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श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः
(हृदयोदगार
शताब्दि वर्ष में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में विशाल संख्या में युवति संस्कार शिविर का आयोजन हमारी निश्रा में हुआ। जिसमें कुमारपाल वी. शाह भी पधारे थे। उन्होंने बताया कि "भारतभर में 15000 जैन बस्ती वाले गाँवों में से मात्र हजार, पंद्रह सौ गाँवों को ही साधुसाध्वी का योग मिलता है। बाकी के जैन गाँवों की
स्थिति अति विचारणीय है। शताब्दि वर्ष में उन तक जैन धर्म का ज्ञान पहुँचे ऐसा कुछ प्रावधान बनें तो यह गुरु शताब्दि वर्ष सार्थक बन जाएगा।" उनके इन शब्दों ने मेरी आत्म चेतना को झकझोर दिया। नई प्रेरणा मिली।
प्रथम तीर्थंकर तीर्थाधिपति आदिनाथ दादा, प.पू. दादा गुरुदेव राजेन्द्र सूरि, यतीन्द्र सूरि तथा विद्याचंद्र सूरि आदि गुरुभगवंतों के आशिष लिये। कार्य प्रारंभ किया "श्री गुरु राजेन्द्र विद्या वाटिका-जैनिज़म कोर्स" के नाम से पाठ्यक्रम बनाना शुरु किया। मोहनखेड़ा चातुर्मास में शताब्दि वर्ष में 100 सेंटर बने। प्रथम खंड की परीक्षा गुरु शताब्दि वर्ष तक सम्पन्न हो गई। इस क्रम में 4 खंड की परीक्षा होती रही। _शताब्दि वर्ष के बाद हमारा दूसरा चातुर्मास आहोर हुआ। इस कोर्स को गच्छ के बंधनों से मुक्त कर सर्वव्यापी बनाने हेतु गोड़ी पार्श्वनाथ दादा एवं गुरुदेव से प्रार्थना की। जाप करते-करते इस कोर्स का नाम “श्री विश्व तारक रत्नत्रयी विद्या राजितं-जैनिज़म कोर्स" रखना एवं जिनवाणी का उद्गम स्थान समवसरण, एवं लक्ष्य स्थान सिद्धशीला का मोनो बनाना आदि बाते स्फुरायमान हुई।
फिर तो इस कोर्स का पुनरुद्धार हुआ। प्रथम खंड से पुनः काफी छणावट के साथ लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ। यह कार्य आहोर-जावरा के चातुर्मास में मंद गति से रहा। तत्पश्चात् | मोहनखेड़ा में 36 दिनों में गुरुदेव की कृपा से इस कार्य ने तीव्र गति पकड़ी। फिर शंखेश्वर तीर्थ में 11 महिने आराधना के साथ सतत प्रभु के सानिध्य में शंखेश्वर दादा को प्रार्थना, समर्पण एवं
शरणागति के साथ इस कार्य को वेग मिलता रहा। पूरा समर्पित परिवार इसके लेखन कार्य में मेरे । साथ जुड़ गया। किसी ने लेखन के लिए आवश्यक पुस्तकों का संग्रह किया तो किसी ने मेरे मार्गदर्शन के अनुरुप मेरे साथ-साथ लेखन कार्य में सहयोग दिया। किसी ने प्रुफ रिडिंग की तो