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________________ _3. आचार्य:प्रभु के विरहकाल में शासन की धुरा आचार्य भगवंत संभालते हैं । ये सूत्रों के अर्थ की देशना देते हैं। पाँच इन्द्रियों के विषयों को दमन करने में समर्थ, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य के पालक, चार कषायों से मुक्त, पंचाचार के पालक, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति से युक्त ऐसे छत्तीस गुणवाले आचार्य भगवंत होते हैं। ये अरिहंत प्रभु के मार्ग को सूर्य के समान सर्वत्र प्रकाशित करते हैं। अत: इनका वर्ण पीला होता है। 4. उपाध्याय: ये सूत्र की देशना देने में बड़े दक्ष होते हैं। ये 11 अंग, 12 उपांग, चरणसित्तरी एवं करण सित्तरी इन 25 गुणों से अलंकृत होते हैं । मुमुक्षुओं को आराधना द्वारा ज्ञानादि की शीतल छाया देने वाले हरे-भरे वृक्ष के समान होने से इनका वर्ण हरा होता है। . 5. साधुःजो दूसरों को सहाय करें, स्वयं साधना करें उसे साधु कहते हैं। ये मोक्ष के साधक होते हैं। छ: महाव्रत का पालन, छ:काय का रक्षण, पाँच इन्द्रिय एवं लोभ का निग्रह, तीन अकुशल मन, वचन, काया का त्याग, क्षमा रखना, भाव विशुद्धि, पडिलेहण में विशुद्धि, संयम योग से युक्त, शीतादि पीड़ा को सहन करना, मरणान्त उपसर्ग को वहन करना इस प्रकार साधु के कुल मिलाकर 27 गुण होते हैं। अंदर से कर्मों की कालिमा को बाहर निकालते हैं। इसलिए इनका वर्ण काला होता है। 6.सम्यग् दर्शनः एक ऐसी दृष्टि जिसमें करने योग्य और नहीं करने योग्य कार्य का सम्यग् विवेक होता है एवं सुदेव, सुगुरु , सुधर्म पर सच्ची श्रद्धा बनती है। इससे आत्मदशा का ज्ञान होता है। मिथ्यात्व मोहनीय की मंदता अथवा नाश से इसकी प्राप्ति होती है। इसके 67 भेद हैं। इसका वर्ण श्वेत होता है। इसके बिना किया गया धर्म विशेष फलदायी नहीं बनता। ____7.सम्यग्ज्ञान: जीवादि नव तत्त्व एवं वीतराग वाणी का वास्तविक स्वरुप इससे ज्ञात होता है। इस ज्ञान के अभाव से ही जीव ने अनंत दुःख देखे हैं। इसके 51 भेद हैं। तथा इसका वर्ण श्वेत होता है। 8.सम्यग् चारित्रः सम्यग् विवेक एवं सम्यग् जानकारी होने के बाद उसके अनुरुप आचरण आने पर ही मुक्ति मिल सकती है। इस आचरण को चारित्र कहते हैं। इसके 70 भेद है एवं वर्ण श्वेत होता है। 9.सम्यग् तपः जिससे समभाव का पोषण हो, सहिष्णुता बढ़े, कषाय घटे एवं इच्छाओं का रोध हो, वह सम्यग् तप है। तप कर्म की निर्जरा के उद्देश्य से होना चाहिए। इसके 12 भेद हैं एवं वर्ण श्वेत होता है। इन नवपद में प्रथम दो पद देव तत्त्व के हैं। उसके बाद तीन पद गुरु तत्त्व के एवं अंतिम चार पद धर्म तत्त्व के हैं। गुरु ही देव एवं धर्म की पहचान कराते हैं। अत: गुरु तत्त्व मध्य में है। इन नवपद में प्रथम दो
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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