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________________ भगवान महावीर का परिचय दिया। अध्यापक भगवान के पैर में गिर कर बोले “हे प्रभो! आप ज्ञान समुद्र हो। आप मेरे गुरु हो।' फिर भगवान ने अध्यापक को खूब दान दिया। प्रभु के माता-पिता भी बहुत प्रसन्न हुए और धूम-धाम से प्रभु को घर ले आए। प्रभु का विवाह भगवान ने बाल्यावस्था पार कर जब यौवनवय में प्रवेश किया तब माता-पिता ने शुभ मुहूर्त निकलवाकर बड़े ठाठ-बाठ से यशोदा के साथ प्रभु का विवाह किया। प्रभु जलकमलवत् निर्लेप भाव से संसार सुख भोग रहे थे। यशोदा रानी के साथ विषय सुख भोगते हुए भगवान को प्रियदर्शना नामक पुत्री हुई। भगवान की बहन के पुत्र जमाली के साथ उसका विवाह हुआ। इस प्रकार गृहस्थ जीवन जीते हुए भगवान अट्ठाईस वर्ष के हो गये। प्रभु की दीक्षा. भगवान जब अट्ठाईस साल के हुए तब उनके माता-पिता का देवलोक गमन हो गया। उस समय उन्होंने अपने बड़े भाई नन्दीवर्द्धन से दीक्षाग्रहण के लिए आज्ञा मांगते हुए भाई से कहा कि “माता-पिता के जीवित रहने तक घर में रहने की मेरी प्रतिज्ञा थी; वह अब पूर्ण हो गयी है। इसलिए अब मुझे दीक्षा लेने की आज्ञा दीजिए।" तब नन्दीवर्द्धन ने कहा कि “हे भाई! तुम जले पर नमक क्यों छिड़कते हो ? एक तरफ माता-पिता के वियोग का दुःख और उस पर दूसरी तरफ तुम्हारा वियोग। अभी तो माता-पिता का शोक भी नहीं मिटा है। इसलिए इस समय मैं तुम्हें दीक्षाग्रहण की अनुमति नहीं दे सकता।' तब भगवान ने कहा कि “हे भाई! मैं दो साल घर में रहूँगा, पर सब आहार-पानी प्रासुक लूँगा और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करूँगा।" फिर प्रभु की दीक्षा का समय होते ही नव लोकांतिक देवों ने आकर प्रभु से विनंती की। “जय जय नंदा! जय जय भद्दा! जय जय खत्तिवर वसहा! हे परमतारक प्रभु! आप की जय हो! विजय हो! हे क्षत्रियों में श्रेष्ठ ऋषभ समान प्रभु आप की जय हो! हे तीन लोक के नाथ! आप संयम धर्म स्वीकारो! कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करो। विश्व के सर्व जीवों के लिए हितकारी ऐसे धर्म तीर्थ की स्थापना करो।" देवों की विनंती से प्रभु ने वर्षीदान देना प्रारंभ किया। भगवान के वर्षीदान की विशेषता 1. “हे भव्यात्माओं ! आओ पधारो, प्रभु के हाथ से वर्षीदान को ग्रहण कर अपने मनोवांछित फल को प्राप्त करो" इस प्रकार की घोषणा प्रतिदिन देवी-देवता करते हैं। 2.प्रभु प्रतिदिन दो प्रहर यानि कि प्रात: 6 से 12 बजे तक 1 करोड़ 8 लाख सुवर्ण मुद्रा दान में देते हैं। 3. प्रभु के हाथ से वर्षीदान लेने वाले भव्य जीव ही होते हैं। जीव के भाग्यानुसार इन्द्र, प्रभु के हाथ
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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