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________________ 1 अर्थात् दुनिया में किसी के पास संपूर्ण सुख नहीं है । यदि निन्यानवें सुख है तो भी एकाध दुःख ऐसा आ जाता है कि वह निन्यानवें सुख को भूला देता है। अर्थात् संसार का सुख अधूरा है । इस प्रकार कर्म ने पूरी दुनिया को हिला दिया है । अब यदि हम उदित कर्म को समभाव पूर्वक सहन कर खपा देंगे तो मोक्ष हम से सात कदम भी दूर नहीं होगा । मात्र मोक्ष में ही समान, सतत और संपूर्ण सुख है। इसलिए जीव को मोक्ष के लिए ही मेहनत करनी चाहिए। मोक्ष के लिए धर्मप्राप्ति जरुरी है । एवं धर्मप्राप्ति के लिए तथाभव्यत्व का परिपाक होना आवश्यक हैं । शास्त्रकारों ने तथाभव्यत्व के परिपाक के तीन उपाय बताए हैं। 1 के भाव (1) दुष्कृत निंदा - किये हुए पापों का मिच्छामि दुक्कडम् देना । मन में पाप के प्रति घृणा तथा पश्चाताप के भाव पैदा करना । (2) सुकृत अनुमोदना - किए हुए अच्छे कार्यों की अनुमोदना करना । 1 (3) चतुः शरण गमन- अरिहंत शरण, सिद्ध शरण, साधु शरण एवं धर्म की शरण स्वीकारना । . 2. कुसंस्कार- आत्मा का दूसरा दुश्मन है कुसंस्कार । कुसंस्कार ही जीव को पाप कर्म की ओर धकेलता है। जैसे सामायिक करने की इच्छा हुई उसी समय कुसंस्कार जीव को T.V. देखने की प्रेरणा करता है। ये कुविचार कुसंस्कारों को मजबूत करते हैं। जैसे पानी रेफ्रिजरेटर में रह गया तो बरफ में ट्रांसफर हो जाता हैं । वैसे ही कुविचार मन में रह गया तो उसका ट्रांसफर कुसंस्कार में हो जाता है। आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर छूट जाता है, लेकिन जिंदगी भर की हुई मानसिक कुवृत्तियाँ मौत के बाद भी अगले भव में कुसंस्कार के रूप में साथ आती है। अनादिकाल के कुसंस्कार एक ऐसी जेल है जो कर्मों के बंध के द्वारा जीव को हमेशा संसार में जकड़े रखती है। इसलिए खराब रोग, खराब शत्रु की तरह कुसंस्कार को तुरंत ही निकाल देना चाहिए। इन कुसंस्कारों को निकालने के लिए आत्म विकास का लक्ष्य बनाना चाहिए। जिस तरह बीज की ताकत धरती पर निर्भर है उसी तरह आत्म-विकास की ताकत श्रेष्ठ वातावरण पर निर्भर है। इसलिए हमेशा कुनिमित्तों से दूर रहकर धर्ममय वातावरण में रहे । धर्ममय वातावरण में रहने से क्रमश: इस प्रकार आत्म विकास होता है। 1. अच्छे वातावरण में अच्छे कार्य करने पर जीव को सद्गति मिलती है। 2. सद्गति से सन्मति मिलती है। 3. सन्मति से सत्संगति मिलती है। 4. सत्संगति के अनुसार मन की वृत्ति बनती है। CO77
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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