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________________ में वर्षीदान कम आया हो तो बढ़ा देते हैं और अधिक आया हो तो कम कर देते हैं। 4. दूर-दूर के गाँव से पुण्यात्माओं को प्रभु के वर्षीदान के लिए देवता ले आते हैं और पुन: उनके स्थान पर छोड़ देते हैं। 5. प्रभु के हाथ से दान मिलने पर प्रौढ़ व्यक्ति भी युवावस्था के समान शोभनीय बन जाता है। यावत् जब वे घर जाते हैं तब उनकी पत्नी भी उन्हें नहीं पहचान पाती है। ___6. प्रभु के अतिशय से दान लेने वाले जीवों में संतोष गुण प्रगट होता है एवं छ: महीने के पुराने रोग भी दूर हो जाते हैं। तथा 12 वर्ष तक नये रोग उत्पन्न नहीं होते। इस तरह 1 वर्ष तक जीवों के दुःख दारिद्र का नाश करते हुए मगसर वद दशम के दिन चन्द्रप्रभा नाम की पालखी में बैठकर भव्य वरघोड़े के साथ दीक्षा लेने के लिए प्रभु ज्ञातखंड उद्यान में पधारें। वहाँ इन्द्र रचित सिंहासन पर प्रभु ने स्वयं सर्व अलंकार उतारे। फिर पँचमुष्टि लोच किया। उस समय इन्द्र महाराज ने प्रभु के मस्तक पर वज्र फेरा । दीक्षा के बाद प्रभु के केश, रोम, नख, दाढ़ी-मूंछ आदि नहीं बढ़ते। यह प्रभु का अतिशय जानना। फिर 'नमो सिद्धाणं' सिद्धों को नमस्कार कर, संकल्प की भाषा में प्रभु बोले - “करेमि सामाइयं सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि ...'' अर्थात् आज से मेरे लिए सभी पाप कर्म अकरणीय है। तथा केवलज्ञान होने तक देव, मनुष्य, तिर्यंच की ओर से जो भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे उनको समता भाव से मैं सहन करूँगा।" ऐसा दृढ़ संकल्प कर पारिवारिक व अन्य सभी जनों से विदा लेकर भगवान ने वहाँ से विहार कर दिया। (1) ग्वाले काउपसर्ग कुमार ग्राम के बाहर भगवान ध्यान में लीन थे, तभी एक ग्वाला वहाँ आया और अपने बैलों को प्रभु को सौंपकर गाँव में चला गया। थोड़ी देर बाद पुन: लौटकर आया तो देखा उसके बैल वहाँ नहीं थे। तब उसने भगवान से पूछा-बाबा ! मेरे बैल यहाँ चर रहे थे। मैं आपको सौंपकर गया था, वे कहाँ हैं ? भगवान मौन रहें । तब ग्वाला बैलों को ढूँढ़ने के लिए चल पड़ा। पूरी रात ढूँढ़ता रहा पर बैल नहीं मिलें। संयोगवश वे बैल रात्रि में भगवान के पास आकर बैठ गए । ग्वाले ने जब प्रात: वहाँ पर बैलों को बैठे हुए देखा तो क्रुद्ध हो उठा और प्रभु पर कोड़े बरसाने लगा। तभी इन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा और वहाँ आकर मूर्ख ग्वाले को समझाया-“जिन्हें तुम मार रहे हो, वे हमारे तीर्थंकर भगवान हैं।" भगवान से इन्द्र ने प्रार्थना की कि - "हे भगवन् ! आपको छद्मस्थ अवस्था में बहुत उपसर्ग आयेंगे। आप मुझे अपनी सेवा में रहने की आज्ञा दे।" तब भगवान ने कहा-"न भूतो न भविष्यति' ऐसा न कभी हुआ है और न होगा। तीर्थंकर कभी दूसरों के बल पर साधना नहीं करते। वे अपने सामर्थ्य से ही कर्मों का क्षय करते हैं।' यह सुनने पर भी
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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