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________________ कर्म कर्म की व्याख्या : मिथ्यात्वादि हेतुओं द्वारा जीव जो काम करता है। वह कर्म कहलाता है। कर्मबंध के पाँच हेतु (1) मिथ्यात्व : श्री अरिहंत परमात्मा द्वारा बताये हुए सत्य तत्त्व (सुदेव, सुगुरु, सुधर्म) को छोड़कर अन्य तत्त्व को मानना । (2) अविरति : हिंसादि पापों का अत्याग यानि कि सर्वविरति, देशविरति, व्रत, पच्चक्खाण आदि ग्रहण पालन न करना । : क्रोध, मान, माया, लोभ का सेवन करना । : मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा करना। : मन, वचन और काया की प्रवृत्ति करना । भेद कौन से गुण को रोकता है 2 | आत्मा के ज्ञान गुण को रोकता है। आत्मा के दर्शन गुण को रोकता है।' आत्मा के अव्याबाध सुख को रोकता है। 28 सम्यग्दर्शन और चारित्र गुण को रोकता है। | आत्मा की अक्षयस्थिति को रोकता है। 103 | आत्मा के अरुपी गुण को रोकता है। 4 6. नाम 7. गोत्र 2 8. अंतराय आत्मा के अगुरु-लघु गुण को रोकता है। 5 आत्मा के अनंतवीर्य गुण को रोकता है। कहानी द्वारा कर्म के नाम एक आदमी था, ज्ञानचन्द्र ( ज्ञानावरणीय कर्म) । वह प्रतिदिन दर्शन करने जाता था (दर्शनावरणीय कर्म)। एक दिन रास्ते में उसके पेट में वेदना हुई ( वेदनीय कर्म) । वहाँ डॉ. मोहनदास आए (मोहनीय कर्म) उन्होंने कहा तुम्हारी आयु कम है (आयुष्य कर्म)। भगवान का नाम लो (नामकर्म) उच्च गोत्र मिलेगा (गोत्र कर्म)। सब अंतराय टूट जायेंगे (अंतराय कर्म) । प्र.: फटाके फोड़ने से आठ कर्म बंध कैसे ? 3.: 1. पेपर जलने से - ज्ञानावरणीय कर्म (3) कषाय (4) प्रमाद (5) योग कर्म के नाम 1. ज्ञानावरणीय 5 2. दर्शनावरणीय 9 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयुष्य 086 बंध का कारण | ज्ञान, ज्ञानी की आशातना करने से । | दर्शन के उपकरण की आशातना से। जीवों को दुःख देने से। उन्मार्ग देशना, साधु की निंदा, राग-द्वेष करने से । कषाय करने से। शुभ - अशुभ कार्य करने से। पर - निंदा, स्व-प्रशंसा करने से। दान, शीलादि में अंतराय करने से।
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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