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लिए उस नाँव में जीव यानि मनुष्य बैठा है। अनुकूल पवन - जो जीव को सुख की दिशा में ले जाता है, वह पुण्य है। प्रतिकूल पवन - जो जीव को दुःख की दिशा में ले जाता है, वह पाप है। नाँव में छेद पड़ जाए और उस नाँव में पानी भरने लगे तो उसे आश्रव कहा जाता है। जीव उस छेद को किसी वस्तु से बंध कर दे उसे संवर कहा जाता है। छेद को बंध करने के बाद जीव नाँव के अंदर रहे हुए पानी को बाहर निकालता है उसे निर्जरा कहते है । बाद में नाँव का जो लकड़ा भीगा हुआ होता है उसे बंध कहा जाता है। जीव उस नाँव को सुकाने के लिए समुद्र के तट पर आकर उस नाँव को बांधकर अपने घर लौटता है । उसे मोक्ष कहा जाता है।
पुण्य-पाप के 4 प्रकार
1. पुण्यानुबंधी पुण्य- जिस पुण्य के उदय में जीव को अच्छी सामग्री के साथ अच्छी बुद्धि मिलती है एवं जीव उस पुण्य का सदुपयोग कर पुनः पुण्य का उपार्जन करे, वह पुण्यानुबंधी पुण्य कहलाता है । जैसे धन्ना - शालिभद्र का पुण्य ।
2. पापानुबंधी पुण्य- पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय होने पर सामग्री तो बहुत अच्छी मिलती है। लेकिन उसका दुरुपयोग कर पुनः पाप का बंध करे, वह पापानुबंधी पुण्य कहलाता है। जैसे बह्मदत्त चक्रवर्ती ने पुण्य से प्राप्त सत्ता का उपयोग ब्राह्मणों की आँखें फोड़ने में किया एवं उससे पाप बांधकर नरक में गया।
उ. पुण्यानुबंधी पाप- पाप के उदय को समभाव से सहन करने पर नया पुण्य उपार्जित होता है। वह पुण्यानुबंधी पाप कहलाता है। जैसे अंजना सती को पाप के उदय से पति का वियोग हुआ परन्तु उस दुःख में स्वयं दुःखी न बन कर आराधना में लीन रही उससे पुण्य बंध हुआ । अर्थात् पाप के उदय में स्वच्छ बुद्धि से समभाव में रहना ।
4. पापानुबंधी पाप- पाप के उदय में आर्तध्यान कर पुनः पाप कर्म को बांधना। वह पापानुबंधी पाप कहलाता है। जैसे भील - कसाई - मच्छीमार आदि पाप के उदय से इस भव में दुःखी होते हैं । और पुनः पाप बांधकर नरक में दुःख पाते हैं।
(नोट - नवतत्त्व का विस्तृत विवेचन इसी कोर्स में आगे यथास्थान दिया जायेगा । )
जरा सोचो
आँख में गिरी हुई मिट्टी, पैर में लगा हुआ काँटा, यह जितने खटकते है उतना हृदय में रहा हुआ पाप खटक जाये तो पाप अटक जाता है। याद रखें जो खटकता है वो अटकता है।
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