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________________ मरणान्तिक उपसर्ग दूर करने के लिए सिद्धार्थ नामक देव को भगवान के पास रखकर इन्द्र अपने स्थान पर चले गये। (2)प्रभु की समता दीक्षा के अवसर पर पारिवारिक जनों ने उनका अभिषेक किया था। दिव्य गोशीर्ष चंदन और सुगंधित चूर्ण से उनके शरीर को सुवासित किया था। इससे उनके शरीर से प्रस्फुटित सुगंध से आकर्षित हो भौरे कमलकोशों को छोड़कर उनके शरीर पर मंडराने लगे। वे भगवान के शरीर पर बैठे, उन्हें पराग नहीं मिला। वे उड़कर चले गए, परिमल से आकृष्ट होकर फिर आए और पराग न मिलने पर रुष्ट हो भगवान को काटने लगे। प्रभु महावीर ने उन्हें समता से सहन किया। भगवान कुमारग्राम में विचरण कर रहे थे। एक दिन कुछ युवक सुगंध से आकृष्ट हो भगवान के पास आए और प्रार्थना की- राजकुमार ! आपने जिस गंधचूर्ण का प्रयोग किया है, उसके निर्माण की विधि हमें भी बताईए। भगवान ने इसका उत्तर नहीं दिया। वे क्रुद्ध हो गालियाँ देने लग गए। ... भगवान के सौन्दर्य से आकर्षित हो एक बार रात के समय तीन सुन्दर स्त्रियाँ वहाँ आयी। भगवान से रति-प्रणय की विविध चेष्टाएँ की। अपना समग्र न्यौछावर करने को तैयार हो गई, पर प्रभु महावीर पर उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ। (उ)पैरों पर खीर पकाई भगवान प्राय: ध्यान में लीन रहते थे। एक बार जंगल में वे ध्यान कर रहे थे। वहाँ एक थका और भूखा पथिक आया। खाना बनाने के लिए इधर-उधर चूल्हा ढूँढ रहा था, पर उसे एक भी पत्थर नहीं मिला। तभी उसे भगवान दिखाई दिये। जिनके कुछ अँगुल की दूरी पर फैले हुए पैर चूल्हे के आकार में प्रतीत हो रहे थे। पथिक ने पैरों के बीच आग प्रज्ज्वलित की और खीर पकाई। भगवान के पैर झुलस गए, किन्तु उनकी समाधि में कोई फर्क नहीं पड़ा, वे ज्यों के त्यों खड़े रहे। अहो ! धन्य है प्रभु की पूर्णिमा के चन्द्र सम समभाव सौम्यता को ... (4)चंडकौशिक सर्प का उपसर्ग और उसे प्रतिबोध एक बार उत्तरवाचाल सन्निवेश में जाते समय भगवान मार्ग में वर्द्धमान गाँव पहुँचे। वहाँ से सुवर्णवालुका और रौप्यवालुका ये दो नदियाँ पार कर आगे बढ़े। आगे दो मार्ग थे। एक वक्रमार्ग और दूसरा सरल मार्ग। लोगों ने उन्हें बताया कि सरल मार्ग में सर्प का भय है, इसलिए आप उस रास्ते न जाये। पर भगवान उस साँप को प्रतिबोध देने के लिए वक्रमार्ग छोड़कर सरल मार्ग में आगे बढ़े। उस मार्ग में कनकखल वन में एक तापस का आश्रम था। वहाँ एक महाबलवान बहुत डंकिला चंडकौशिक साँप रहता था। (059
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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