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मंदिर में कीड़ी आदि जीवात उत्पन्न न हो इसलिए पूरी सावधानी रखें। विधि के बाद फल-फूल, नैवेद्य, चावल आदि अपने हाथ से ही व्यवस्थित स्थान पर रख दें यानि यहाँ-वहाँ न गिरे इसका ध्यान रखें। प्र.: चैत्यवंदन करते समय पक्षाल,आरती आदि करने जासकते हैं क्या? उ.: द्रव्य पूजा पूर्ण कर चैत्यवंदन करते समय पक्षाल या आरती आदि के लिए चैत्यवंदन छोड़कर दौड़ना उचित नहीं है । जो भी क्रिया कर रहे हो उसे मन लगाकर करनी चाहिए, अन्यथा सब क्रिया विक्षिप्त हो जाने पर पूर्ण रूप से फल की प्राप्ति नहीं होती है। एक बार द्रव्य, भाव सर्व क्रिया सम्पूर्ण कर लेने के बाद घर जाते समय यदि आरती आदि चल रही हो तो पुनः दुबारा द्रव्य क्रिया कर सकते हैं । जैसे पुनः दूसरी बार मंदिर में आए हो और लाभ मिल रहा है इस भावना से ...
अवस्था त्रिक प्रभु की 1. पिण्डस्थ (छद्मस्थ) 2. केवली 3 सिद्ध अवस्था का चिंतन करें। 1.पिण्डस्थ अवस्थाः(छदस्थ अवस्था)
. प्रभु के जन्म से लेकर केवल ज्ञान न हो, वहाँ तक की अवस्था छद्मस्थ अवस्था कहलाती है। प्रभु का इन्द्र द्वारा किया गया स्नात्र महोत्सव और छद्मस्थ अवस्था में भी प्रभु का कैसा सत्त्व था? आदि का चिंतन करें। जल पूजा करते समय इस अवस्था का चिंतन करें।
वीर प्रभु की बाल क्रीड़ा का पराक्रम, पार्श्वकुमार का जलते नाग को नवकार सुनाना, नेमिकुमार का मित्रों के आग्रह से शंख फूंकना आदि विचार कर सकते हैं, तथा सभी अवस्था में प्रभु का उत्तम वैराग्य कैसा अद्भुत था? एवं प्रभु ने उपसर्गों में भी कैसी समता रखी? इत्यादि के द्वारा आत्मा को भावित करें। इस पर अरिहंत वंदनावली की 1 से 28 गाथा का अर्थ विचार सकते हैं तथा चंदन पूजा के दोहे बोलते समय प्रभु के सत्त्व आदि का चिंतन करें। 2. पदस्थ अवस्थाः (केवली अवस्था)
इस अवस्था का ध्यान करते समय अपनी सुषुप्त आत्मा जो कर्मों के आवरण में रही हुई है। उसकी वीतरागता का चिंतन करें। यही प्रभु दर्शन का सर्वश्रेष्ठ फल है। गौशाले ने तेजोलेश्या फेंकी। फिर भी प्रभु ने कोई प्रतिकार नहीं किया। प्रभु की ऐसी अद्भुत समता से आत्मा को भावित करके सामान्य संयोगों में रागद्वेष नहीं करूँगा, ऐसा निश्चय करना। इसमें अरिहंत वंदनावली की 29 से 43 गाथा का अर्थ विचार सकते हैं। पुष्प पूजा करते समय इस अवस्था का चिंतन करें। 3.रूपातीत अवस्थाः (सिद्ध अवस्था)