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(18) फास्ट फुड नहीं खाना। थाली धोकर पीना, पोंछकर रखना। (19) कच्चे दही, छाछ को अलग रखें। द्विदल न हो उसका ध्यान रखें। (20) भोजन करने के बाद भोजन बच जाए तो तुरंत ही उसका उपयोग (गाय, गरीब को देकर) कर लें। बासी न रखें। झूठे बर्तन 48 मिनिट से ज्यादा न रखें। (21) अत्यंत लोलुपता, गृद्धि एवं आसक्ति पूर्वक भोजन नहीं करना। (22) टूटे फुटे बर्तन में या कागज़ की प्लेट में भोजन नहीं करना। (23) खाते वक्त मुंह से किसी भी प्रकार की आवाज़ न हो। इस प्रकार चबा-चबाकर खाना चाहिए। (24) दक्षिण दिशा की ओर मुँह रखकर खाना न खाए। (25) खाने के पहले परिवार के बड़ों ने, छोटों ने, नौकरों ने खाना खाया या नहीं उसकी पृच्छा कर लें। (26) खाने के बाद नींद आए तो समझना की आज जरुरत से ज्यादा खा लिया है। (27) खाते वक्त कोकम, मीठा नीम का पत्ता, मिर्च, इमली आदि आ जाए तो उसे चबा ले। लेकिन बाहर न फेंके। जयणा - साहेबजी.! अपने जीवन को सुधारने के लिए तथा वास्तविक जैन बनने के लिए मैं उपरोक्त नियमों का पालन करने की पूरी-पूरी कोशिश करूँगी। जीवन में पहली बार मुझे जैन होने का गर्व महसूस हो रहा है। धन्य है जैन शासन को, जिसमें खाने में भी जीवों की जयणा को इतनी प्रधानता दी गई है तो बाकि चीज़ों का तो कहना ही क्या ?. - (इस प्रकार शिविर में तत्त्वज्ञान, पूजन विवेक आदि अनेक क्लासेस हुई। जयणा को पहली बार धर्म को इतनी गहराई से जानने को मिला था इससे वह बहुत ही प्रभावित हुई और हर क्लास में उसने यथाशक्ति नियम ग्रहण किए। इस प्रकार शिविर के 10 दिन पूरे हो गये। शिविर के बाद तो जयणा एक दूसरा रुप लेकर ही घर आयी। उसने शिविर की सारी बातें सुषमा को बताई। जयणा द्वारा लिए गए नियम से सुषमा ने चौंककर कहा - सुषमा- पागल हो गई है तू। पता है आजीवन रात्रिभोजन त्याग का मतलब क्या होता है ? साधुओं का तो काम ही है उपदेश देना। और तू बिना विचारे इतने सारे नियम लेकर आ गई। पूरी छुट्टियाँ waste कर दी। यदि माथेरान आती तो पता चलता, कितना मज़ा आया था। सब मिस् कर दिया। । जयणा - सुषमा! मिस् मैंने नहीं, मिस् तो तुमने किया है। माथेरान जाकर तुमने भले ही बहुत मौज-मज़े किए होंगे, परंतु शिविर में जाने के बाद मैंने सच्चा ज्ञान पाया है। जैन होने का गौरव पाया है तथा अपनी आत्मा को नरकादि में जाने से बचाया है।