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________________ प्र.: साधु महात्मा ग्रामानुग्राम विहार क्यों करते है एवं कैसे करते है? उ.: प्रभु ने साधु भगवंत के जो उपकरण बताए हैं। साधु महात्मा उन उपकरणों को अपने शरीर पर उठाकर नंगे पैर स्व-पर कल्याण हेतु ग्रामानुग्राम विहार करते हैं। उनका अपना कोई स्थिर एड्रेस नहीं होता। गाँवगाँव में धर्म का उपदेश देकर जीवों को मोक्षाभिमुख बनाते हैं एवं उत्कृष्ट जीवदया के पालन से आत्मा के कर्म मल को धोते हैं। साथ ही उन्हें शारीरिक स्तर पर भी कई लाभ होते हैं। जैसे :- नंगे पैर चलने से पाँव के तलिये में एक्युप्रेशर हो जाता है। विहार में पेड़-पौधे एवं हरियाली होने से आँखें तेज होती है। शुद्ध हवा से शरीर में ताज़गी एवं स्फूर्ति बनी रहती है, जिससे बिमारी जल्दी नहीं आती एवं विहार से शरीर का संतुलन भी बना रहता है। प्र.: इसके अलावा साधु जीवनकी और क्या-क्या विशेषता होती है? उ.: साधु महात्मा अत्यंत निर्मल जीवन जीते हुए भी जाने-अनजाने में कोई पाप हुआ हो तो उसकी शुद्धि हेतु सुबह-शाम दो बार प्रतिक्रमण करते हैं। प्रतिक्रमण की क्रिया भी अपने आप में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों ही प्रकार से आत्मा के लिए हितकर सिद्ध होती है। इतना ही नहीं संयमी महात्मा जीव -रक्षा हेतु लाईट, पंखा, वाहन आदि का बिल्कुल उपयोग नहीं करते। भूख-तृषा आदि परिषह उपसर्गों को कर्म क्षय करने हेतु सहर्ष सहन करते हैं। ___ बिना किसी अपेक्षा के स्वाधीन जीवन जीने वाले साधु महात्मा के जीवन की तरफ नज़र करते है, तो ऐसा लगता है कि जहाँ दुनिया के लोगों को (गृहस्थ) पैसा, लाईट, पंखा, वाहन, अग्नि, पानी, स्त्री आदि के बिना एक क्षण भी नहीं चलता। वहाँ जिन-शासन के साधु इन सारी चीज़ों का जिंदगी भर के लिए त्याग कर आनंद से जीवन व्यतीत करते है। क्या यह विश्व का सबसे बड़ा आश्चर्य नहीं है? अरे ! इससे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि जहाँ ये संसारी लोग भूमि शयन (संथारा) जैसे छोटे-छोटे नियम लेने से कतराते है वही प्रभु वीर के ये साधु हँसते-हँसते केश लुंचन करवाते है। संसारी जीव अपने हर कार्य में पाप कर्म का बंध करता है जबकि साधु आहार, विहार, निहार आदि हर कार्य में कर्मों की निर्जरा ही करता है। संसार में चारों तरफ बंधन ही है जबकि साधु हमेशा स्वेच्छा से आराधना कर प्रसन्न रहते हैं। - दीक्षा की महत्ता राजगृही नगरी के एक गरीब लड़के ने दीक्षा ली। गाँव के लोग उसे चिड़ाने लगे कि पैसे नहीं थे इसलिए दीक्षा ली। उससे सहन नहीं हुआ और उसने गुरु से कहा-यहाँ से विहार करो। तब अभयकुमार मंत्री 19
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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