, द्वितीय और तृतीय सीढ़ी पहुँच पाए थे। इतने में सुवर्ण समान कांतिवाले और पुष्ट आकृति वाले गौतम को आते हुए उन्होंने देखा। उनको देखकर वे आपस में बात करने लगे कि हम इतने कृश हो चुके हैं फिर भी यहाँ से आगे चढ़ नहीं सकते हैं, तो यह स्थूल शरीर वाला मुनि कैसे चढ़ सकेगा ? इस तरह वे बातचीत कर रहे थे कि 065
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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