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आनंद को देने में भी समर्थ है। जैसे लक्ष्मी भरपूर हो, दिल उदार हो, एवं सामने याचक वर्ग हाजिर हो, तो दातार दिल खोलकर देने में बाकी नहीं रखता। वैसे ही प्रभु भी अचिंत्य शक्ति युक्त होने से जीवों को देने में कुछ बाकी नहीं रखते।
प्र.: यदि अरिहंत प्रभु सर्व जीवों को मोक्ष देने में समर्थ है तो हमें मोक्ष क्यों नहीं दिया? अभी तक हमारा भव-भ्रमण क्यों चालु है?
उ.: भगवान तो हमें मोक्ष देने में समर्थ है लेकिन जब तक हम संसार का राग एवं आग्रह नहीं छोड़ते तब तक हमारा मोक्ष नहीं हो सकता। जैसे सूर्य अपना प्रकाश धरती पर फैलाता ही है। लेकिन उस प्रकाश को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपने घर का दरवाज़ा खुला रखना पड़ता है। प्रकाश युक्त कमरे में जाकर स्वयं को बैठना पड़ता है तथा उस कमरे में बैठने के बाद अपनी आँखें भी खुली रखनी पड़ती है। तभी व्यक्ति सूर्य के प्रकाश का लाभ उठा सकता है। ठीक उसी प्रकार जगत के सर्व जीवों के प्रति प्रभु तो अनंत करुणा बरसा ही रहे है। लेकिन उस करुणा को ग्रहण करने के लिए योग्यता तो हमें ही प्रगट करनी पड़ती है। छाया देना यह वृक्ष का स्वभाव है एवं ठंडी को दूर करना यह अग्नि का स्वभाव है, परंतु छाया प्राप्ति एवं ठंडी को दूर करने के लिए स्वयं व्यक्ति को वृक्ष एवं अग्नि के पास तो जाना ही पड़ता है। इसी प्रकार मोक्ष देने का स्वभाव वीतराग प्रभु का है लेकिन मोक्ष के इच्छुक व्यक्ति को सच्ची श्रद्धा से प्रभु की शरणागति तो स्वीकारनी ही पड़ती है। हम स्वयं आँखें बंद रखें एवं सूर्य की प्रकाशता पर शंका करे... यह कहाँ तक उचित है? उसी तरह हम स्वयं प्रभु से दूर रहे और प्रभु की तारकता पर शंका करे..... यह कहाँ तक उचित है ? प्र.: प्रभु की शरणागति कैसे स्वीकार करनी चाहिए?
उ.: अपने जीवन में जो कुछ भी अच्छा हो रहा है उसमें अरिहंत प्रभु की करुणा के सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है। जगत में अंधेरे का नहीं होना जैसे सूर्य पर आधारित है, उसी प्रकार अपने जीवन में दु:ख, संक्लेश का नहीं होना वह मात्र अरिहंत की करुणा पर आधारित है। ऐसे अनंत उपकारी तीर्थंकर प्रभु के उपकारों को हृदय से स्वीकार करें। प्रभु के उपकारों के स्मरण से हृदय को गद् गद् बनायें। आत्म कल्याणकारी उनकी प्रत्येक आज्ञा का जीवन में यथाशक्य पालन करें, कषायों के नाश के लिए निष्ठा पूर्वक प्रयत्न करें। जीव मात्र के प्रति सद्भाव पैदा करें। जीवन के प्रत्येक बाह्याभ्यंतर विकास के मूल में तारक प्रभु की कृपा-वर्षा ही एक मात्र कारण है... ऐसा अंत:करण से स्वीकार करें। यही है प्रभु की शरणागति भाव। जो आत्मा प्रभु की शरणागति भाव को स्वीकार करती है वह आत्मा प्रभु की कृपा पात्र बनती है और जो कृपा पात्र बनती है वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करती है... इसमें कोई शंका नहीं ।
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