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________________ यहाँ उनके उदय में आया। वह शय्यापालक अनेक भवभ्रमण कर अब गोपालक हुआ था। उसने भगवान को अपने बैल सौंपे और स्वयं गाँव में गया। वहाँ से लौटने पर उसे अपने बैल दिखाई नहीं दिये। फिर रात भर घूम-घूम कर उसने अपने बैलों को ढूंढा। सुबह जब भगवान के पास आया, तब उसे वहाँ अपने बैल दिखाई दिये। __उस समय पूर्व भव के वैर के कारण उसके मन में द्वेष उत्पन्न हुआ। और उसने भगवान के कानों में खीले ठोंके इससे भगवान को महावेदना हुई। भगवान सिद्धार्थ वणिक के घर गोचरी गये। वहाँ खरक वैद्य ने भगवान को सशल्य देखा। व्यथा मिटाने के लिए सेठ और वैद्य दोनों प्रभु के पीछे-पीछे गये। फिर वैद्य ने कान में रही हुई कील सँडासे से पकड़कर रेशम की डोरियों से दोनों तरफ दो वृक्षों की डालों से बाँधकर दोनों डालियाँ झुकाकर एक ही समय में एक साथ उन्हें छोड़ा। इससे दोनों कानों के खीले तुरंत एक साथ निकल गए। पर उस समय प्रभु को इतनी तीव्र वेदना हुई कि जिससे प्रभु जोर से चीख पड़े। उस चीख से पर्वत फट गया। जो वर्तमान में बामणवाड़ा तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। भगवान जब भी जहाँ-जहाँ बैठे, गोदुहासन में बैठे, पर किसी भी दिन धरती पर नहीं बैठे। इन साढ़े बारह वर्षों में प्रभु ने मात्र दो घड़ी शूलपाणि यक्ष के मंदिर में नींद ली। शेष सब काल निद्रारहित बीता। (10) प्रभुको केवलज्ञान: प्रभु ने साढ़े बारह वर्ष के साधना काल में कुल 11 वर्ष 6 महिने 15 दिन चउविहार उपवास तथा 349 पारणे एकासणे से किये। पारणे में श्री प्रभु ने पानी नहीं वापरा। काया को वोसिरा कर समभाव से उपसर्गों को सहन करते-करते साढ़े बारह वर्ष बीत गये। ग्रीष्म ऋतु का वैशाख महिना आया। शुक्ला दशमी का दिन था। भगवान चूंभिकाग्राम नगर के बाहर ऋजुवालिका नदी के किनारे गोदोहिका आसन में बैठे थे। ध्यान की क्षपक श्रेणी का आरोहण करते-करते अनावरण हो गये। चार घाति कर्मों के बंधन पूर्णतः टूट गये। वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवलज्ञानी बन गये। ___ केवली बनते ही चौसठ इन्द्रों व अनगिनत देवी-देवताओं ने भगवान का 'केवलज्ञान महोत्सव' मनाया। देवों ने समवसरण की रचना की। इस समवसरण में केवल देवी-देवता थे। प्रभु ने क्षण भर देशना दी। पर किसी ने सामायिकादि व्रत ग्रहण नहीं किए, क्योंकि देवों में यह प्राप्त करने की योग्यता नहीं होती। अतः प्रभु महावीर तीर्थ की स्थापना नहीं कर सके। तत्पश्चात् प्रभु महावीर स्वामी वहाँ पर लाभ का अभाव जानकर रात्रि में ही विहार कर बारह योजन दूर अपापा नगरी के महसेन नामक वन में आए। नोट : तीर्थंकर का व्यवहार कल्पातीत होने से एवं उन्हें केवलज्ञान होने से वे रात्रि में विहार करे तो भी कोई दोष नहीं है, परन्तु प्रभु महावीर का उदाहरण लेकर अन्य साधु-साध्वी इस प्रकार विहार नहीं कर सकते।
SR No.002437
Book TitleJainism Course Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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